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16 दिसंबर 2015

नया शिवाला

सच कह दूँ ऐ बिरहमन[1] गर तू बुरा न माने
तेरे सनमकदों के बुत हो गये पुराने

अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा
जंग-ओ-जदल[2] सिखाया वाइज़[3] को भी ख़ुदा ने

तंग आके मैंने आख़िर दैर-ओ-हरम[4] को छोड़ा
वाइज़ का वाज़[5] छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने

पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है

आ ग़ैरियत[6] के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें

सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें

दुनिया के तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ
दामान-ए-आस्माँ से इस का कलस मिला दें

हर सुबह मिल के गायें मन्तर वो मीठे- मीठे
सारे पुजारियों को मय प्रीत की पिला दें

शक्ती[7] भी शान्ती[8] भी भक्तों के गीत में है
धरती के वासियों की मुक्ती[9] पिरीत[10] में है

--- अल्लामा इक़बाल

1 ↑ ब्राह्मण
2 ↑ दंगा-फ़साद
3 ↑ उपदेशक
4 ↑ मंदिर-मस्जिद
5 ↑ उपदेश
6 ↑ अपरिचय
7 ↑ शक्ति
8 ↑ शांति
9 ↑ मुक्ति
10 ↑ प्रीत

2 सितंबर 2015

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं

सितारों के आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़[1] के इम्तिहाँ[2] और भी हैं

तही ज़िन्दगी से नहीं ये फ़ज़ायें
यहाँ सैकड़ों कारवाँ और भी हैं

क़ना'अत[3]न कर आलम-ए-रंग-ओ-बू[4]पर
चमन और भी, आशियाँ[5]और भी हैं

अगर खो गया एक नशेमन तो क्या ग़म
मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ[6]और भी हैं

तू शाहीं[7]है परवाज़[8]है काम तेरा
तेरे सामने आसमाँ और भी हैं

इसी रोज़-ओ-शब [9]में उलझ कर न रह जा
के तेरे ज़मीन-ओ-मकाँ [10]और भी हैं

गए दिन के तन्हा था मैं अंजुमन [11]में
यहाँ अब मेरे राज़दाँ [12]और भी हैं

--- अल्लामा इक़बाल

शब्दार्थ:
1 ↑ प्रेम
2 ↑ परीक्षाएँ
3 ↑ संतोष
4 ↑ इन्द्रीय संसार
5 ↑ घरौंदे
6 ↑ रोने-धोने की जगहें
7 ↑ गरुड़ , उक़ाब
8 ↑ उड़ान भरना
9 ↑ सुबह -शाम के चक्कर
10 ↑ धरती और मकान
11 ↑ महफ़िल
12 ↑ रहस्य जानने वाले

