25 मार्च 2010

नाम में अक्सर मजहब का ज़िक्र होता है

नाम में अक्सर मजहब का ज़िक्र होता है
मेरा नाम जगदीश यानी हिन्दू
उसका नाम अशरफ था, ज़ाहिरन मुसलमान था
मैंने आदाब कहा उसने नमस्कार
हम दोनों के लिबाज़ तकरीबन एक जैसे थे
अछी बात है लिबाज़ आजकल मज़हब की अलामत नहीं
वो अपने गुमशुदा भाई की तलाश में आया था
मैं उसे अपने घर ले आया
हम पांच दिन साथ साथ रहे
वो मेरी अम्मी अबा के पाँव छूता
अपनी अम्मी अबा को याद करता
रोता हमें भी रुलाता
माँ कहती तेरे नैन नक्श अशरफ जैसे है
में पूछता फिर ये धर्म में फर्क कैसे है
में मज़ाक करता, कही में तो नहीं इसका खोया हुआ भाई
माँ मुस्कराती, अशरफ भी
उसका भाई छोटा था बीस साल का -- मुसलमा
और में तब था तीस का हिन्दू
उसका भाई नहीं मिला
मेरा भाई पाकिस्तान लौट गया
तब से अम्मी मुझे जगदीश अशरफ कह के पुकारती है
अब मेरे नाम में मज़हब का नहीं मुहबत का ज़िक्र होता है

--- रचनाकार: जगदीश रावतानी आनंदम »

6 मार्च 2010

Funeral Blues

Stop all the clocks, cut off the telephone,
Prevent the dog from barking with a juicy bone,
Silence the pianos and with muffled drum
Bring out the coffin, let the mourners come

Let aeroplanes circle moaning overhead
Scribbling on the sky the message He Is Dead,
Put crêpe bows round the white necks of the public doves,
Let the traffic policemen wear black cotton gloves.

He was my North, my South, my East and West,
My working week and my Sunday rest,
My noon, my midnight, my talk, my song;
I thought that love would last for ever: I was wrong.

The stars are not wanted now: put out every one;
Pack up the moon and dismantle the sun;
Pour away the ocean and sweep up the wood.
For nothing now can ever come to any good.

- W. H. Auden

27 फ़रवरी 2010

स्पर्श (Sparsh)

कुरान हाथों में लेके नाबीना एक नमाज़ी
लबों पे रखता था
दोनों आँखों से चूमता था
झुकाके पेशानी यूँ अक़ीदत से छू रहा था
जो आयतें पढ़ नहीं सका
उन के लम्स महसूस कर रहा हो

मैं हैराँ-हैराँ गुज़र गया था
मैं हैराँ हैराँ ठहर गया हूँ

तुम्हारे हाथों को चूम कर
छू के अपनी आँखों से आज मैं ने
जो आयतें पढ़ नहीं सका
उन के लम्स महसूस कर लिये हैं
- Gulzar

Amir Khusro's Ghazal

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां

शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां

चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान
हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां

The English translation is:
Do not overlook my misery
Blandishing your eyes, and weaving tales;
My patience has over-brimmed, O sweetheart,
Why do you not take me to your bosom.

The nights of separation are long like tresses,
The day of our union is short like life;
When I do not get to see my beloved friend,
How am I to pass the dark nights?

Suddenly, as if the heart, by two enchanting eyes
Is beset by a thousand deceptions and robbed of tranquility;
But who cares enough to go and report
To my darling my state of affairs?

The lamp is aflame; every atom excited
I roam, always, afire with love;
Neither sleep to my eyes, nor peace for my body,
neither comes himself, nor sends any messages

In honour of the day of union with the beloved
who has lured me so long, O Khusrau;
I shall keep my heart suppressed,
if ever I get a chance to get to his place

- Amir Khusrau.
The phrase "Zeehaal-e-miskeen" comes from a poem of Amir Khusrau. The unique thing about this poem is that it is a macaronic, written in Persian and Brij Bhasha. In the first verse, the first line is in Persian, the second in Brij Bhasha, the third in Persian again, and the fourth in Brij Bhasha. In the remaining verses, the first two lines are in Persian, the last two in Brij Bhasha.

Na kisi ki aankh kaa nuur hoon

न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का करार हूँ
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त- ऐ -गुबार हूँ

न तो मैं किसी का हबीब हूँ न तो मैं किसी का मैं हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजाड़ गया वो दयार हूँ

मेरा रंग-रूप बिगाड़ गया मेरा यार मुझ से बिछड़ गया
जो चमन फिजां मैं उजाड़ गया मैं उसी की फसल-इ-बहार हूँ

पाए फातेहा कोई आये क्यूं कोई चार फूल चदाये क्यूं
कोई आके शम्मा जलाए क्यूं मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ

मैं नहीं हूँ नगमा-इ-जान_फिझाएं मुझे सुन क्यूं कोई करेगा क्या
मैं बड़े बरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुःख की पुकार हूँ

- Bahadur Shah Jafar

Baat karani mujhe mushkil kabhii aisi to na thii

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऎसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऎसी तो न थी

ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-करार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऎसी तो न थी

चश्म-इ-कातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसे अब हूँ गई कातिल कभी ऎसी तो न थी

उन की आँखों ने खुदा जाने किया क्या जादू
के तबीयत मेरी माँ'इल कभी ऎसी तो न थी

अक्स-इ-रुख-इ-यार ने किस से है तुझे चमकाया
ताब तुझ मैं माह-इ-कामिल कभी ऎसी तो न थी

क्या सबाब तू जो बिगड़ता है "ज़फर" से हर बार
खू तेरी हूर-इ-शमा_इल कभी ऎसी तो न थी

- Bahadur Shah Jafar

20 फ़रवरी 2010

Epilogue

We all live in darkness, kept apart from each other
by walls easily crossed but full of fake doors;
money drawn for light spending on friends or love
......our arguments
about the inexhaustible don't even graze it
just when it's time to start talking again, and take
a different road to get to the same place.

We have to get used to knowing how
to live from day to day, each one on his own,
as in the best of all possible worlds.
Our dreams prove it: we're cut off.

We can feel for each other,
and that's more than enough: that's all, and it's hard
to bring our stories closer together
trimming off from the excess we are,
yo get our minds off the impossible and on the things
.......we have in common,
and not to insist, not to insist too much:
to be a good storyteller who plays his role
between clown and preacher.

- by Enrique Lihn

from The Dark Room and Other Poems; New Directions Books, 1963