उम्र में उस से बड़ी थी लेकिन पहले टूट के बिखरी मैं
साहिल साहिल जज़्बे थे और दरिया दरिया पहुँची मैं
शहर में उस के नाम के जितने शख़्स थे सब ही अच्छे थे
सुब्ह-ए-सफ़र तो धुँद बहुत थी धूपें बन कर निकली में
उस की हथेली के दामन में सारे मौसम सिमटे थे
उस के हाथ में जागी मैं और उस के हाथ से उजली मैं
इक मुट्ठी तारीकी में था इक मुट्ठी से बढ़ कर प्यार
लम्स के जुगनू पल्लू बाँधे ज़ीना ज़ीना उतरी मैं
उस के आँगन में खुलता था शहर-ए-मुराद का दरवाज़ा
कुएँ के पास से ख़ाली गागर हाथ में ले कर पलटी मैं
मैं ने जो सोचा था यूँ तो उस ने भी वही सोचा था
दिन निकला तो वो भी नहीं था और मौजूद नहीं थी मैं
लम्हा लम्हा जाँ पिघलेगी क़तरा क़तरा शब होगी
अपने हाथ लरज़ते देखे अपने-आप ही संभली मैं
-किश्वर नाहिद
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