8 फ़रवरी 2015

खाली पड़ा था दिल

खाली पड़ा था दिल का मकान आप के बग़ैर
बेरंग सा था सारा जहां आपके बग़ैर

फूलों में चांदनी में धनक में घटाओं में
पहले ये दिलकशी थी कहाँ आपके बग़ैर

साहिल को इंतज़ार है मुद्दत से आपका
रुक सी गयी है मौज-ए-रवां आपके बग़ैर

हर सिम्त बेरुख़ी की है चादर तनी हुई
किस पर करें वफ़ा का गुमां आपके बग़ैर

ख़ामोशियों को जैसे ज़ुबां मिल गयी ‘क़तील’
महफ़िल में ज़िन्दगी थी कहाँ आपके बग़ैर

---क़तील शिफ़ाई

1 जनवरी 2015

यह जो हल्का हल्का सरूर है

साकी की हर निगाह पे बल खा के पी गया
लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया
एय रहमत-ऐ-तमाम मेरी हर खता मुआफ
मई इंतिहा-ऐ-शौक (में) से घबरा के पी गया
पीता बगैर इज़्म ये कब थी मेरी मजाल
दर-पर्देह चश्म-ऐ-यार की शय पा के पी गया
पास रहता है दूर रहता है
कोई दिल में ज़रूर रहता है
जब से देखा है उन की आंखों को
हल्का हल्का सुरूर रहता है
ऐसे रहते हैं कोई मेरे दिल में
जैसे ज़ुल्मत में नूर रहता है
अब अदम का येः हाल है हर वक्त
मस्त रहता है चूर रहता है
ये जो हल्का हल्का सरूर है
ये तेरी नज़र का कसूर है
के शराब पीना सिखा दिया
तेरे प्यार ने , तेरी चाह ने
तेरी बहकी बहकी निगाह ने
मुझे इक शराबी बना दिया
शराब कैसी (What Drink), खुमार कैसा (what Elevation)
ये सुब तुम्हारी नवाज़िशैं हैं (It is all your gift)
पिलाई है किस नज़र से तू ने (How i have been made into an addict)
के मुझको अपनी ख़बर नही है (I have no awareness of Myself)
तेरी बहकी बहकी निगाह ने (Your lost looks)
मुझे इक शराबी बना दिया....
सारा जहाँ मस्त, जहाँ का निज़ाम (System) मस्त
दिन मस्त, रात मस्त, सहर (Morning) मस्त, शाम मस्त

दिल मस्त, शीशा मस्त, साबू (Cup of Wine) मस्त, जाम मस्त
है तेरी चश्म-ऐ-मस्त से हेर ख़ास-ओ-आम (Everyone) मस्त
यूँ तो साकी हर तरह की तेरे मैखाने में है
वो भी थोडी सी जो इन आंखों के पैमाने में है
सब समझता हूँ तेरी इशवा-करी (Cleverness) ऐ साकी
काम करती है नज़र नाम है पैमाने का.. बस!
तेरी बहकी बहकी निगाह ने
मुझे इक शराबी बना दिया...
तेरा प्यार है मेरी जिंदगी (My life is your love)
तेरा प्यार है मेरी बंदगी (I am enclosed in your love)
तेरा प्यार है बस मेरी जिंदगी, तेरा प्यार है बस मेरी जिंदगी
न नमाज़ आती है मुझको, न वजू आता है
सजदा कर लेता हूँ, जब सामने तू आता है
बस मेरी जिंदगी तेरा प्यार है....
मै अज़ल से बन्दा-ऐ-इश्क हूँ, मुझे ज़ोह्द-ओ-कुफ्र का ग़म नहीं (Deep down I am a lover, I am not sad for hearafter hell)
मेरे सर को डर तेरा मिल गया, मुझे अब तलाश-ऐ-हरम नही
मेरी बंदगी है वो बंदगी, जो मुकीद-ऐ-दैर-ओ-हरम (Bounded to any sacred Place) नही
मेरा इक नज़र तुम्हें देखना, बा खुदा नमाज़ से कम नही (For me to look at you is no less than Namaz)
बस मेरी जिंदगी तेरा प्यार है...
बस मेरी जिंदगी तेरा प्यार है...
तेरा नाम लूँ जुबां से, तेरे आगे सर झुका दूँ
मेरा इश्क कह रहा है, मैं तुझे खुदा बना दूँ
तेरा नाम मेरे लब पर, मेरा तज़करा है दर दर
मुझे भूल जाए दुनिया , मैं अगर तुझे भुला दूँ
मेरे दिल में बस रहे हैं, तेरे बेपनाह जलवे
न हो जिस में नूर तेरा, वो चराग ही बुझा दूँ
जो पूछा के किस तरह होती है बारिश, जबीं (Forehead) से पसीने की बूँदें गिरा दी
जो पूछा के किस तरह गिरती है बिजली, निगाहें मिलाएं मिला कर झुका दें
जो पूछा शब्-ओ-रोज़ मिलते हैं कैसे, तो चेहरे पे अपने वो जुल्फें हटा दीं
जो पूछा क नगमों में जादू है कैसा, तो मीठे तकल्लुम में बातें सुना दीं
जो अपनी तमनाओं का हाल पुछा , तो जलती हुई चंद शामें बुझा दीं
मैं कहता रह गया खता-ऐ-मोहब्बत की अच्छी सज़ा दी
मेरे दिल की दुनिया बना कर मिटा दी, अच!
मेरे बाद किसको सताओगे ,
मुझे किस तरह से मिटाओगे
कहाँ जा के तीर चलाओगे
मेरी दोस्ती की बलाएँ लो
मुझे हाथ उठा कर दुआएं दो, तुम्हें एक कातिल बना दिया
मुझे देखो खुवाहिश-ऐ-जान-ऐ-जां
मैं वोही हूँ अनवर-ऐ-निम् जान
तुम्हें इतना होश था जब कहाँ
न चलाओ इस तरह तुम ज़बान
करो मेरा शुक्रिया मेहेरबान
तुम्हें बात करना सिखा दिया...
यह जो हल्का हल्का सरूर है, यह तेरी नज़र का कसूर है
के शराब पीना सिखा दिया ।

