29 जुलाई 2013

जब भी अपने आपसे ग़द्दार हो जाते हैं लोग

जब भी अपने आपसे ग़द्दार हो जाते हैं लोग
ज़िन्दगी के नाम पर धिक्कार हो जाते हैं लोग

सत्य और ईमान के हिस्से में हैं गुमनामियाँ
साज़िशें बुन कर मगर अवतार हो जाते हैं लोग

बेच देते हैं सरे—बाज़ार वो जिस्मो—ज़मीर
भूख से जब भी कभी लाचार हो जाते हैं लोग

रात भर मशगूल रहते हैं अँधेरों में कहीं
और अगली सुबह का अखबार हो जाते हैं लोग

फिर कबीलों का न जाने हश्र क्या होगा, जहाँ
नोंक पर बंदूक की सरदार हो जाते हैं लोग

मतलबों की भीड़ जब—जब कुलबुलाती है यहाँ
हमने देखा है बड़े मक़्क़ार हो जाते हैं लोग

साहिलों पर बैठ तन्हा ‘द्विज’! भला क्या इन्तज़ार
आज हैं इस पार कल उस पार हो जाते हैं लोग

--- द्विजेन्द्र 'द्विज'

24 जुलाई 2013

The Tyger

Tyger Tyger, burning bright,
In the forests of the night;
What immortal hand or eye,
Could frame thy fearful symmetry?

In what distant deeps or skies.
Burnt the fire of thine eyes?
On what wings dare he aspire?
What the hand, dare seize the fire?

And what shoulder, & what art,
Could twist the sinews of thy heart?
And when thy heart began to beat,
What dread hand? & what dread feet?

What the hammer? what the chain,
In what furnace was thy brain?
What the anvil? what dread grasp,
Dare its deadly terrors clasp!

When the stars threw down their spears
And water'd heaven with their tears:
Did he smile his work to see?
Did he who made the Lamb make thee?

Tyger Tyger burning bright,
In the forests of the night:
What immortal hand or eye,
Dare frame thy fearful symmetry?

--- William Blake

13 जुलाई 2013

विपथागा

झन झन झन झन झन झननझनन |
झन झन झन झन झन झननझनन |

मेरी पायल झंकार रही तलवारों की झंकारों में,
अपनी आगमानी बजा रही मैं आप क्रुद्ध हुंकारों में,
मैं अहंकार सी कड़क ठठा हंसती विद्युत् की धारों में,
बन काल हुताशन खेल रही मैं पगली फूट पहाड़ों में,
अंगडाई में भूचाल, सांस में लंका के उनचास पवन.
झन झन झन झन झन झननझनन |
झन झन झन झन झन झननझनन |

मेरे मस्तक के आतपत्र खर काल सर्पिनी के शत फ़न,
मुझ चिर कुमारिका के ललाट में नित्य नवीन रुधिर चन्दन
आंजा करती हूँ चिता घूम का दृग में अंध तिमिर अंजन,
संहार लपट का चीर पहन नाचा करती मैं छूम छनन,
झन झन झन झन झन झननझनन |
झन झन झन झन झन झननझनन |

पायल की पहली झमक, श्रृष्टि में कोलाहल छा जाता है,
पड़ते जिस ओर चरण मेरे भूगोल उधर दब जाता है,
लहराती लपट दिशाओं में खल्भल खगोल अकुलाता है,
परकटे खड्ग सा निरवलम्ब गिर स्वर्ग-नर्क जल जाता है,
गिरते दहाड़ कर शैल-श्रृंग मैं जिधर फेरती हूँ चितवन,
झन झन झन झन झन झननझनन |
झन झन झन झन झन झननझनन |

रस्सों से कसे जवान पाप प्रतिकार न कर पाते हैं,
बहनों की लुटती लाज देख कर कांप-कांप रह जाते हैं,
शास्त्रों के भय से जब निरस्त्र आंसू भी नहीं बहाते हैं,
पी अपमानों का गरल घूँट शासित जब होंठ चबाते हैं,
जिस दिन रह जाता क्रोध मौन, वह मेरा भीषण जन्म लगन,
झन झन झन झन झन झननझनन |
झन झन झन झन झन झननझनन |

