संदर्भ:कविता हिंदी के यथार्थवादी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध से प्रेरित है। फिल्म "जॉली एलएलबी 3" में किसान की आत्मकथा की तरह सुनाई गई वह कविता हिंदी साहित्य के महान कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की प्रेरणा से बनायी गई है। यह कविता किसान की भावनाओं और संघर्ष को गहरे और मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करती है।
यह पोस्ट निराला के जीवन के अंतिम वर्षों में लिखा गया एक अनोखा और ध्वन्यात्मक गीत प्रस्तुत करता है, जो उनकी मृत्यु के बाद "सान्ध्य काकली" में संकलित हुआ। यह गीत पारंपरिक ध्रुपद गायन की शैली के समान शब्दों के उलटफेर और पुनरावृत्ति से भरा है, जिसे रामविलास शर्मा ने निराला की "क्लासिकी" संगीत रचना बताया है।
सुन सुन सुन मेरे नन्हे सुन, सुन सुन सुन मेरे मुन्ने सुन, प्यार की गंगा बहे, देश में एकता रहे।
सुन सुन सुन मेरी नन्ही सुन, सुन सुन सुन मेरी मुन्नी सुन, प्यार की गंगा बहे, देश में एकता रहे।
ख़त्म काली रात हो, रोशनी की बात हो, दोस्ती की बात हो, ज़िन्दगी की बात हो। बात हो इंसान की, बात हो हिन्दुस्तान की, सारा भारत ये कहे – प्यार की गंगा बहे, प्यार की गंगा बहे, देश में एकता रहे।
अब ना दुश्मनी पाले, अब ना कोई घर जले, अब नहीं उजड़े सुहाग, अब नहीं फैले ये आग। अब ना हों बच्चे अनाथ, अब ना हो नफ़रत की घाट, सारा भारत ये कहे – प्यार की गंगा बहे, प्यार की गंगा बहे, देश में एकता रहे।
सारे बच्चे बच्चियाँ, सारे बूढ़े और जवाँ, यानि सब हिन्दुस्तान। एक मंज़िल पर मिलें, एक साथ फिर चलें, एक साथ फिर रहें, एक साथ फिर कहें। एक साथ फिर कहें, फिर कहें – प्यार की गंगा बहे, प्यार की गंगा बहे, देश में एकता रहे, देश में एकता रहे, सारा भारत ये कहे, सारा भारत ये कहे – देश में एकता रहे।
गीत “प्यार की गंगा बहे” 1993 में निर्देशक सुभाष घई ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के आग्रह पर बनाया, जब बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश में साम्प्रदायिक तनाव था। गीतकार जावेद अख्तर और संगीतकार लक्ष्मीकांत–प्यारेलाल ने इसे रचा। इसमें बॉलीवुड सितारे सलमान खान, आमिर खान, अनिल कपूर, गोविंदा, जैकी श्रॉफ, ऋषि कपूर, नसीरुद्दीन शाह तथा दक्षिण और क्षेत्रीय सितारे रजनीकांत, मम्मूटी, चिरंजीवी, प्रसेंजीत, सचिन पिलगांवकर आदि शामिल हुए। सभी कलाकारों ने बिना पारिश्रमिक भाग लेकर अपने बच्चों को भी इसमें शामिल किया। गीत का उद्देश्य था देश में प्रेम, भाईचारा और एकता का संदेश फैलाना।
I am not done yet as possible as yeast as imminent as bread a collection of safe habits a collection of cares less certain than i seem more certain than i was a changed changer i continue to continue what i have been most of my lives is where i’m going
“Babu pleading for his bail;State opposing tooth and nail. Summers bygone, winters have arrived; But crime you did, and Rahul cried. I am not the one, I am not the one; Too grave the charge, don’t pretend. Whom did I attack, where is he; Oh! That we know, in the trial we will see. You say I have said & I deny from the first blush; Rahul may be gone yet Satish said. Didn’t we say; don’t rush; Let me go, let me go, even Imran is on bail. Even then, even then; it wouldn’t be a smooth sail. Stop! Stop! Stop! Stop; I have heard, heard a lot. Mind is clear, with claims tall; Its my time to take a call. Babu has a sordid past; proof is scant, which may not last. His omnipotence can’t be assumed; Peril to vanished Rahul, is legally fumed.” Take your freedom from the cage you are in; Till the trial is over, the state is reigned in. The State proclaims; to have the cake and eat it too; The Court comes calling ; before the cake is eaten, bake it too.