---Abdul Hameed Adam

17 दिसंबर 2014

'अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल'

क़ौम की बेहतरी का छोड़ ख़याल,
फिक्र-ए-तामीर-ए-मुल्क दिल से निकाल,
तेरा परचम है तेरा दस्त-ए-सवाल,
बेज़मीरी का और क्या हो मआल
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल

तंग कर दे ग़रीब पे ये ज़मीन,
ख़म ही रख आस्तान-ए-ज़र पे जबीं,
ऐब का दौर है हुनर का नहीं,
आज हुस्न-ए-कमाल को है जवाल
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल

क्यों यहाँ सुब्ह-ए-नौ की बात चले,
क्यों सितम की सियाह रात ढले,
सब बराबर हैं आसमान के तले,
सबको रज़ाअत पसंद कह के टाल
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल

नाम से पेशतर लगाके अमीर,
हर मुसलमान को बना के फ़क़ीर,
क़स्र-ओ-दीवान हो क़याम पज़ीर,
और ख़ुत्बों में दे उमर की मिसाल
अब क़लम से इज़ारबंद ही डाल

आदमीयत की हमनवाई में,
तेरा हमसर नहीं ख़ुदाई में,
बादशाहों की रहनुमाई में,
रोज़ इस्लाम का जुलूस निकाल
अब कलम से इज़ारबंद ही डाल

लाख होंठों पे दम हमारा हो,
और दिल सुबह का सितारा हो,
सामने मौत का नज़ारा हो,
लिख यही ठीक है मरीज़ का हाल
अब कलम से इज़ारबंद ही डाल|

---हबीब जालिब

10 सितंबर 2014

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू[1] ही सही
नहीं विसाल मयस्सर[2] तो आरज़ू ही सही

न तन में ख़ून फ़राहम[3] न अश्क आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब[4] है बे-वज़ू ही सही

यही बहुत है केः सालिम है दिल का पैराहन
ये चाक-चाक गरेबान बेरफ़ू ही सही

किसी तरह तो जमे बज़्म मैकदे वालो
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही

गर इन्तज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा[5] से गुफ़्तगू ही सही

दयार-ए-ग़ैर[6] में महरम[7] अगर नहीं कोई
तो 'फ़ैज़' ज़िक्र-ए-वतन अपने रू-ब-रू[8] ही सही

---फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

1- तलाश
2- उपलब्ध
3- मौजूद
4- आवश्यक
5- कल के वादे
6- पराई धरती
7- अपना
8- समक्ष

20 जून 2014

My favourite poetry

1- वो दौर भी देखा है, तारीख की आंखों ने, लमहे ने खता की थी सदियों ने सजा पाई।

2- लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो, शरीफ़ लोग उठे दूर जाके बैठ गये | - दुश्यंत कुमार

3- गुलाब ख़्वाब दवा ज़हर जाम क्या क्या है, मैं आ गया हूँ बता इंतिज़ाम क्या क्या है | - राहत इंदौरी

4- जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते, सज़ा ना देकर अदालत बिगाड़ देती है | - राहत इंदौरी

5- मुसलसल हादिसों से बस मुझे इतनी शिकायत है, कि ये आंसू बहाने की भी तो मोहलत नहीं देते | - वसीम बरेलवी

6- ये बात तो इस बाग़ के हक़ में नहीं जाती, कुछ फूल भी काँटों की हिमायत में खड़े हैं | - वसीम बरेलवी

7- ये अपनी मस्ती है जिसने मचाई है हलचल, नशा शराब में होता तो नाचती बोतल | - आरिफ़ जलाली

8- इसी सबब से हैं शायद अज़ाब जितने हैं, झटक के फेंक दो पल्कों पे ख़्वाब जितने हैं | -जां निसार अख़्तर