पौरुष को बेडी दाल पाप का अभय-रास जब होता है,
ले जगदीश्वर का नाम खड्ग कोई दिल्लीश्वर धोता है,
धन के विलास का बोझ दुखी निर्बल दरिद्र जब ढोता है,
दुनिया को भूखों मार भूप जब सुखी महल में सोता है,
सहती सब कुछ मन मार प्रजा, कस-मस करता मेरा यौवन,
झन झन झन झन झन झननझनन |
झन झन झन झन झन झननझनन |

श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
मां की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं,
युवती की लज्जा व्यसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं,
मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी सा द्रव्य बहाते हैं,
पापी महलों का अहंकार देता मुझको तब आमंत्रण,
झन झन झन झन झन झननझनन |
झन झन झन झन झन झननझनन |

डरपोक हुकूमत ज़ुल्मों से लोहा जब नहीं बजाती है,
हिम्मतवाले कुछ कहते हैं तब जीभ तराशी जाती है,
उलटी चालें यह देख देश में हैरत सी छा जाती है,
भट्टी की ओदी आंच छिपी तब और अधिक धुन्धुआती है,
सहसा चिंघार खड़ी होती दुर्गा मैं करने दस्यु दलन,
झन झन झन झन झन झननझनन |
झन झन झन झन झन झननझनन |

चढ़कर जूनून सी चलती हूँ मृत्युंजय वीर कुमारों पर,
आतंक फैल जाता कानूनी पर्ल्यामेंट सरकारों पर,
'नीरो' के जाते प्राण सूख मेरे कठोर हुंकारों पर,
कर अट्टहास इठलाती हूँ जारों के हाहाकारों पर,
झंझा सी पकड़ झकोर हिला देती दम्भी के सिंघासन,
झन झन झन झन झन झननझनन |
झन झन झन झन झन झननझनन |

मैं निस्तेजों का तेज, युगों से मूक मौन की वाणी हूँ,
पद-दलित शाशितों के दिल की मैं जलती हवी कहानी हूँ,
सदियों की जब्ती तोड़ जगी, मैं उस ज्वाला की रानी हूँ,
मैं ज़हर उगलती फिरती हूँ, मैं विष से भरी जवानी हूँ,
भूखी बाघिन की घात क्रूर, आहात भुजंगिनी का दंसन,
झन झन झन झन झन झननझनन |
झन झन झन झन झन झननझनन |

जब हवी हुकूमत आँखों पर, जन्मी चुपके से आहों में,
कोड़ों की खा कर मार पली पीड़ित की दबी कराहों में,
सोने-सी निखर जवान हवी मैं कड़े दमन की दाहों में,
ले जान हथेली पर निकली मैं मर मिटने की चाहों में,
मेरे चरणों में मांग रहे भय-कम्पित तीनों लोक शरण,
झन झन झन झन झन झननझनन |
झन झन झन झन झन झननझनन |

असि की नोकों से मुकुट जीत अपने सर उसे सजाती हूँ,
इश्वर का आसन छीन मैं आप खड़ी हो जाती हूँ,
थर-थर करते क़ानून-न्याय, इंगित पर जिन्हें नचाती हूँ,
भयभीत पातकी धर्मों से अपने पग मैं धुलवाती हूँ,
सर झुका घमंडी सरकारें करतीं मेरा अर्चन-पूजन,
झन झन झन झन झन झननझनन |
झन झन झन झन झन झननझनन |

मुझ विपथागामिनी को न ज्ञात किस रोज किधर से आऊंगी,
मिटटी से किस दिन जाग क्रुद्ध अम्बर में आग लगाऊंगी,
आँखें अपनी कर बंद देश में जब भूकंप मचाऊंगी,
किसका टूटेगा श्रृंग, न जाने किसका महल गिराऊंगी,
निर्बंध, क्रूर निर्मोह सदा मेरा कराल नर्तन गर्जन,
झन झन झन झन झन झननझनन |
झन झन झन झन झन झननझनन |