इस गीत का मतलब है कि देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की धुन हर तरफ बज रही है, जो सभी को जोड़ती है और आगे बढ़ने की ताकत देती है। इसमें भारत के मशहूर गायक, वादक और नर्तकी देश की मुख्य परंपरागत कलाओं का सुंदर प्रदर्शन करते हैं। राग जो कि शास्त्रीय संगीत की आत्मा है, के साथ तबला, संतूर, सरोद, सितार, कथक, भरतनाट्यम, मणिपुरी और ओड़िसी जैसे कई नृत्य और संगीत शैलियाँ इस वीडियो में एक ही संगति में भारत की एकता और खूबसूरती को दर्शाती हैं।
चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी सुनहरी सब्ज़ रेशम ज़र्द और गुलनार की राखी बनी है गो कि नादिर ख़ूब हर सरदार की राखी सलोनों में अजब रंगीं है उस दिलदार की राखी न पहुँचे एक गुल को यार जिस गुलज़ार की राखी
अयाँ है अब तो राखी भी चमन भी गुल भी शबनम भी झमक जाता है मोती और झलक जाता है रेशम भी तमाशा है अहा हा-हा ग़नीमत है ये आलम भी उठाना हाथ प्यारे वाह-वा टुक देख लें हम भी तुम्हारी मोतियों की और ज़री के तार की राखी
मची है हर तरफ़ क्या क्या सलोनों की बहार अब तो हर इक गुल-रू फिरे है राखी बाँधे हाथ में ख़ुश हो हवस जो दिल में गुज़रे है कहूँ क्या आह मैं तुम को यही आता है जी में बन के बाम्हन, आज तो यारो मैं अपने हाथ से प्यारे के बाँधूँ प्यार की राखी
हुई है ज़ेब-ओ-ज़ीनत और ख़ूबाँ को तो राखी से व-लेकिन तुम से ऐ जाँ और कुछ राखी के गुल फूले दिवानी बुलबुलें हों देख गुल चुनने लगीं तिनके तुम्हारे हाथ ने मेहंदी ने अंगुश्तों ने नाख़ुन ने गुलिस्ताँ की चमन की बाग़ की गुलज़ार की राखी
अदा से हाथ उठते हैं गुल-ए-राखी जो हिलते हैं कलेजे देखने वालों के क्या क्या आह छिलते हैं कहाँ नाज़ुक ये पहुँचे और कहाँ ये रंग मिलते हैं चमन में शाख़ पर कब इस तरह के फूल खिलते हैं जो कुछ ख़ूबी में है उस शोख़-ए-गुल-रुख़्सार की राखी
फिरें हैं राखियाँ बाँधे जो हर दम हुस्न के तारे तो उन की राखियों को देख ऐ जाँ चाव के मारे पहन ज़ुन्नार और क़श्क़ा लगा माथे उपर बारे 'नज़ीर' आया है बाम्हन बन के राखी बाँधने प्यारे बँधा लो उस से तुम हँस कर अब इस त्यौहार की राखी
उस शहर में मत जाओ जहाँ तुम्हारा बचपन गुज़रा अब वो वैसा नहीं मिलेगा जिस घर में तुम किराएदार थे वहाँ कोई और होगा तुम उजबक की तरह खपरैल वाले उस घर के दरवाजे पर खड़े होगे और कोई तुम्हें पहचान नहीं पाएगा !
आसान है करना प्रधानमंत्री की आलोचना मुख्यमंत्री की करना उससे थोड़ा मुश्किल विधायक की आलोचना में ख़तरा ज़रूर है लेकिन ग्राम प्रधान के मामले में तो पिटाई होना तय है।
अमेज़न के वर्षा वनों की चिंता करना कूल है हिमालय के ग्लेशियरों पर बहस खड़ी करना थोड़ा मेहनत का काम बड़े पावर प्लांट का विरोध करना एक्टिविज्म तो है जिसमें पैसे भी बन सकते हैं लेकिन पास की नदी से रेत-बजरी भरते हुए ट्रैक्टर की शिकायत जानलेवा है।
स्थानीयता के सारे संघर्ष ख़तरनाक हैं भले ही वे कविता में हों या जीवन में।
Listen! Faiz, Do you know? The difference between your and my wait Is only A fixed time Just a few more days You knew that Like the gust of breeze Speechless cloud does not tell When I ask— “How many more seasons like this?” Who knows how many more seasons?
