They who in folly or mere greed
Enslaved religion, markets, laws,
Borrow our language now and bid
Us to speak up in freedom’s cause.
It is the logic of our times,
No subject for immortal verse—
That we who lived by honest dreams
Defend the bad against the worse.
--- Cecil Day-Lewis
3 दिसंबर 2020
29 नवंबर 2020
“In Jerusalem”
In Jerusalem, and I mean within the ancient walls,
I walk from one epoch to another without a memory
to guide me. The prophets over there are sharing
the history of the holy ... ascending to heaven
and returning less discouraged and melancholy, because love
and peace are holy and are coming to town.
I was walking down a slope and thinking to myself: How
do the narrators disagree over what light said about a stone?
Is it from a dimly lit stone that wars flare up?
I walk in my sleep. I stare in my sleep. I see
no one behind me. I see no one ahead of me.
All this light is for me. I walk. I become lighter. I fly
then I become another. Transfigured. Words
sprout like grass from Isaiah’s messenger
mouth: “If you don’t believe you won’t be safe.”
I walk as if I were another. And my wound a white
biblical rose. And my hands like two doves
on the cross hovering and carrying the earth.
I don’t walk, I fly, I become another,
transfigured. No place and no time. So who am I?
I am no I in ascension’s presence. But I
think to myself: Alone, the prophet Muhammad
spoke classical Arabic. “And then what?”
Then what? A woman soldier shouted:
Is that you again? Didn’t I kill you?
I said: You killed me ... and I forgot, like you, to die.
--- Mahmoud Darwish
I walk from one epoch to another without a memory
to guide me. The prophets over there are sharing
the history of the holy ... ascending to heaven
and returning less discouraged and melancholy, because love
and peace are holy and are coming to town.
I was walking down a slope and thinking to myself: How
do the narrators disagree over what light said about a stone?
Is it from a dimly lit stone that wars flare up?
I walk in my sleep. I stare in my sleep. I see
no one behind me. I see no one ahead of me.
All this light is for me. I walk. I become lighter. I fly
then I become another. Transfigured. Words
sprout like grass from Isaiah’s messenger
mouth: “If you don’t believe you won’t be safe.”
I walk as if I were another. And my wound a white
biblical rose. And my hands like two doves
on the cross hovering and carrying the earth.
I don’t walk, I fly, I become another,
transfigured. No place and no time. So who am I?
I am no I in ascension’s presence. But I
think to myself: Alone, the prophet Muhammad
spoke classical Arabic. “And then what?”
Then what? A woman soldier shouted:
Is that you again? Didn’t I kill you?
I said: You killed me ... and I forgot, like you, to die.
--- Mahmoud Darwish
27 नवंबर 2020
जितना चिल्लात है उतना चोटान थोड़े है
तू जेतना समझत हौ ओतना महान थोड़े है
ख़ान तो लिखत हैं लेकिन पठान थोड़े है
मार-मार के हमसे बयान करवाईस
ईमानदारी से हमरा बयान थोड़े है
देखो आबादी मा तो चीन का पिछाड़ दिहिस
हमरे देस का किसान मरियल थोड़े है
हम ई मानित है मोहब्बत में चोट खाईस है
जितना चिल्लात है ओतना चोटान थोड़े है
ऊ छत पे खेल रही फुलझड़ी पटाखा से
हमरे छप्पर के ओर उनका ध्यान थोड़े है
चुनाव आवा तब देख परे नेताजी
तोहरे वादे का जनता भुलान थोड़े है
"रफ़ीक" मेकप औ' मेंहदी के ई कमाल है सब
तू जेतना समझत हौ ओतनी जवान थोड़े है.
--- रफ़ीक शादानी
ख़ान तो लिखत हैं लेकिन पठान थोड़े है
मार-मार के हमसे बयान करवाईस
ईमानदारी से हमरा बयान थोड़े है
देखो आबादी मा तो चीन का पिछाड़ दिहिस
हमरे देस का किसान मरियल थोड़े है
हम ई मानित है मोहब्बत में चोट खाईस है
जितना चिल्लात है ओतना चोटान थोड़े है
ऊ छत पे खेल रही फुलझड़ी पटाखा से
हमरे छप्पर के ओर उनका ध्यान थोड़े है
चुनाव आवा तब देख परे नेताजी
तोहरे वादे का जनता भुलान थोड़े है
"रफ़ीक" मेकप औ' मेंहदी के ई कमाल है सब
तू जेतना समझत हौ ओतनी जवान थोड़े है.
--- रफ़ीक शादानी
19 नवंबर 2020
18 नवंबर 2020
Title Song from Bharat Ek Khoj (Old Doordarshan Serial)
सृष्टी से पहले सत् नहीं था
असत् भी नहीं
अन्तरिक्ष भी नहीं
आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या?
कहाँ?
किसने ढका था?