अबकी अगस्त की बारी है, महलों के पारावार! सजग,
बैठे 'विसूवियस' के मुख पर भोले अबोध संसार! सजग,
रेशों का रक्त कृशानु हुवा, ओ जुल्मी की तलवार! सजग,
दुनिया के 'नीरो' सावधान, दुनिया के पापी जार सजग,
जानें किस दिन फुंकार उठे पद-दलित काल सर्पों के फ़न,
झन झन झन झन झन झननझनन |
झन झन झन झन झन झननझनन |

---रामधारी सिंह दिनकर, सासाराम, १९६८ इ

बच्चों का दूध

जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है

मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है

बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं
बंधी जीभ, आँखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं

पर शिशु का क्या, सीख न पाया अभी जो आँसू पीना
चूस-चूस सूखा स्तन माँ का, सो जाता रो-विलप नगीना

विवश देखती माँ आँचल से नन्ही तड़प उड़ जाती
अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती

कब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है
दूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती है

दूध-दूध औ वत्स मंदिरों में बहरे पाषान यहाँ है
दूध-दूध तारे बोलो इन बच्चों के भगवान कहाँ हैं

दूध-दूध गंगा तू ही अपनी पानी को दूध बना दे
दूध-दूध उफ कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना दे

दूध-दूध दुनिया सोती है लाऊँ दूध कहाँ किस घर से
दूध-दूध हे देव गगन के कुछ बूँदें टपका अम्बर से

हटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं
दूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं

--- रामधारी सिंह "दिनकर"

10 जुलाई 2013

करो हमको न शर्मिंदा

करो हमको न शर्मिंदा बढ़ो आगे कहीं बाबा
हमारे पास आँसू के सिवा कुछ भी नहीं बाबा

कटोरा ही नहीं है हाथ में बस इतना अंतर है
मगर बैठे जहाँ हो तुम खड़े हम भी वहीं बाबा

तुम्हारी ही तरह हम भी रहे हैं आज तक प्यासे
न जाने दूध की नदियाँ किधर होकर बहीं बाबा

सफाई थी सचाई थी पसीने की कमाई थी
हमारे पास ऐसी ही कई कमियाँ रहीं बाबा

हमारी आबरू का प्रश्न है सबसे न कह देना
वो बातें हमने जो तुमसे अभी खुलकर कहीं बाबा|

--- कुँअर बेचैन

8 जुलाई 2013

अगर तुम एक पल भी

अगर तुम एक पल भी
ध्यान देकर सुन सको तो,
तुम्हें मालूम यह होगा
कि चीजें बोलती हैं।

तुम्हारे कक्ष की तस्वीर
तुमसे कह रही है
बहुत दिन हो गए तुमने मुझे देखा नहीं है
तुम्हारे द्वार पर यूँ ही पड़े
मासूम ख़त पर
तुम्हारे चुंबनों की एक भी रेखा नहीं है

अगर तुम बंद पलकों में
सपन कुछ बुन सको तो
तुम्हें मालूम यह होगा
कि वे दृग खोलती हैं।

वो रामायण
कि जिसकी ज़िल्द पर जाले पुरे हैं
तुम्हें ममता-भरे स्वर में अभी भी टेरती है।
वो खूँटी पर टँगे
जर्जर पुराने कोट की छवि
तुम्हें अब भी बड़ी मीठी नज़र से हेरती है।

अगर तुम भाव की कलियाँ
हृदय से चुन सको तो
तुम्हें मालूम यह होगा
कि वे मधु घोलती हैं।

--- कुँअर बेचैन

1 जुलाई 2013

For Life is

Listen, O friend, I shall tell thee of the secret perfume of Life.

Life has no philosophy, No cunning systems of thought.

Life has no religion, No adoration in deep sanctuaries.