The walls around me, These four walls, Have been standing quietly, Raising their heads high, Bearing winds and storms, and the scorching sun. Why do they not speak? No! Maybe, they do speak.
When sand and plaster fall, They surely say something. But! The owner repairs them off silencing their words One day, Finally, the weary wall collapses, And at the same place, Another silent wall is built.
On the pitch-black night yesterday, There was a knock on the doors of prison Of the innocent breezes Of cries of our dear ones Even the lightning Was screaming for help Asking for our freedom Even the well-shaped branches Openly joined in the grief After failed attempts And losing control The delicate tears of rain Started to pour Struck against the earth’s crust, And the rhythm of the drops Turned it into A commotion of pleas. But— The deaf snakes Kept dancing With their poisonous hoods Laying their web of traps. And— The oppressed Stood with their hands raised On that pitch-black night…
एक दिन बंदरों ने हथिया ली सत्ता उंगलियों में सोने की अंगूठी ठूंस ली सफ़ेद कलफ़दार क़मीज़ें पहनीं सुगंधित हवाना सिगार का कश लगाया अपने पांव में डाले चमाचम काले जूते!
हमें पता ही न चला, क्योंकि हम दूसरे कामों में व्यस्त थे कोई अरस्तू पढ़ता रहा, तो कोई आकंठ प्यार में डूबा हुआ था शासकों के भाषण ऊटपटांग होने लगे गपड़-सपड़, लेकिन हमने कभी इन्हें ध्यान से सुना ही नहीं हमें संगीत ज़्यादा पसंद था युद्ध अधिक वहशी होने लगे जेलख़ाने पहले से और गंदे हो गये तब जाकर लगा कि शासन सचमुच बंदरों के हाथ में है!
You tell me to live each day as if it were my last. This is in the kitchen where before coffee I complain of the day ahead—that obstacle race of minutes and hours, grocery stores and doctors.
But why the last? I ask. Why not live each day as if it were the first— all raw astonishment, Eve rubbing her eyes awake that first morning, the sun coming up like an ingénue in the east?
You grind the coffee with the small roar of a mind trying to clear itself. I set the table, glance out the window where dew has baptized every living surface.
Sometimes I feel that all those fallen soldiers, Who never left the bloody battle zones, Have not been buried to decay and molder, But turned into white cranes that softly groan.
And thus, until these days since those bygone times They have been flying calling us with cries. Isn’t it why we often hear those sad chimes And calmly freeze, while looking in the skies?
A tired flock of cranes still flies – their wings flap. Birds glide into the twilight, roaming free. In their formation I can see a small gap – It might be so, that space is meant for me.
The day shall come, when in the mist of ashen My final rest among those cranes I’ll find, From the skies calling – in a bird-like fashion – All those of you, who I’ll have left behind.
Sometimes I feel that all those fallen soldiers, Who never left the bloody battle zones, Have not been buried to decay and molder, But turned into white cranes that softly groan…
सारस
कभी-कभी लगता है मुझको वे सैनिक रक्तिम युद्ध-भूमि से लौट न जो आए नहीं मरे वे वहाँ बने मानो सारस उड़े गगन में, श्वेत पंख सब फैलाए।
उन्हीं दिनों से, बीते हुए जमाने से उड़े गगन में, गूँजे उनकी आवाजें क्या न इसी कारण ही अक्सर चुप रहकर भारी मन से हम नीले नभ को ताकें ?
आज, शाम के घिरते हुए अँधेरे में देखूँ धुँध-कुहासे में सारस उड़ते, अपना दल-सा एक बनाए उसी तरह जैसे जब थे मानव, भू पर डग भरते।
वे उड़ते हैं, लंबी मंजिल तय करते और पुकारें जैसे नाम किसी के वे, शायद इनकी ही पुकार से इसीलिए शब्द हमारी भाषा के मिलते-जुलते ?
