30 जनवरी 2020

वही ताज है वही तख़्त है

वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निज़ाम है

बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आँच न तुझपे आयेगी
ये ज़ुबाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है

मैं ये मानता हूँ मेरे दिये तेरी आँधियोँ ने बुझा दिये
मगर इक जुगनू हवाओं में अभी रौशनी का इमाम है

--- बशीर बद्र

29 जनवरी 2020

उनका डर

वे डरते हैं
किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे

--- गोरख पांडेय

26 जनवरी 2020

मेरा प्रतिनिधि

उसके दिल की धड़कन
उस दिल की धड़कन है
भीड़ के शिकार के
सीने में जो है।

हाहाकार
उठता है घोष कर
एक जन
उठता है रोषकर
व्याकुल आत्मा से आक्रोश कर
अकस्मात
अर्थ
भर जाता है पुरुष वह
हम सबके निर्विवाद जीने में।
सिंहासन ऊँचा है सभाध्यक्ष छोटा है
अगणित पिताओं के
एक परिवार के
मुँह बाये बैठे हैं लड़के सरकार के
लूले काने बहरे विविध प्रकार के
हल्की-सी दुर्गन्ध से भर गया है सभाकक्ष।
सुनो वहाँ कहता है
मेरा प्रतिनिधि
मेरी हत्या की करुण कथा।

हँसती है सभा
तोंद मटका
ठठाकर
अकेले अपराजित सदस्य की व्यथा पर
फिर मेरी मृत्यु से डरकर चिंचियाकर
कहती है
अशिव है अशोभन है मिथ्या है।

मैं
कि जो अन्यत्र
भीड़ में मारा गया था
लिये हुए मशअलें रात में
लोग
मुझे लाये थे साथ में
काग़ज़
था एक मेरे हाथ में
मेरी स्वाधीन जन्मभूमि पर जन्म लिये होने का मेरा प्रमाणपत्र।

मारो मारो मारो शोर था मारो
एक ओर साहब था
सेठ था सिपाही था
एक ओर मैं था
मेरा पुत्र और भाई था
मेरे पास आकर खड़ा हुआ एक राही था
एक ओर आकाश में हो चला था भोर।
मैं अपने घर में फिर
वापस आऊँगा
मैंने कहा


बीस वर्ष
खो गये भरमे उपदेश में
एक पूरी पीढ़ी जनमी पली पुसी क्लेश में
बेगानी हो गयी अपने ही देश में
वह
अपने बचपन की
आज़ादी
छीनकर लाऊँगा।

तभी मुझे क़त्ल किया लो मेरे प्रतिनिधि मेरा प्रमाण
घुटता था गला व्यर्थ सत्य कहते-कहते
वाणी से विरोध कर तन से सहते-सहते
सील-भरी बन्द कोठरी में रहते-रहते
तोड़ दिया द्वार आजऋ देखो-देखो मेरी मातृभूमि का उजाड़!

---रघुवीर सहाय

25 जनवरी 2020

Khabeesh

Mein hoon khabees, mein ghaliz hoon,

Mein aawaargi ki wakeel hoon
Woh taraanon ki mujassim noor main nahin

Woh faassaanon ki paak hoor main nahin
Main gulaam-e-nafas hoon
Main hubaab-e-hawas hoon
Main zinda hoon, figaar hoon
Main khud-sari ka minaar hoon
Main aana ki intehaan bhi ho sakti hoon
Shayaad tum mujhe kabhi na chhoto sako
Chaahe tum mujhe murda-e-khaas-o-khaashaak hi samjho
Main kyu jhoote armaano ki qataar banu?
Main khud-garz utni hi hoon, jitne tum
Main kyun paikaar-e-begharaz banu

Meri jubaan utni hi shirin hain, jitni tumhari
Main kyu sanam-i-khushi-akhlaq banu?
Main maamooli hoon

Mujh pe kyu zimmah ho mumtaazi ka?
Tumko ghuroor hai khaash hone par
Par mujhko zyaadah hai ilm sarfaraazi ka

Agar tumhein shauq-e-tabassum hai
Toh sange-marmar ka sanam le aso
Meri jabeen ki silvatein tumhari khushi se to nahin mitengi

Mere aazaa-e-rukh ki harkat , tumhare taabay nahin hai
Tumhari khaatir bhi nahi hain

Main zeenat ka samaan nahin hun
Main haaya ka farmaan nahi hun
Main nazaakat nahi jaanti
Main ibadaat nahi maanti

Main tumhaari tawajjoh ki talabgaar nahi hoon
Tumhaare baghair muflis-o-khwaar nahi hoon
Main tumhari qaisari ka makhoom nahi rahi
Tumhari himayaton ki muhsin nahi rahi
Tumhaare mehlon ko hard rahoon barson
Kaho ye kaisa ahd-e-wafa tha?