Life has no god, Nor the burden of fearsome mystery.

Life has no abode, Nor the aching sorrow of ultimate decay.

Life has no pleasure, no pain, Nor the corruption of pursuing love.

Life is neither good nor evil, Nor the dark punishment of careless sin.

Life gives no comfort, Nor does it rest in the shrine of oblivion.

Life is neither spirit nor matter, Nor is there the cruel division of action and inaction.

Life has no death, Nor has it the void of loneliness in the shadow of Time.

Free is the man who lives in the Eternal, For Life is.

---J Krishnamurti

28 जून 2013

Kalahandi

In the shifting shadows of lantern light
Her hollow contours become yet more pronounced
Against the pitch darkness of the impatient man
As he advances she struggles with the suffocating stench
Of empty sacks stained with kerosene smoke
Smell of hooch, of sweat, of flesh, the Man's
Drunken half-smile, look of vague desire, the dark
Hollow of her dry hung elongated breasts, the dark
Gaping cleavages of paddy fields throw a mocking sneer.
Erratic fingers, nails digging into the skin -
Haggard looking crows swooping down in haphazard trajectories.
Twisting of bodies, arms clasping, unclasping
Emaciated naked children fight over a loaf
Of dark bread snatched from a tired dog :
silhouettes of puppets in a drollery
A woman wails by the body
Of husband crushed under a sack of relief rice
his breath, her breath, hot, mingling together :
Dry leaves rustle in the mid-afternoon air.
She cambers up, indifferent, like a crab, in spasms
As the hairy-chested man lunges for a decisive thrust :
Look of tiredness in the eyes,
ready to bite, but unable to move the underjaws.
Her body, breathing, lies exhausted -
A gleam of compromised content in her eyes
Having added two rupees to the forty she earned last
week by selling off her daughter.

---Dr Tapan Kumar Pradhan

27 जून 2013

Love's Philosophy

The fountains mingle with the river,
And the rivers with the ocean;
The winds of heaven mix forever,
With a sweet emotion;
Nothing in the world is single;
All things by a law divine
In one another's being mingle;--
Why not I with thine?
See! the mountains kiss high heaven,
And the waves clasp one another;
No sister flower would be forgiven,
If it disdained it's brother;
And the sunlight clasps the earth,
And the moonbeams kiss the sea;--
What are all these kissings worth,
If thou kiss not me?

---Percy Bysshe Shelley (1803-1822)

26 जून 2013

Hour of Coming

Death does not come when you call Him
However much you call, He never comes :
He comes only at his appointed hour -
Playing hide and seek, biding his time
Comes Death one day
all of a sudden !
When you are lying alone in your bed of rags,
Flies on your face and blood in nostrils,
Knees full of pus, boils under buttocks
With nobody to say even 'Ah Dear !' to you
No strength left even to vomit things out
Eyes filled with tears mixed with pain
You cry out loud - Death ! Death ! O Death!
Can't bear it any more Oh Take me away Death !!
But never comes Death !
When you are sitting alone in the middle of night
Under village banyan tree wrapped in a blanket
Looking at younger brother's funeral pyre :
In the burning embers you see wife's dead face
Remember playmates, school-friends, dead face
And cry out loud pressing your aching heart to chest
Friends gone, kin gone, daughter gone to in-laws :
Why do you O Lord still keep me in this world !
You wish, if only
could just now
come Death !!
Never comes Death !
When you are relaxing supine in your morning bed
Pressing the radio close, listening to cricket :
India versus Pakistan - ah, final match,
Ten runs to win, and just another wicket :
Your daughter comes near and breaks the news
Son-in-law's promotion - ah what a good news,
Playing in her lap little four-month old grandson
with soft pink little fingers fondles your beard :
"Oh dear one ! my diamond one ! my golden one, my little one !
Umhh... my remaining years be all yours, O lovely one.... !"
You softly kiss your grandson's forehead -
Four runs to win :
Then comes Death !

---Dr Tapan Kumar Pradhan