उस पल तो अगम अतल जल भी कहाँ था? ।।१।।
नहीं थी मृत्यू
थी अमरता भी नहीं
नहीं था दिन
रात भी नहीं
हवा भी नहीं
साँस थी स्वयमेव फिर भी
नही था कोई कुछ भी
परमतत्त्व से अलग या परे भी ।।२।।
अंधेरे में अंधेरा-मुँदा अँधेरा था
जल भी केवल निराकार जल था
परमतत्त्व था सृजन-कामना से भरा
ओछे जल से घिरा
वही अपनी तपस्या की महिमा से उभरा ।।३।।
परम मन में बीज पहला जो उगा
काम बनकर वह जगा
कवियों ग्यानियों ने जाना
असत् और सत् का निकट संबंध पहचाना ।।४।।
फैले संबंध के किरण धागे तिरछे
परमतत्त्व उस पल ऊपर या नीचे?
वह था बँटा हुआ
पुरुष और स्त्री बना हुआ
ऊपर दाता वही भोक्ता
नीचे वसुधा स्वधा हो गया ।।५।।
सृष्टी यह बनी कैसे?
किससे?
आई है कहाँ से?
कोई क्या जानता है?
बता सकता है?
देवताओं को नहीं ग्यात
वे आए सृजन के बाद
सृष्टी को रचां है जिसने
उसको जाना किसने? ।।६।।
सृष्टी का कौन है कर्ता?
कर्ता है वा अकर्ता?
ऊँचे आकाश में रहता
सदा अध्यक्ष बना रहता
वही सचमुच में जानता
या नहीं भी जानता है
किसी को नहीं पता
नहीं पता नहीं है पता ।।७।।
14 नवंबर 2020
Kids Who Die
This is for the kids who die,
Black and white,
For kids will die certainly.
The old and rich will live on awhile,
As always,
Eating blood and gold,
Letting kids die.
Kids will die in the swamps of Mississippi
Organizing sharecroppers
Kids will die in the streets of Chicago
Organizing workers
Kids will die in the orange groves of California
Telling others to get together
Whites and Filipinos,
Negroes and Mexicans,
All kinds of kids will die
Who don’t believe in lies, and bribes, and contentment
And a lousy peace.
Of course, the wise and the learned
Who pen editorials in the papers,
And the gentlemen with Dr. in front of their names
White and black,
Who make surveys and write books
Will live on weaving words to smother the kids who die,
And the sleazy courts,
And the bribe-reaching police,
And the blood-loving generals,
And the money-loving preachers
Will all raise their hands against the kids who die,
Beating them with laws and clubs and bayonets and bullets
To frighten the people—
For the kids who die are like iron in the blood of the people—
And the old and rich don’t want the people
To taste the iron of the kids who die,
Don’t want the people to get wise to their own power,
To believe an Angelo Herndon, or even get together
Listen, kids who die—
Maybe, now, there will be no monument for you
Except in our hearts
Maybe your bodies’ll be lost in a swamp
Or a prison grave, or the potter’s field,
Or the rivers where you’re drowned like Leibknecht
But the day will come—
Your are sure yourselves that it is coming—
When the marching feet of the masses
Will raise for you a living monument of love,
And joy, and laughter,
And black hands and white hands clasped as one,
And a song that reaches the sky—
The song of the life triumphant
Through the kids who die.
2 नवंबर 2020
उस जनपद का कवि हूँ
उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है,
नंगा है, अनजान है, कला--नहीं जानता
कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता
कविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा है
उसके जीवन का सोता, इतिहास ही बता
सकता है। वह उदासीन बिलकुल अपने से,
अपने समाज से है; दुनिया को सपने से
अलग नहीं मानता, उसे कुछ भी नहीं पता
दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची; अब समाज में
वे विचार रह गये नही हैं जिन को ढोता
चला जा रहा है वह, अपने आँसू बोता
विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।
धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण
सुन पढ़ कर, जपता है नारायण नारायण।
--- त्रिलोचन
नंगा है, अनजान है, कला--नहीं जानता
कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता
कविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा है
उसके जीवन का सोता, इतिहास ही बता
सकता है। वह उदासीन बिलकुल अपने से,
अपने समाज से है; दुनिया को सपने से
अलग नहीं मानता, उसे कुछ भी नहीं पता
दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची; अब समाज में
वे विचार रह गये नही हैं जिन को ढोता
चला जा रहा है वह, अपने आँसू बोता
विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।
धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण
सुन पढ़ कर, जपता है नारायण नारायण।
--- त्रिलोचन
25 अक्टूबर 2020
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
फिर ऐसा कोई ख़ास कलम वर नहीं हूँ मैं
लेकिन वतन की ख़ाक से बाहर नहीं हूँ मैं
कोई पयाम ए हक़ हो वो सब है मेरे लिए
दुनिया का हर बुलंद अदब है मेरे लिए
वो राम जिसका नाम है जादू लिए हुए
लीला है जिसकी ॐ की खुशबू लिए हुए
अवतार बन के आयी थी ग़ैरत शबाब की
भारत में सबसे पहली किरण इंक़लाब की
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
हर गाम जिसका सच का फरेरा ही बन गया
वनवास ज़िन्दगी का सवेरा ही बन गया
एक तर्ज एक एक बात है हर ख़ास ओ आम से
मिलते हैं कैसे कैसे सबक हमको राम से
ऊंचा उठे तो फ़र्क़ न लाये सऊर में
कोई बढ़े न हद से ज्यादा गुरुर में
जंगल में भी खिला तो रही फूल की महक
गुदरी में रह के लाल की जाती नहीं चमक
दिल से कभी ये प्यार निकाला न जायेगा
माँ बाप का ख्याल भी टाला न जायेगा
बेटा वही जो माँ बाप की फरमान मान ले
शौहर वही जो लाज पे मरने की ठान ले
और बाप वो जो बेटों को लव - कुश बना सके
उनको जगत में जीने के सब गुण सिखा सके
भाई जो चाहे भाई को तलवार की तरह
जरनल जो रखे फ़ौज को परिवार की तरह
राजा वही गरीब से इन्साफ कर सके
दलदल से जात पात से हरदम उबर सके
जो वर्ण भेद भाव के चक्कर को तोड़ दे
शबरी के बेर खा के ज़माने को मोड़ दे
इंसान हक़ की राह में हरदम जमा रहे
ये बात फिर फिजूल की लश्कर बड़ा रहे
ईमान हो तो सोने का अम्बार कुछ नहीं
हो आत्मबल तो लोहे के हथियार कुछ नहीं
रावण की मैंने माना की हस्ती नहीं रही
रावण का कारोबार है फैला हुआ अभी
छाया हर एक सिम जो अँधेरा घना हुआ
हिन्दुस्तान आज है लंका बना हुआ
जो जुल्म से डरे वो उपासक हो राम का
सोने पे जान दे वो उपासक हो राम का
वो राम जिसने जुल्म की बुनियाद ढाई थी
जिसके भगत ने सोने की लंका जलाई थी
हर आदमी ये सोचे जो होशो हवास है
वो राम के करीब है रावण के पास है
लोगों को राम से जो मोहब्बत है आज कल
पूजा नहीं अमल की जरुरत है आज कल
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
--- शम्सी मीनाई
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
फिर ऐसा कोई ख़ास कलम वर नहीं हूँ मैं
लेकिन वतन की ख़ाक से बाहर नहीं हूँ मैं
कोई पयाम ए हक़ हो वो सब है मेरे लिए
दुनिया का हर बुलंद अदब है मेरे लिए
वो राम जिसका नाम है जादू लिए हुए
लीला है जिसकी ॐ की खुशबू लिए हुए
अवतार बन के आयी थी ग़ैरत शबाब की
भारत में सबसे पहली किरण इंक़लाब की
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
हर गाम जिसका सच का फरेरा ही बन गया
वनवास ज़िन्दगी का सवेरा ही बन गया
एक तर्ज एक एक बात है हर ख़ास ओ आम से
मिलते हैं कैसे कैसे सबक हमको राम से
ऊंचा उठे तो फ़र्क़ न लाये सऊर में
कोई बढ़े न हद से ज्यादा गुरुर में
जंगल में भी खिला तो रही फूल की महक
गुदरी में रह के लाल की जाती नहीं चमक
दिल से कभी ये प्यार निकाला न जायेगा
माँ बाप का ख्याल भी टाला न जायेगा
बेटा वही जो माँ बाप की फरमान मान ले
शौहर वही जो लाज पे मरने की ठान ले
और बाप वो जो बेटों को लव - कुश बना सके
उनको जगत में जीने के सब गुण सिखा सके
भाई जो चाहे भाई को तलवार की तरह
जरनल जो रखे फ़ौज को परिवार की तरह
राजा वही गरीब से इन्साफ कर सके
दलदल से जात पात से हरदम उबर सके
जो वर्ण भेद भाव के चक्कर को तोड़ दे
शबरी के बेर खा के ज़माने को मोड़ दे
इंसान हक़ की राह में हरदम जमा रहे
ये बात फिर फिजूल की लश्कर बड़ा रहे
ईमान हो तो सोने का अम्बार कुछ नहीं
हो आत्मबल तो लोहे के हथियार कुछ नहीं
रावण की मैंने माना की हस्ती नहीं रही
रावण का कारोबार है फैला हुआ अभी
छाया हर एक सिम जो अँधेरा घना हुआ
हिन्दुस्तान आज है लंका बना हुआ
जो जुल्म से डरे वो उपासक हो राम का
सोने पे जान दे वो उपासक हो राम का
वो राम जिसने जुल्म की बुनियाद ढाई थी
जिसके भगत ने सोने की लंका जलाई थी
हर आदमी ये सोचे जो होशो हवास है
वो राम के करीब है रावण के पास है
लोगों को राम से जो मोहब्बत है आज कल
पूजा नहीं अमल की जरुरत है आज कल
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
मैं राम पर लिखूं मेरी हिम्मत नहीं है कुछ
तुलसी ने बाल्मीकि ने छोड़ा नहीं है कुछ
--- शम्सी मीनाई
15 अक्टूबर 2020
सफेद हाथी
गाँव के दक्खिन में पोखर की पार से सटा,
यह डोम पाड़ा है –
जो दूर से देखने में ठेठ मेंढ़क लगता है
और अन्दर घुसते ही सूअर की खुडारों में बदल जाता है।
यहाँ की कीच भरी गलियों में पसरी