उड़ते जाते हैं सारस-दल थके-थके धुँध-कुहासे में भी, जब दिन ढलता है, उस तिकोण में उनके जरा जगह खाली वह तो मेरे लिए, मुझे यह लगता है।
वह दिन आएगा, मैं सारस-दल के संग हल्के नील अँधेरे में उड़ जाऊँगा, उन्हें सारसों की ही भाँति पुकारूँगा छोड़ जिन्हें मैं इस धरती पर जाऊँगा।
--- Rasul Gazmatov (English translation by an American poet, Leo Schwartzberg)
हमनी के रात-दिन दुखवा भोगत बानी, हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइब। हमनी के दुख भगवनओं न देखताजे, हमनी के कबले कलेसवा उठाइब। पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां, बेधरम होके रंगरेज बनि जाइब। हाय राम! धरम न छोड़त बनत बाजे, बे-धरम होके कैसे मुंखवा दिखाइब।।
खम्भवा के फारि पहलाद के बंचवले जां ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले। धोती जुरजोधना कै भैया छोरत रहै, परगट होकै तहां कपड़ा बढ़वले। मरले रवनवां कै पलले भभिखना के, कानी अंगुरी पै धर के पथरा उठवले। कहंवा सुतल बाटे सुनत न वारे अब, डोम जानि हमनी के छुए डेरइले।।
हमनी के राति दिन मेहनत करीले जां, दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि। ठकुरे के सुख सेत घर में सुतल बानी, हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि। हाकिमे के लसकरि उतरल बानी, जेत उहओ बेगरिया में पकरल जाइबि। मुंह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानी, ई कुलि खबर सरकार के सुनाइबि।।
बमने के लेखे हम भिखिया न मांगव जां, ठकुरे के लेखे नहिं लडरि चलाइबि। सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम मारब जां, अहिरा के लेखे नहिं गइया चोराइबि। भंटऊ के लेखे न कबित्त हम जोरबा जां, पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइब। अपने पसिनवा के पैसा कमाइब जां, घर भर मिलि जुलि बांटि चोंटि खाइब।।
हड़वा मसुइया के देहियां है हमनी कै; ओकारै कै देहियां बमनऊ के बानी। ओकरा के घरे घरे पुजवा होखत बाजे सगरै इलकवा भइलैं जजमानी। हमनी के इतरा के निगिचे न जाइलेजां, पांके में से भरि-भरि पिअतानी पानी। पनहीं से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं, हमनी के एतनी काही के हलकानी।।
--- कवि हीरा डोम ( सितम्बर 1914 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित)
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए बाक़ी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते है इस शब्द के अर्थ खेतों के उन बेटों में है जो आज भी वृक्षों की परछाइओं से वक़्त मापते है उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं और वह भूख लगने पर अपने अंग भी चबा सकते है उनके लिए ज़िन्दगी एक परम्परा है और मौत के अर्थ है मुक्ति जब भी कोई समूचे भारत की 'राष्ट्रीय एकता' की बात करता है तो मेरा दिल चाहता है -- उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ उसे बताऊँ के भारत के अर्थ किसी दुष्यन्त से सम्बन्धित नहीं वरन खेत में दायर है जहाँ अन्न उगता है जहाँ सेंध लगती है
ना नर में कोई राम बचा, नारी में ना कोई सीता है ! ना धरा बचाने के खातिर, विष कोई शंकर पीता है !!
ना श्रीकृष्ण सा धर्म-अधर्म का, किसी में ज्ञान बचा है! ना हरिश्चंद्र सा सत्य, किसी के अंदर रचा बसा है !!
न गौतम बुद्ध सा धैर्य बचा, न नानक जी सा परम त्याग ! बस नाच रही है नर के भीतर प्रतिशोध की कुटिल आग !!
फिर बोलो की उस स्वर्णिम युग का, क्या अंश बाकि तुम में ! कि किसकी धुनी में रम कर फुले नहीं समाते हो, तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…
तुम भीष्म पितामह की भांति, अपने ही जिद पर अड़े रहे ! तुम शकुनि के षणयंत्रो से, घृणित रहे, तुम दंग रहे, तुम कर्ण के जैसे भी होकर, दुर्योधन दल के संग रहे !!
एक दुर्योधन फिर, सत्ता के लिए युद्ध में जाता है ! कुछ धर्मांधो के अन्दर फिर थोड़ा धर्म जगाता है !!
फिर धर्म की चिलम में नफ़रत की चिंगारी से आग लगाकर! चरस की धुँआ फुक-फुक कर, मतवाले होते जाते है, तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…