9- ज़माने में कभी भी क़िस्मतें बदला नहीं करतीं, उमीदों से भरोसों से दिलासों से सहारों से | - कैफ़ भोपाली

10- मुद्दतें गुज़रीं तिरी याद भी आई न हमें, और तुझे भूल गये हों कभी ऐसा भी नहीं | - फ़िराक़ गोरखपुरी

11- फ़ुरसतें चाट रही हैं मेरी हस्ती का लहू, मुंतज़िर हूं के मुझे कोई बुलाने आये | - राहत इन्दौरी

12- इश्क़ का ज़ौक़ ए नज़ारा मुफ़्त में बदनाम है, हुस्न ख़ुद बेताब है जलवे दिखाने के लिए | - मजाज़ लखनवी

13- दुनिया में आदमी को मुसीबत कहां नहीं, वो कौन सी ज़मीं है, जहां आसमां नहीं | - दाग़

14- मिरी मुफ़लिसी से बचकर कहीं और जानेवाले, ये सुकूं न मिल सकेगा तुझे रेशमी कफ़न में | - क़तील शिफ़ाई

15- अजीब लोग थे, क़ब्रों पे जान देते थे, सड़क की लाश का कोई भी दावेदार न था | - वसीम बरेलवी

16- उसे क्या मिलेगी मंज़िल रहे ज़िन्दगी में 'रज़्मी ', जो क़दम क़दम पे पूछे अभी कितना फ़ासला है | - मुज़फ़्फ़र रज़्मी

17- गये दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो, अजीब मानूस अजनबी था, मुझे तो हैरान कर गया वो | -नासिर काज़मी

18- दिल उजड़ी हुई एक सराय की तरह है, अब लोग यहां रात बिताने नहीं आते | - बशीर बद्र

19- ये सोच कर के दरख़्तों में छांव होती है, यहां बबूल के साये में आके बैठ गये | - दुश्यंत कुमार

20- नाउमीदी बढ गई है इस क़दर, आरज़ू की आरज़ू होने लगी | - दाग़

21- ज़रूरत ही नहीं अहसास को अलफ़ाज़ की कोई, समंदर की तरह अहसास में शिद्दत ही काफ़ी है।

22- मैं भी सुकरात हूँ सच बोल दिया है मैंने, ज़हर सारा मेरे होंटों के हवाले कर दे। - मुनव्वर राना

23- हज़ार खौफ़ हों पर ज़ुबां हो सच की रफ़ीक, यही रहा है अजल से कलंदरों का तरीक | - मोहानी

24- जम्हूरियत वो तर्ज़े-हुकूमत है, कि जिस में, बन्दों को गिना जाता हैं, तोला नहीं जाता |

25- मैं ख़ुदा का नाम लेकर, पी रहा हूँ दोस्तों, ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जायेगा। ~बशीर बद्र

26- नए दीवानों को देखें तो ख़ुशी होती है, हम भी ऐसे ही थे जब आये थे वीराने में | - अहमद मुश्ताक़

27- अब तो चलते हैं, बुतकदे से मीर, फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया | - मीर तक़ी 'मीर'

28- कैसा तौहीने लफ़्ज़ हस्ती है, जीने वालों ये कैसी बस्ती है, मौत को लोग यहां देते हैं कांधा, ज़िन्दगी रहम को तरसती है | - वसीम बरेलवी

29- गुलों ने ख़ारों के छेडने पर, सिवा ख़ामोशी के दम न मारा, शरीफ़ उलझें अगर किसी से तो फिर शराफ़त कहाँ रहेगी | - शाद अज़ीमाबादी

30- हम तरसते ही, तरसते ही, तरसते ही रहे, वो फ़लाने से, फ़लाने से, फ़लाने से मिले | - कैफ़ भोपाली

31- पहले रग रग से मेरी ख़ून निचोडा उसने, अब ये कहता है कि रंगत ही मेरी पीली है | - मुज़फ़्फ़र वारसी

32- नतीजा एक ही निकला कि थी क़िस्मत में नाकामी, कभी कुछ कह के पछताये, कभी चुप रह के पछताये। - 'आरज़ू’ लखनवी

33- कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, ये नये मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो | - बशीर ‘बद्र’

34- कुर्सी है कोई आपका जनाज़ा तो नहीं है, कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते |

35- 'शुजा' मौत से पहले ज़रूर जी लेना, ये काम भूल न जाना, बडा ज़रूरी है | - शुजा ख़ाविर

36- सच घटे या बडे तो सच न रहे, झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं, जड दो चांदी में चाहे सोने में, आईना झूठ बोलता ही नहीं | - कृष्ण बिहारी नूर

37- तुम अभी शहर में क्या नए आये हो, रुक गए राह में हादिसा देख कर | - बशीर बद्र

38- हम ख़ुदा के कभी क़ाइल ही न थे, उनको देखा तो ख़ुदा याद आया | - मीर तक़ी 'मीर'

39- एक पल के रुकने से दूर हो गई मंज़िल, सिर्फ़ हम नहीं चलते रास्ते भी चलते हैं | - शाहिद सिद्दीक़ी

40- मुहब्बत में बिछडने का हुनर सबको नहीं आता, किसी को छोडना हो तो मुलाक़ातें बडी करना | - वसीम बरेलवी

41- नहीं चलने लगी यूं मेरे पीछे, ये दुनिया मैंने ठुकराई बहुत है | - वसीम बरेलवी

42- पाल ले कोई रोग नादां ज़िन्दगी के वास्ते, सिर्फ़ सेहत के सहारे ज़िन्दगी कटती नहीं | -फ़िराक़ गोरखपुरी

43- जिगर मैंने छुपाया लाख अपना दर्दे-गम लेकिन, बयाँ कर दी मेरी सूरत ने सारी कैफियत दिल की ।

44- ये कहां की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह, कोई चारसाज़ होता, कोई ग़म्गुसार होता ।

45- शाम भी थी धुआं धुआं, हुस्न भी था उदास उदास, दिल को कई कहानियां याद सी आ के रह गई | -फ़िराक़ गोरखपुरी

46- रात भारी सही कटेगी ज़रूर, दिन कडा था मगर गुज़र के रहा | - अहमद नदीम क़ासिमी

47- लो देख लो, ये इश्क़ है ये वस्ल है, ये हिज्र, अब लौट चलें आओ, बहुत काम पडा है | -जावेद अख़्तर

48- अपने ही ग़म से नहीं मिलती नजात, इस बिना पे फ़िक्रे आलम क्या करें | - दाग़ देहलवी

49- माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके, कुछ ख़ार कम तो कर गए, गुज़रे जिधर से हम | - साहिर लुधिआनवी

50 - ठोकरे खा कर भी ना संभले तो, मुसाफिर का नसीब, वरना पत्थरों ने तो, अपना फ़र्ज़ निभा दिया। |

Source - My favourite poetry

7 फ़रवरी 2014

हिज्र की पहली शाम

हिज्र की पहली शाम के साये दूर उफ़क़ तक छाये थे
हम जब उसके शहर से निकले सब रास्ते सँवलाये थे

जाने वो क्या सोच रहा था अपने दिल में सारी रात
प्यार की बातें करते करते उस के नैन भर आये थे

मेरे अन्दर चली थी आँधी ठीक उसी दिन पतझड़ की
जिस दिन अपने जूड़े में उसने कुछ फूल सजाये थे

उसने कितने प्यार से अपना कुफ़्र दिया नज़राने में
हम अपने ईमान का सौदा जिससे करने आये थे

कैसे जाती मेरे बदन से बीते लम्हों की ख़ुश्बू
ख़्वाबों की उस बस्ती में कुछ फूल मेरे हम-साये थे

कैसा प्यारा मंज़र था जब देख के अपने साथी को
पेड़ पे बैठी इक चिड़िया ने अपने पर फैलाये थे

रुख़्सत के दिन भीगी आँखों उसका वो कहना हाए "क़तील"
तुम को लौट ही जाना था तो इस नगरी क्यूँ आये थे |

--- क़तील शिफ़ाई

7 जून 2013

कहा था किसने के अहदे-वफ़ा करो उससे

कहा था किसने के अहदे-वफ़ा करो उससे
जो यूं किया है तो फिर क्यूँ गिला करो उससे

ये अह्ले-बाज़ तुनक हौसला सही फिर भी
ज़रा फ़साना-ए-दिल इब्तिदा करो उससे

ये क्या के तुम ही गमे -हिज्र के फ़साने कहो
कभी तो बहाने सुना करो उस से

नसीब फिर कोई तकरीब-ए-कुर्ब हो के न हो
जो दिल में हो यही बातें किया करो उससे

फ़राज़ तर्के -ताल्लुक तो खैर क्या होगा
यही बहुत है के कम-कम मिला करो उससे|

---: अहमद फराज़

27 नवंबर 2012

तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले

तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्‍हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई।

प्रेत धर्म का नाच रहा है
कायम हिंदू राज करोगे ?
सारे उल्‍टे काज करोगे !
अपना चमन ताराज़ करोगे !

तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी
होगा कठिन वहाँ भी जीना
दाँतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी
माथे पर सिंदूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!

क्‍या हमने दुर्दशा बनाई
कुछ भी तुमको नजर न आयी?
कल दुख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आयी
तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई।
मश्‍क करो तुम, आ जाएगा
उल्‍टे पाँव चलते जाना
ध्‍यान न मन में दूजा आए
बस पीछे ही नजर जमाना
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना।

आगे गड्ढा है यह मत देखो
लाओ वापस, गया ज़माना
एक जाप सा करते जाओ
बारम्बार यही दोहराओ
कैसा वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था-भारत
फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहाँ पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहाँ से
चिट्ठी-विठ्ठी डालते रहना।

--- फ़हमीदा रियाज़

29 दिसंबर 2011

क्यों करें हम

नया एक रिश्ता पैदा क्यों करें हम
बिछड़ना है तो झगडा क्यों करें हम

ख़ामोशी से अदा हो रस्मे-दूरी
कोई हंगामा बरपा क्यों करें हम

ये काफी है कि हम दुश्मन नहीं हैं
वफादारी का दावा क्यों करें हम

वफ़ा इखलास* कुर्बानी मोहब्बत
अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यों करें हम

सुना दें इस्मते-मरियम का किस्सा
पर अब इस बाब को वा क्यों करें हम

ज़ुलेखा-ए-अजीजाँ बात ये है
भला घाटे का सौदा क्यों करें हम

हमारी ही तमन्ना क्यों करो तुम
तुम्हारी ही तमन्ना क्यों करें हम

किया था अहद जब लम्हों में हमने
तो सारी उम्र इफा क्यों करें हम

उठा कर क्यों न फेंकें सारी चीज़ें
फकत कमरों में टहला क्यों करें हम

नहीं दुनिया को जब परवाह हमारी
तो दुनिया की परवाह क्यों करें हम

बरहना हैं सरे बाज़ार तो क्या
भला अंधों से परा क्यों करें हम

हैं बाशिंदे इसी बस्ती के हम भी
सो खुद पर भी भरोसा क्यों करें हम

पड़ी रहने दो इंसानों की लाशें
ज़मीं का बोझ हल्का क्यों करें हम

ये बस्ती है मुसलामानों की बस्ती
यहाँ कारे-मसीहा क्यों करें हम

-: जौन एलिया

28 सितंबर 2011

जुस्तजू खोये हुओं की

जुस्तजू खोये हुओं की उम्र भर करते रहे
चाँद के हमराह हम हर शब सफ़र करते रहे

रास्तों का इल्म था हम को न सिम्तों की ख़बर
शहर-ए-नामालूम की चाहत मगर करते रहे

हम ने ख़ुद से भी छुपाया और सारे शहर से
तेरे जाने की ख़बर दर-ओ-दिवार करते रहे

वो न आयेगा हमें मालूम था उस शाम भी
इंतज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे

आज आया है हमें भी उन उड़ानों का ख़याल
जिन को तेरे ज़ौम में बे-बाल-ओ-पर करते रहे|

- परवीन शाकिर

20 सितंबर 2011

दोस्त बनकर भी नहीं साथ निभाने वाला

दोस्त बनकर भी नहीं साथ निभाने वाला
वो ही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला।

क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उससे
वो जो इक शख़्स है मुँह फेर के जाने वाला।

क्या ख़बर थी जो मेरी जाँ में घुला रहता है
है वही मुझको सर-ए-दार भी लाने वाला।

मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते
है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला।

तुम तक़ल्लुफ़ को भी इख़लास समझते हो ‘फ़राज़’
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला।