पीली अलसाई धूप देख मुझे हर बार लगा है कि-
सूरज बीमार है या यहाँ का प्रत्येक बाशिन्दा
पीलिया से ग्रस्त है।
इसलिए उनके जवान चेहरों पर
मौत से पहले का पीलापन
और आँखों में ऊसर धरती का बौनापन
हर पल पसरा रहता है।
इस बदबूदार छत के नीचे जागते हुए
मुझे कई बार लगा है कि मेरी बस्ती के सभी लोग
अजगर के जबड़े में फंसे जि़न्दा रहने को छटपटा रहे है
और मै नगर की सड़कों पर कनकौए उड़ा रहा हूँ ।
कभी – कभी ऐसा भी लगा है कि
गाँव के चन्द चालाक लोगों ने लठैतों के बल पर
बस्ती के स्त्री पुरुष और बच्चों के पैरों के साथ
मेरे पैर भी सफेद हाथी की पूँछ से
कस कर बाँध दिए है।
मदान्ध हाथी लदमद भाग रहा है
हमारे बदन गाँव की कंकरीली
गलियों में घिसटते हुए लहूलूहान हो रहे हैं।
हम रो रहे हैं / गिड़गिड़ा रहे है
जिन्दा रहने की भीख माँग रहे हैं
गाँव तमाशा देख रहा है
और हाथी अपने खम्भे जैसे पैरों से
हमारी पसलियाँ कुचल रहा है
मवेशियों को रौद रहा है, झोपडि़याँ जला रहा है
गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर
बन्दूक दाग रहा है और हमारे दूध-मुँहे बच्चों को
लाल-लपलपाती लपटों में उछाल रहा है।
इससे पूर्व कि यह उत्सव कोई नया मोड़ ले
शाम थक चुकी है,
हाथी देवालय के अहाते में आ पहुँचा है
साधक शंख फूंक रहा है / साधक मजीरा बजा रहा है
पुजारी मानस गा रहा है और बेदी की रज
हाथी के मस्तक पर लगा रहा है।
देवगण प्रसन्न हो रहे हैं
कलियर भैंसे की पीठ चढ़ यमराज
लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं।
शब्बीरा नमाज पढ़ रहा है
देवताओं का प्रिय राजा मौत से बचे
हम स्त्री-पुरूष और बच्चों को रियायतें बाँट रहा है
मरे हुओं को मुआवजा दे रहा है
लोकराज अमर रहे का निनाद
दिशाओं में गूंज रहा है…
अधेरा बढ़ता जा रहा है और हम अपनी लाशें
अपने कन्धों पर टांगे संकरी बदबूदार गलियों में
भागे जा रहे हैं / हाँफे जा रहे हैं
अँधेरा इतना गाढ़ा है कि अपना हाथ
अपने ही हाथ को पहचानने में
बार-बार गच्चा खा रहा है।
---मलखान सिंह
यह डोम पाड़ा है –
जो दूर से देखने में ठेठ मेंढ़क लगता है
और अन्दर घुसते ही सूअर की खुडारों में बदल जाता है।
यहाँ की कीच भरी गलियों में पसरी
पीली अलसाई धूप देख मुझे हर बार लगा है कि-
सूरज बीमार है या यहाँ का प्रत्येक बाशिन्दा
पीलिया से ग्रस्त है।
इसलिए उनके जवान चेहरों पर
मौत से पहले का पीलापन
और आँखों में ऊसर धरती का बौनापन
हर पल पसरा रहता है।
इस बदबूदार छत के नीचे जागते हुए
मुझे कई बार लगा है कि मेरी बस्ती के सभी लोग
अजगर के जबड़े में फंसे जि़न्दा रहने को छटपटा रहे है
और मै नगर की सड़कों पर कनकौए उड़ा रहा हूँ ।
कभी – कभी ऐसा भी लगा है कि
गाँव के चन्द चालाक लोगों ने लठैतों के बल पर
बस्ती के स्त्री पुरुष और बच्चों के पैरों के साथ
मेरे पैर भी सफेद हाथी की पूँछ से
कस कर बाँध दिए है।
मदान्ध हाथी लदमद भाग रहा है
हमारे बदन गाँव की कंकरीली
गलियों में घिसटते हुए लहूलूहान हो रहे हैं।
हम रो रहे हैं / गिड़गिड़ा रहे है
जिन्दा रहने की भीख माँग रहे हैं
गाँव तमाशा देख रहा है
और हाथी अपने खम्भे जैसे पैरों से
हमारी पसलियाँ कुचल रहा है
मवेशियों को रौद रहा है, झोपडि़याँ जला रहा है
गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर
बन्दूक दाग रहा है और हमारे दूध-मुँहे बच्चों को
लाल-लपलपाती लपटों में उछाल रहा है।
इससे पूर्व कि यह उत्सव कोई नया मोड़ ले
शाम थक चुकी है,
हाथी देवालय के अहाते में आ पहुँचा है
साधक शंख फूंक रहा है / साधक मजीरा बजा रहा है
पुजारी मानस गा रहा है और बेदी की रज
हाथी के मस्तक पर लगा रहा है।
देवगण प्रसन्न हो रहे हैं
कलियर भैंसे की पीठ चढ़ यमराज
लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं।
शब्बीरा नमाज पढ़ रहा है
देवताओं का प्रिय राजा मौत से बचे
हम स्त्री-पुरूष और बच्चों को रियायतें बाँट रहा है
मरे हुओं को मुआवजा दे रहा है
लोकराज अमर रहे का निनाद
दिशाओं में गूंज रहा है…
अधेरा बढ़ता जा रहा है और हम अपनी लाशें
अपने कन्धों पर टांगे संकरी बदबूदार गलियों में
भागे जा रहे हैं / हाँफे जा रहे हैं
अँधेरा इतना गाढ़ा है कि अपना हाथ
अपने ही हाथ को पहचानने में
बार-बार गच्चा खा रहा है।
---मलखान सिंह
12 अक्टूबर 2020
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाईयों का शिकार आदमी
सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश का ख़ुद मज़ार आदमी
हर तरफ़ भागते दौडते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी
ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी
--- निदा फ़ाज़ली
फिर भी तनहाईयों का शिकार आदमी
सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश का ख़ुद मज़ार आदमी
हर तरफ़ भागते दौडते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी
ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी
--- निदा फ़ाज़ली
9 अक्टूबर 2020
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
वैसे भी ये बड़े लोग हैं अक्सर धूप चढ़े जगते हैं,
व्यवहारों से कहीं अधिक तस्वीरों में अच्छे लगते हैं,
इनका है इतिहास गवाही जैसे सोए वैसे जागे,
इनके स्वार्थ सचिव चलते हैं नयी सुबह के रथ के आगे,
माना कल तक तुम सोये थे लेकिन ये तो जाग रहे थे,
फिर भी कहाँ चले जाते थे जाने सब उपहार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
इनके हित औ अहित अलग हैं इन्हें चमन से क्या मतलब है,
राम कृपा से इनके घर में जो कुछ होता है वह सब है,
संघर्षों में नहीं जूझते साथ समय के बहते भर हैं,
वैसे ये हैं नहीं चमन के सिर्फ चमन में रहते भर हैं,
इनका धर्म स्वयं अपने आडम्बर से हल्का पड़ता हैं,
शुभचिंतक बनने को आतुर बैठे हैं ग़द्दार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
सूरज को क्या पड़ी भला जो दस्तक देकर तुम्हें पुकारे,
गर्ज़ पड़े सौ बार तुम्हारी खोलो अपने बंद किवाड़े,
नयी रोशनी गले लगाओ आदर सहित कहीं बैठाओ,
ठिठुरी उदासीनता ओढ़े सोया वातावरण जगाओ,
हो चैतन्य ऊंघती आँखें फिर कुछ बातें करो काम की,
कैसे कौन चुका सकता है कितने कब उपकार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
धरे हाथ पर हाथ न बैठो कोई नया विकल्प निकालो,
ज़ंग लगे हौंसले माँज लो बुझा हुआ पुरुषार्थ जगा लो,
उपवन के पत्ते पत्ते पर लिख दो युग की नयी ऋचाएँ,
वे ही माली कहलाएँगे जो हाथों में ज़ख्म दिखाएँ,
जिनका ख़ुशबूदार पसीना रूमालों को हुआ समर्पित,
उनको क्या अधिकार कि पाएं वे महंगे सत्कार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
जिनको आदत है सोने की उपवन की अनुकूल हवा में,
उनका अस्थि शेष भी उड़ जाता है बनकर धूल हवा में,
लेकिन जो संघर्षों का सुख सिरहाने रखकर सोते हैं,
युग के अंगड़ाई लेने पर वे ही पैग़म्बर होते हैं,
जो अपने को बीज बनाकर मिटटी में मिलना सीखे हैं,
सदियों तक उनके साँचे में ढलते हैं व्यवहार चमन के,
ऐसे नहीं जाग कर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के,
--- उदयप्रताप सिंह
5 अक्टूबर 2020
Start Close In
Start close in,
don’t take the second step
or the third,
start with the first
thing
close in,
the step
you don’t want to take.
Start with
the ground
you know,
the pale ground
beneath your feet,
your own
way to begin
the conversation.
Start with your own
question,
give up on other
people’s questions,
don’t let them
smother something
simple.
To hear
another’s voice,
follow
your own voice,
wait until
that voice
becomes an
intimate
private ear
that can
really listen
to another.
Start right now
take a small step
you can call your own
don’t follow
someone else’s
heroics,
be humble
and focused,
start close in,
don’t mistake
that other
for your own.
Start close in,
don’t take
the second step
or the third,
start with the first
thing
close in,
the step
you don’t want to take.
--- David Whyte A poem from River Flow: New & Selected Poems
Many Rivers Press
2 अक्टूबर 2020
वसीयत
गांधी के मरने के बाद
चश्मा मिला
अंधी जनता को
घड़ी ले गए अंग्रेज़
धोती और सिद्धांत
जल गए चिता के साथ
गांधीजनों ने पाया
राजघाट
संस्थाओं ने आत्मकथा
और डंडा
नेताओं ने हथियाया
और हांक रहे हैं
देश को
गांधी से पूछे बिना
गांधी को बांट लिया हमने
अपनी अपनी तरह से
--- हूबनाथ पांडेय
चश्मा मिला
अंधी जनता को
घड़ी ले गए अंग्रेज़
धोती और सिद्धांत
जल गए चिता के साथ
गांधीजनों ने पाया
राजघाट
संस्थाओं ने आत्मकथा
और डंडा
नेताओं ने हथियाया
और हांक रहे हैं
देश को
गांधी से पूछे बिना
गांधी को बांट लिया हमने
अपनी अपनी तरह से
--- हूबनाथ पांडेय
30 सितंबर 2020
ज्वालामुखी के मुहाने
तुमने कहा —
'मैं ईश्वर हूँ'
हमारे सिर झुका दिए गए।
तुमने कहा —
'ब्रह्म सत्यम, जगत मिथ्या'
हमसे आकाश पुजाया गया।
तुमने कहा —
'मैंने जो कुछ भी कहा —
केवल वही सच है'
हमें अन्धा
हमें बहरा
हमें गूँगा बना
गटर में धकेल दिया
ताकि चुनौती न दे सकें
तुम्हारी पाखण्डी सत्ता को।
मदान्ध ब्राह्मण
धरती को नरक बनाने से पहले
यह तो सोच ही लिया होता
कि ज्वालामुखी के मुहाने
कोई पाट सका है
जो तुम पाट पाते !