Jab main woh tilism-e-purfan hoon,
Jisne tumko jahangir kya tha
Main mahroom-e-sahil nahin hoon
Mera tajassus mujhe mairaj par le chalega
Safha-e-tareekh mujhe bhool bhi jaayein
Par ahl-e-wafa meri faatiha denge

Jism-o-zahan kaafan-posh aaj kai zamaano se hain
Par is ayyaam-e-zulmat mein darakhshaan hai majlis meri

Ye charcha aasmaano mein hai
Salaasil kab tak rok sakenge
Meri quwwatein aayan ho chuki hain
Madaaris kab tak tok sakenge
Meri jumbishein rawaan ho chilo hain
Nizaam-e-pidari se bhagawaat hai tehreek meri
Kamzor-o-kamzarf nahi ye tajweej meri
Main tumhaare wazaarat-khaano ka rukh bhi kar chuki hoon
Ab yeh khayaal chhod do ki aaraaish hai takhleeq meri

--- by Iqra Khilji

23 जनवरी 2020

बहुत घुटन है

बहुत घुटन है कोई सूरत-ए-बयाँ निकले
अगर सदा न उठे कम से कम फ़ुग़ाँ निकले

फ़क़ीर-ए-शहर के तन पर लिबास बाक़ी है
अमीर-ए-शहर के अरमाँ अभी कहाँ निकले

हक़ीक़तें हैं सलामत तो ख़्वाब बहुतेरे
उदास क्यूँ हो जो कुछ ख़्वाब राएगाँ निकले

वो फ़लसफ़े जो हर इक आस्ताँ के दुश्मन थे
अमल में आए तो ख़ुद वक़्फ़-ए-आस्ताँ निकले

इधर भी ख़ाक उड़ी है उधर भी ज़ख़्म पड़े
जिधर से हो के बहारों के कारवाँ निकले

सितम के दौर में हम अहल-ए-दिल ही काम आए
ज़बाँ पे नाज़ था जिन को वो बे-ज़बाँ निकले

--- साहिर लुधियानवी

17 जनवरी 2020

ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब

ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब
मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब

सब की ख़तिर है यहाँ सब अजनबी
और कहने को हैं घर आबाद सब

भूल के सब रंजिशें सब एक हैं
मैं बताऊँ सब को होगा याद सब

सब को दावा-ए-वफ़ा सब को यक़ीं
इस अदकारी में हैं उस्ताद सब

शहर के हाकिम का ये फ़रमान है
क़ैद में कहलायेंगे आज़ाद सब

चार लफ़्ज़ों में कहो जो भी कहो
उसको कब फ़ुरसत सुने फ़रियाद सब

तल्ख़ियाँ कैसे न हो अशार में
हम पे जो गुज़री है हम को याद सब

---जावेद अख़्तर

The Unknown Citizen

He was found by the Bureau of Statistics to be
One against whom there was no official complaint,
And all the reports on his conduct agree
That, in the modern sense of an old-fashioned word, he was a saint,
For in everything he served the Greater Community.
Except of the War till the day he retired
He worked in a factory and never got fired
But satisfied his employers, Fudge Motors Inc.
Yet he wasn't a scab or odd in his views,
For his Union reports that he paid his dues,
(Our report on the Union shows it was sound)
And our Social Psychology workers found
That he was popular with his mates and liked a drink.
The Press are convinced that he bought a paper every day
And that his reactions to advertisements were normal in every way.
Policies taken out in his name prove that he was fully insured,
And his Health-card shows he was once in hospital but left it cured.
Both Producers Research and High-Grade Living declare
He was fully sensible to the advantages of the Installment Plan
And had everything necessary to the Modern Man,
A phonograph, a radio, a car and a frigidaire.
Our researchers into Public Opinion are content
That he held the proper opinions for the time of the year;
When there was peace, he was for peace; when there was war, he went.
He was married and added five children to the population,
Which our Eugenist says was the right number for a parent of his generation.
And our teachers report that he never interfered with their education.
Was he free? Was he happy? The question is absurd:
Had anything been wrong, we should certainly have heard.

---W.H. Auden (1907-1973)