मरासिम = Relations, Agreements
सर-ए-दार = At the Tomb
ताबीर = Interpretation
तक़ल्लुफ़ = Formality
इख़लास = Sincerity, Love, Selfless Worship

---अहमद फ़राज़

24 अगस्त 2011

Chand Sher - 1

1)
न मौजें, न तूफां, न माझी, न साहिल
मगर मन की नैया बही जा रही है
चला जा रहा है वफ़ा का मुसाफ़िर
जिधर भी तमन्ना लिये जा रही है |

-दिल शाहजहांपुरी

2)
रख कदम फूंक-फूंक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
मीर आमदन भी कोई मरता है
जान है तो जहान है प्यारे

(आमदन = ज़िद करके, जान-बूझ कर)

- मीर तक़ी मीर

3)
लाए उस बुत को इल्तिज़ा करके, कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा करके|

- पंडित दयाशंकर नसीम

4)
हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयां होंगे
बहारें हमको ढूँढेंगी ना जाने हम कहाँ होंगे
ना हम होंगे ना तुम होगे और ना ये दिल होगा फिर भी
हज़ारों मंज़िले होंगी हज़ारों कारँवा होंगे|

- मजरूह सुल्तानपुरी

5)
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे
मर के भी अगर चैन ना पाया तो किधर जाएंगे
हम नहीं वो जो करें ख़ून का दावा तुझ पर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जाएंगे
“ज़ौक” जो मदरसे के बिगडे हुए हैं मुल्लाह
उनको मयख़ाने में ले आओ संवर जाएंगे|

- इब्राहिम “ज़ौक़”

6)
इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ
तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ
बंदगी हमने छोड़ दी है फ़राज़
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ|

- अहमद फ़राज़

21 मई 2011

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे

हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे

लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ
कत्ल होने का हौसला है मुझे

दिल धडकता नहीं सुलगता है
वो जो ख्वाहिश थी, आबला है मुझे

कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे.

--- Ahmed Faraz

2 मई 2011

मेरा कलम नहीं तजवीज़...

मेरा कलम नहीं तजवीज़1 उस मुबल्लिस की
जो बन्दिगी का भी हरदम हिसाब रखता है
मेरा कलम नहीं मीज़ान2 ऍसे आदिल3 की
जो अपने चेहरे पर दोहरा नकाब रखता है
मेरा कलम तो अमानत है मेरे लोगों की
मेरा कलम तो अदालत मेरे ज़मीर की है
इसीलिए तो जो लिखा शफा-ए-जां से लिखा
ज़बीं4 तो लोच कमान का जुबां तीर की है
मैं कट गिरूँ कि सलामत रहूँ यक़ीन है मुझे
कि ये हिसार5-ए-सितम कोई तो गिराएगा

1. सम्मति, राय, 2.तराजू, 3.न्याय करने वाला, 4. मस्तक, 5. गढ़, किला

--अहमद फ़राज़  

वो गया था

वो गया था साथ ही ले गया, सभी रंग उतार के शहर का
कोई शख्स था मेरे शहर में किसी दूर पार के शहर का

चलो कोई दिल तो उदास था, चलो कोई आँख तो नम रही
चलो कोई दर तो खुला रहा शबे इंतजार के शहर का

किसी और देश की ओर को सुना है फराज़ चला गया
सभी दुख समेट के शहर के सभी कर्ज उतार के शहर का ...

--अहमद फ़राज़  

11 अप्रैल 2011

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल कि लब आजाद हैं तेरे
बोल, जबां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां* जिस्म हे तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है.

देख कि आहनगर** की दुकां में
तुन्द** हैं शोले, सुर्ख है आहन^
खुलने लगे कुफलों के दहाने^^
फैला हर जंजीर का दामन.

बोल, ये थोड़ा वक्त बहुत है
जिस्मों जबां की मौत से पहले
बोल कि सच जिंदा है अब तक
बोल कि जो कहना है कह ले.