---मलखान सिंह
'मैं ईश्वर हूँ'
हमारे सिर झुका दिए गए।
तुमने कहा —
'ब्रह्म सत्यम, जगत मिथ्या'
हमसे आकाश पुजाया गया।
तुमने कहा —
'मैंने जो कुछ भी कहा —
केवल वही सच है'
हमें अन्धा
हमें बहरा
हमें गूँगा बना
गटर में धकेल दिया
ताकि चुनौती न दे सकें
तुम्हारी पाखण्डी सत्ता को।
मदान्ध ब्राह्मण
धरती को नरक बनाने से पहले
यह तो सोच ही लिया होता
कि ज्वालामुखी के मुहाने
कोई पाट सका है
जो तुम पाट पाते !
---मलखान सिंह
17 सितंबर 2020
सुनो ब्राह्मण
हम जानते हैं
हमारे सब कुछ
भौंडा लगता है तुम्हें।
हमारी बगल में खड़ा होने पर
कद घटा है तुम्हारा
और बराबर खड़ा देख
भवें तन जाती हैं।
सुनो भू-देव
तुम्हारा कद
उसी दिन घट गया था
जिस दिन कि तुमने
न्याय के नाम पर
जीवन को चौखटों में कस
कसाई बाड़ा बना दिया था।
और खुद को शीर्ष पर
स्थापित करने हेतु
ताले ठुकवा दिए थे
चौमंजिला जीने पे।
वहीं बीच आंगन में
स्वर्ग के नरक के
ऊंच के नीच के
छूत के अछूत के
भूत के भभूत के
मंत्र के तंत्र के
बेपेंदी के ब्रह्म के
कुतिया, आत्मा, प्रारब्ध
और गुण-धर्म के
सियासी प्रपंच गढ़
रेवड़ बना दिया था
पूरे के पूरे देश को।
तुम अकसर कहते हो कि
आत्मा कुंआ है
जुड़ी है जो मूल सी
फिर निश्चय ही हमारी घृणा चुभती होगी तुम्हें
पके हुए शूल सी।
यदि नहीं-
तुम सुनो वशिष्ठ!
द्रोणाचार्य तुम भी सुनो
हम तुमसे घृणा करते हैं
तुम्हारे अतीत
तुम्हारी आस्थाओं पर थूकते हैं
मत भूलो कि अब
मेहनतकश कंधे
तुम्हारे बोझ ढोने को
तैयार नहीं हैं
बिल्कुल तैयार नहीं है।
देखो!
बंद किले से बाहर
झांक कर तो देखो
बरफ पिघल रही है
बछड़े मार रहे हैं फुर्री
बैल धूप चबा रहे हैं
और एकलव्य
पुराने जंग लगे तीरों को
आग में तपा रहा है
---मलखान सिंह
हमारे सब कुछ
भौंडा लगता है तुम्हें।
हमारी बगल में खड़ा होने पर
कद घटा है तुम्हारा
और बराबर खड़ा देख
भवें तन जाती हैं।
सुनो भू-देव
तुम्हारा कद
उसी दिन घट गया था
जिस दिन कि तुमने
न्याय के नाम पर
जीवन को चौखटों में कस
कसाई बाड़ा बना दिया था।
और खुद को शीर्ष पर
स्थापित करने हेतु
ताले ठुकवा दिए थे
चौमंजिला जीने पे।
वहीं बीच आंगन में
स्वर्ग के नरक के
ऊंच के नीच के
छूत के अछूत के
भूत के भभूत के
मंत्र के तंत्र के
बेपेंदी के ब्रह्म के
कुतिया, आत्मा, प्रारब्ध
और गुण-धर्म के
सियासी प्रपंच गढ़
रेवड़ बना दिया था
पूरे के पूरे देश को।
तुम अकसर कहते हो कि
आत्मा कुंआ है
जुड़ी है जो मूल सी
फिर निश्चय ही हमारी घृणा चुभती होगी तुम्हें
पके हुए शूल सी।
यदि नहीं-
तुम सुनो वशिष्ठ!
द्रोणाचार्य तुम भी सुनो
हम तुमसे घृणा करते हैं
तुम्हारे अतीत
तुम्हारी आस्थाओं पर थूकते हैं
मत भूलो कि अब
मेहनतकश कंधे
तुम्हारे बोझ ढोने को
तैयार नहीं हैं
बिल्कुल तैयार नहीं है।
देखो!
बंद किले से बाहर
झांक कर तो देखो
बरफ पिघल रही है
बछड़े मार रहे हैं फुर्री
बैल धूप चबा रहे हैं
और एकलव्य
पुराने जंग लगे तीरों को
आग में तपा रहा है
---मलखान सिंह
14 सितंबर 2020
हमारी हिन्दी
हमारी हिन्दी एक दुहाजू की नयी बीवी है
बहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली
गहने गढ़ाते जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ
वह मुटाती जाये
पसीने से गन्धाती जाये घर का माल मैके पहुँचाती जाये
पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को लेकर लड़े
घर से तो ख़ैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है
एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली मं छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है परपंच के लिए
एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किये जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आँगन कई कमरे कुठरिया एक के अन्दर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिये कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फर्श पर ढँनगते गिलास
खूँटियों पर कुचैली चादरें जो कुएँ पर ले जाकर फींची जायेंगी
घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अन्दर की कोठरी में पाँच सेर सोना भी
और सन्तान भी जिसका जिगर बढ़ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और ज़मीन भी जिस पर हिन्दी भवन बनेगा
कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिन्दी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे।
---रघुवीर सहाय
बहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली
गहने गढ़ाते जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ
वह मुटाती जाये
पसीने से गन्धाती जाये घर का माल मैके पहुँचाती जाये
पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को लेकर लड़े
घर से तो ख़ैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है
एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली मं छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है परपंच के लिए
एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किये जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आँगन कई कमरे कुठरिया एक के अन्दर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिये कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फर्श पर ढँनगते गिलास
खूँटियों पर कुचैली चादरें जो कुएँ पर ले जाकर फींची जायेंगी
घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अन्दर की कोठरी में पाँच सेर सोना भी
और सन्तान भी जिसका जिगर बढ़ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और ज़मीन भी जिस पर हिन्दी भवन बनेगा
कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिन्दी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे।
---रघुवीर सहाय
11 सितंबर 2020
तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
--- दुष्यंत कुमार
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
मैं बेपनाह अंधेरों को सुब्ह कैसे कहूं
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं
तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं
तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएं
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं
तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर
तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं
बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहां
ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं
ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं
मैं बेपनाह अंधेरों को सुब्ह कैसे कहूं
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं
तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं
तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएं
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं
तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर
तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं
बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहां
ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं
ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं
8 सितंबर 2020
The Moment
The moment when, after many years
of hard work and a long voyage
you stand in the centre of your room,
house, half-acre, square mile, island country,
knowing at last how you got there,
and say, I own this,
Is the same moment when the trees unloose
their soft arms from around you,
the birds take back their language,
the cliffs fissure and collapse,
the air moves back from you like a wave
and you can't breathe.
No, they whisper. You own nothing.
You were a visitor, time after time
climbing the hill, planting the flag, proclaiming.
We never belonged to you.
You never found us.
It was always the other way round.
~ Margaret Atwood
of hard work and a long voyage
you stand in the centre of your room,
house, half-acre, square mile, island country,
knowing at last how you got there,
and say, I own this,
Is the same moment when the trees unloose
their soft arms from around you,
the birds take back their language,
the cliffs fissure and collapse,
the air moves back from you like a wave
and you can't breathe.
No, they whisper. You own nothing.
You were a visitor, time after time
climbing the hill, planting the flag, proclaiming.
We never belonged to you.
You never found us.
It was always the other way round.
~ Margaret Atwood
5 सितंबर 2020
शम्बूक
शम्बूक
हम जानते हैं तुम इतिहास पुरुष नहीं हो
वरना कोई लिख देता
तुम्हें भी पूर्वजन्म का ब्राह्मण
स्वर्ग की कामना से
राम के हाथों मृत्यु का याचक
लेकिन शम्बूक
तुम इतिहास का सच हो
राजतन्त्रों में जन्मती
असंख्य दलित चेतनाओं का प्रतीक
व्यवस्था और मानव के संघर्ष का विम्ब
शम्बूक
तुम हिन्दुत्व के ज्ञात इतिहास के
किसी भी काल का सच हो सकते हो
शम्बूक जो तुम्हारा नाम नहीं है
क्योंकि तुम घोघा नहीं थे,
घृणा का शब्द है जो दलित चेतना को
व्यवस्था के रक्षकों ने दिया था
शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम उलटे होकर तपस्या नहीं कर रहे थे
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा है
तुम्हारी तपस्या एक आन्दोलन थी
जो व्यवस्था को उलट रही थी
शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम्हें सदेह स्वर्ग जाने की कामना नहीं थी,
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा है
तुम अभिव्यक्ति दे रहे थे
राज्याश्रित अध्यात्म में उपेक्षित देह के यथार्थ को
शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम्हारी तपस्या से
ब्राह्मण का बालक नहीं मरा था
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा
मरा था ब्राह्मणवाद
मरा था उसका भवितव्य।
शम्बूक
सिर्फ़ इसलिए राम ने तुम्हारी हत्या की थी।
तुम्हें मालूम नहीं
जिस मुहूर्त में तुम धराशायी हुए थे
उसी मुहूर्त में जी उठा था
ब्राह्मण-बालक
यानी ब्राह्मणवाद
यानी उसका भवितव्य
शम्बूक
तुम्हें मालूम नहीं
तुम्हारे वध पर
देवताओं ने पुष्प-वर्षा की थी
कहा था-- बहुत ठीक, बहुत ठीक
क्योंकि तुम्हारी हत्या
दलित चेतना की हत्या थी,
स्वतन्त्रता, समानता, न्यायबोध की हत्या थी
किन्तु, शम्बूक
तुम आज भी सच हो
आज भी दे रहे हो शहादत
सामाजिक-परिवर्तन के यज्ञ में
---कंवल_भारती
हम जानते हैं तुम इतिहास पुरुष नहीं हो
वरना कोई लिख देता
तुम्हें भी पूर्वजन्म का ब्राह्मण
स्वर्ग की कामना से
राम के हाथों मृत्यु का याचक
लेकिन शम्बूक
तुम इतिहास का सच हो
राजतन्त्रों में जन्मती
असंख्य दलित चेतनाओं का प्रतीक
व्यवस्था और मानव के संघर्ष का विम्ब
शम्बूक
तुम हिन्दुत्व के ज्ञात इतिहास के
किसी भी काल का सच हो सकते हो
शम्बूक जो तुम्हारा नाम नहीं है
क्योंकि तुम घोघा नहीं थे,
घृणा का शब्द है जो दलित चेतना को
व्यवस्था के रक्षकों ने दिया था
शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम उलटे होकर तपस्या नहीं कर रहे थे
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा है
तुम्हारी तपस्या एक आन्दोलन थी
जो व्यवस्था को उलट रही थी
शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम्हें सदेह स्वर्ग जाने की कामना नहीं थी,
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा है
तुम अभिव्यक्ति दे रहे थे
राज्याश्रित अध्यात्म में उपेक्षित देह के यथार्थ को
शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम्हारी तपस्या से
ब्राह्मण का बालक नहीं मरा था
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा
मरा था ब्राह्मणवाद
मरा था उसका भवितव्य।
शम्बूक
सिर्फ़ इसलिए राम ने तुम्हारी हत्या की थी।
तुम्हें मालूम नहीं
जिस मुहूर्त में तुम धराशायी हुए थे
उसी मुहूर्त में जी उठा था
ब्राह्मण-बालक
यानी ब्राह्मणवाद
यानी उसका भवितव्य
शम्बूक
तुम्हें मालूम नहीं
तुम्हारे वध पर
देवताओं ने पुष्प-वर्षा की थी
कहा था-- बहुत ठीक, बहुत ठीक
क्योंकि तुम्हारी हत्या
दलित चेतना की हत्या थी,
स्वतन्त्रता, समानता, न्यायबोध की हत्या थी
किन्तु, शम्बूक
तुम आज भी सच हो
आज भी दे रहे हो शहादत
सामाजिक-परिवर्तन के यज्ञ में
---कंवल_भारती
23 अगस्त 2020
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
क़ाफ़िले में सुब्ह के इक शोर है
या'नी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या
सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्म-ए-ख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या
ये निशान-ए-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या
ग़ैरत-ए-यूसुफ़ है ये वक़्त-ए-अज़ीज़
'मीर' उस को राएगाँ खोता है क्या
--- मीर तक़ी मीर
आगे आगे देखिए होता है क्या
क़ाफ़िले में सुब्ह के इक शोर है
या'नी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या
सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्म-ए-ख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या
ये निशान-ए-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या
ग़ैरत-ए-यूसुफ़ है ये वक़्त-ए-अज़ीज़
'मीर' उस को राएगाँ खोता है क्या
--- मीर तक़ी मीर
21 अगस्त 2020
अरे यायावर! रहेगा याद?
पार्श्व गिरि का नम्र,
चीड़ों में
डगर चढ़ती उमंगों-सी।
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।
विहग-शिशु मौन नीड़ों में।
मैं ने आँख भर देखा।
दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा।
(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!)
क्षितिज ने पलक-सी खोली,
तमक कर दामिनी बोली-
'अरे यायावर! रहेगा याद?'
माफ्लङ् (शिलङ्), 22 सितम्बर, 1947
As I Grew Older
It was a long time ago.
I have almost forgotten my dream.
But it was there then,
In front of me,
Bright like a sun—
My dream.
And then the wall rose,
Rose slowly,
Slowly,
Between me and my dream.
Rose until it touched the sky—
The wall.
Shadow.
I am black.
I lie down in the shadow.
No longer the light of my dream before me,
Above me.
Only the thick wall.
Only the shadow.
My hands!
My dark hands!
Break through the wall!
Find my dream!
Help me to shatter this darkness,
To smash this night,
To break this shadow
Into a thousand lights of sun,
Into a thousand whirling dreams
Of sun!
---Langston Hughes
I have almost forgotten my dream.
But it was there then,
In front of me,
Bright like a sun—
My dream.
And then the wall rose,
Rose slowly,
Slowly,
Between me and my dream.
Rose until it touched the sky—
The wall.
Shadow.
I am black.
I lie down in the shadow.
No longer the light of my dream before me,
Above me.
Only the thick wall.
Only the shadow.
My hands!
My dark hands!
Break through the wall!
Find my dream!
Help me to shatter this darkness,
To smash this night,
To break this shadow
Into a thousand lights of sun,
Into a thousand whirling dreams
Of sun!
---Langston Hughes
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