Jan 3, 2013

जिन्हें एतमाद-ए-बहार था, वो ही फूल रंग बदल गए

जो ग़मे हबीब से दूर थे, वो ख़ुद अपनी आग में जल गए
जो ग़मे हबीब को पा गए, वो ग़मों से हंस के निकल गए

जो थके थके से थे हौसले, वो शबाब बन के मचल गए
वो नज़र-नज़र से गले मिले, तो बुझे चिराग़ भी जल गए

ये शिकस्त-ए-दीद की करवटें भी बड़ी लतीफ़-ओ-जमील थीं
मैं नज़र झुका के तड़प गया, वो नज़र बचा के निकल गए

न ख़िज़ा में है कोई तीरगी, न बहार में कोई रोशनी
ये नज़र-नज़र के चिराग़ हैं, कहीं बुझ गए कहीं जल गए

जो संभल-संभल के बहक गए, वो फ़रेब ख़ुर्द-ए-राह थे
वो मक़ाम-ए-इश्क़ को पा गए, जो बहक-बहक के संभल गए

जो खिले हुए हैं रविश-रविश, वो हज़ार हुस्न-ए-चमन सही
मगर उन गुलों का जवाब क्या जो कदम-कदम पे कुचल गए

न है शायर अब ग़म-ए-नौ-ब-नौ न वो दाग़-ए-दिल न आरज़ू
जिन्हें एतमाद-ए-बहार था, वो ही फूल रंग बदल गए

(हबीब: मेहबूब, शिकस्त-ए-दीद: नज़र की हार, लतीफ़-ओ-जमील: आकर्षक और आनन्ददायक, खिज़ा: पतझड़, तीरगी: अन्धेरा, ख़ुर्द: सूक्ष्म, रविश: बग़ीचे के बीच छोटे-छोटे रास्ते, नौ-ब-नौ: ताज़ा, एतमाद: पक्का यक़ीन)

---शायर लखनवी

Jan 1, 2013

सौ में सत्तर आदमी

सौ में सत्तर आदमी
फिलहाल जब नाशाद है
दिल पे रखकर हाथ कहिये
देश क्या आजाद है। सौ में सत्तर …

कोठियों से मुल्क के
मेयार को मत आंकिये
असली हिंदुस्तान तो
फुटपाथ पर आबाद है । सौ में सत्तर आदमी ….

सत्ताधारी लड़ पड़े है
आज कुत्तों की तरह
सूखी रोटी देखकर
हम मुफ्लिसों के हाथ में ! सौ में सत्तर आदमी …

जो मिटा पाया न अब तक
भूख के अवसाद को
दफन कर दो आज उस
मफ्लूश पूंजीवाद को । सौ में सत्तर आदमी…

बुढा बरगद साक्षी है
गावं की चौपाल पर
रमसुदी की झोपडी भी
ढह गई चौपाल में । सौ में सत्तर आदमी…

जिस शहर के मुन्तजिम
अंधे हों जलवामाह के
उस शहर में रोशनी की
बात बेबुनियाद है । सौ में सत्तर आदमी…

जो उलझ कर रह गई है
फाइलों के जाल में
रोशनी वो गांव तक
पहुँचेगी कितने साल में । सौ में सत्तर आदमी…

लेखक ----- अदम गोंडवी

Dec 24, 2012

लहू का रंग एक है

बने हो एक ख़ाक से, तो दूर क्या क़रीब क्या
लहु का रंग एक है, अमीर क्या गरीब क्या
बने हो एक ...

वो ही जान वो ही तन, कहाँ तलक़ छुपाओगे -
पहन के रेशमी लिबाज़, तुम बदल न जाओगे
के एक जात हैं सभी
तो बात है अजीब सी
लहु का रंग एक है ...

गरीब है वो इस लिये, तुम अमीर हो गये
के एक बादशाह हुआ, तो सौ फ़कीर हो गये
खता यह है समाज की -(२)
भला बुरा नसीब क्या
लहु का रंग एक है ...

जो एक हो तो क्यूँ ना फिर, दिलों का दर्द बाँट लो
लहु की प्यास बाँट लो, रुको कि दर्द बाँट लो
लगा लो सब को तुम गले
हबीब क्या, रक़ीब क्या
लहु का रंग एक है ...

---मजरूह सुल्तानपुरी

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