* तना हुआ,**लोहार, *** तेज, ^लोहा, ^^तालों के मुंह

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2 अप्रैल 2011

शीशों का मसीहा कोई नहीं (Sheeshon Ka Maseeha Koi Nahin)

मोती हो कि शीशा, जाम कि दुर1
जो टूट गया सो टूट गया
कब अश्कों से जुड़ सकता है
जो टूट गया, सो छूट गया

तुम नाहक टुकड़े चुन चुन कर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो

शायद कि इन्हीं टुकड़ों में कहीं
वो साग़रे-दिल2 है जिसमें कभी
सद नाज़3 से उतरा करती थी
सहबाए-गमें-जानां की परी

फिर दुनिया वालों ने तुम से
ये सागर लेकर फोड़ दिया
जो मय थी बहा दी मिट्टी में
मेहमान का शहपर4 तोड़ दिया

ये रंगी रेजे5 हैं शाहिद6
उन शोख बिल्लूरी7 सपनों के
तुम मस्त जवानी में जिन से
खल्वत8 को सजाया करते थे

नादारी 9, दफ्तर, भूख और गम
इन सपनों से टकराते रहे
बेरहम था चौमुख पथराओ
ये कांच के ढ़ांचे क्या करते

या शायद इन जर्रों में कहीं
मोती है तुम्हारी इज्जत का
वो जिस से तुम्हारे इज्ज़10 पे भी
शमशादक़दों11 ने नाज़ किया

उस माल की धुन में फिरते थे
ताजिर भी बहुत रहजन भी बहुत
है चोर‍नगर, यां मुफलिस की
गर जान बची तो आन गई

ये सागर शीशे, लालो- गुहर
सालम हो तो कीमत पाते हैं
यूँ टुकड़े टुकड़े हों तो फकत12
चुभते हैं, लहू रुलवाते हैं

तुम नाहक टुकड़े चुन चुन कर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो

यादों के गरेबानों के रफ़ू
पर दिल की गुज़र कब होती है
इक बखिया उधेड़ा, एक सिया
यूँ उम्र बसर कब होती है

इस कारगहे-हस्ती13 में जहाँ
ये सागर शीशे ढ़लते हैं
हर शै का बदल मिल सकता है
सब दामन पुर हो सकते हैं

जो हाथ बढ़े यावर14 है यहाँ
जो आंख उठे वो बख़्तावर15
यां धन दौलत का अंत नहीं
हों घात में डाकू लाख यहाँ

कब लूट झपट में हस्ती16 की
दुकानें खाली होती हैं
यां परबत परबत हीरे हैं
या सागर सागर मोती है

कुछ लोग हैं जो इस दौलत पर
पर्दे लटकाया फिरते हैं
हर परबत को हर सागर को
नीलाम चढ़ाते फिरते हैं

कुछ वो भी हैं जो लड़ भिड़ कर
ये पर्दे नोच गिराते हैं
हस्ती के उठाईगीरों की
हर चाल उलझाए जाते हैं

इन दोनों में रन१७ पड़ता है
नित बस्ती बस्ती नगर नगर
हर बसते घर के सीने में
हर चलती राह के माथे पर

ये कालक भरते फिरते हैं
वो जोत जगाते रहते हैं
ये आग लगाते फिरते हैं
वो आग बुझाते रहते हैं

सब सागर शीशे, लालो-‍गुहर
इस बाज़ी में बिद जाते हैं
उठो, सब ख़ाली हाथों को
इस रन से बुलावे आते हैं.

1. एक तरह का माणिक
2. हृदय रूपी मदिरा पात्र, 3.गर्व से
4. सबसे मज़बूत पंख
5. टुकड़े, 6. साक्षी, 7. काँच, 8. एकाकीपन
9. दरिद्रता
10. विनम्रता 11. सरों के पेड़ ऍसे कद वालों ने
12. सिर्फ
13. संसार
14. सहायक, 15. भाग्यवान
16. जीवन
१७. संघर्ष

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13 मार्च 2011

हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाये

हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाये
काफ़िरों की नमाज़ हो जाये

मिन्नत-ए-चारासाज़ कौन करे
दर्द जब जाँ नवाज़ हो जाये

इश्क़ दिल में रहे तो रुसवा हो
लब पे आये तो राज़ हो जाये

लुत्फ़ का इन्तज़ार करता हूँ
जोर ता हद्द-ए-नाज़ हो जाये

उम्र बेसूद कट रही है 'फ़ैज़'
काश अफ़्शा-ए-राज़ हो जाये.

---फ़ैज़ अहमद फ़ैज़