इस ज़माने के कई मीर मतब कर रहे हैं
कोई हमदर्द भरे शहर में बाक़ी हो तो हो
इस कड़े वक़्त में गुमराह तो सब कर रहे हैं
कहीं ख़तरे में न पड़ जाए बुज़ुर्गी अपनी
लोग इस ख़ौफ़ से छोटों का अदब कर रहे हैं
सब लिफ़ाफ़े की हुसूली के लिए हो रहा है
हम जो ये शग़्ल जो ये कार-ए-अदब कर रहे हैं
हर कोई जान हथेली पे लिए फिर रहा है
इन दिनों वो लब-ओ-रुख़्सार ग़ज़ब कर रहे हैं
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें