7 जुलाई 2016

वे मुसलमान थे

कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए
कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले
वे व्याधि थे
ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे
वे मुसलमान थे
उन्होंने अपने घोड़े सिन्धु में उतारे
और पुकारते रहे हिन्दू! हिन्दू!! हिन्दू!!!
बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया
नदी का नाम दिया
वे हर गहरी और अविरल नदी को
पार करना चाहते थे
वे मुसलमान थे लेकिन वे भी
यदि कबीर की समझदारी का सहारा लिया जाए तो
हिन्दुओं की तरह पैदा होते थे
उनके पास बड़ी-बड़ी कहानियाँ थीं
चलने की
ठहरने की
पिटने की
और मृत्यु की
प्रतिपक्षी के ख़ून में घुटनों तक
और अपने ख़ून में कन्धों तक
वे डूबे होते थे
उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें
और म्यानों में सभ्यता के
नक्शे होते थे
न! मृत्यु के लिए नहीं
वे मृत्यु के लिए युद्ध नहीं लड़ते थे
वे मुसलमान थे
वे फ़ारस से आए
तूरान से आए
समरकन्द, फ़रग़ना, सीस्तान से आए
तुर्किस्तान से आए
वे बहुत दूर से आए
फिर भी वे पृथ्वी के ही कुछ हिस्सों से आए
वे आए क्योंकि वे आ सकते थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे कि या ख़ुदा उनकी शक्लें
आदमियों से मिलती थीं हूबहू
हूबहू
वे महत्त्वपूर्ण अप्रवासी थे
क्योंकि उनके पास दुख की स्मृतियाँ थीं
वे घोड़ों के साथ सोते थे
और चट्टानों पर वीर्य बिख़ेर देते थे
निर्माण के लिए वे बेचैन थे
वे मुसलमान थे
यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है
तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए
कि वे प्रायः इस तरह होते थे
कि प्रायः पता ही नहीं लगता था
कि वे मुसलमान थे या नहीं थे
वे मुसलमान थे
वे न होते तो लखनऊ न होता
आधा इलाहाबाद न होता
मेहराबें न होतीं, गुम्बद न होता
आदाब न होता
मीर मक़दूम मोमिन न होते
शबाना न होती
वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला ख़ुसरो न होता
वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता
वे न होते तो भारतीय उपमहाद्वीप के दुख को कहनेवाला ग़ालिब न होता
मुसलमान न होते तो अट्ठारह सौ सत्तावन न होता
वे थे तो चचा हसन थे
वे थे तो पतंगों से रंगीन होते आसमान थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे और हिन्दुस्तान में थे
और उनके रिश्तेदार पाकिस्तान में थे
वे सोचते थे कि काश वे एक बार पाकिस्तान जा सकते
वे सोचते थे और सोचकर डरते थे
इमरान ख़ान को देखकर वे ख़ुश होते थे
वे ख़ुश होते थे और ख़ुश होकर डरते थे
वे जितना पी०ए०सी० के सिपाही से डरते थे
उतना ही राम से
वे मुरादाबाद से डरते थे
वे मेरठ से डरते थे
वे भागलपुर से डरते थे
वे अकड़ते थे लेकिन डरते थे
वे पवित्र रंगों से डरते थे
वे अपने मुसलमान होने से डरते थे
वे फ़िलीस्तीनी नहीं थे लेकिन अपने घर को लेकर घर में
देश को लेकर देश में
ख़ुद को लेकर आश्वस्त नहीं थे
वे उखड़ा-उखड़ा राग-द्वेष थे
वे मुसलमान थे
वे कपड़े बुनते थे
वे कपड़े सिलते थे
वे ताले बनाते थे
वे बक्से बनाते थे
उनके श्रम की आवाज़ें
पूरे शहर में गूँजती रहती थीं
वे शहर के बाहर रहते थे
वे मुसलमान थे लेकिन दमिश्क उनका शहर नहीं था
वे मुसलमान थे अरब का पैट्रोल उनका नहीं था
वे दज़ला का नहीं यमुना का पानी पीते थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे इसलिए बचके निकलते थे
वे मुसलमान थे इसलिए कुछ कहते थे तो हिचकते थे
देश के ज़्यादातर अख़बार यह कहते थे
कि मुसलमान के कारण ही कर्फ़्यू लगते हैं
कर्फ़्यू लगते थे और एक के बाद दूसरे हादसे की
ख़बरें आती थीं
उनकी औरतें
बिना दहाड़ मारे पछाड़ें खाती थीं
बच्चे दीवारों से चिपके रहते थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे इसलिए
जंग लगे तालों की तरह वे खुलते नहीं थे
वे अगर पाँच बार नमाज़ पढ़ते थे
तो उससे कई गुना ज़्यादा बार
सिर पटकते थे
वे मुसलमान थे
वे पूछना चाहते थे कि इस लालकिले का हम क्या करें
वे पूछना चाहते थे कि इस हुमायूं के मक़बरे का हम क्या करें
हम क्या करें इस मस्जिद का जिसका नाम
कुव्वत-उल-इस्लाम है
इस्लाम की ताक़त है
अदरक की तरह वे बहुत कड़वे थे
वे मुसलमान थे
वे सोचते थे कि कहीं और चले जाएँ
लेकिन नहीं जा सकते थे
वे सोचते थे यहीं रह जाएँ
तो नहीं रह सकते थे
वे आधा जिबह बकरे की तरह तकलीफ़ के झटके महसूस करते थे
वे मुसलमान थे इसलिए
तूफ़ान में फँसे जहाज़ के मुसाफ़िरों की तरह
एक दूसरे को भींचे रहते थे
कुछ लोगों ने यह बहस चलाई थी कि
उन्हें फेंका जाए तो
किस समुद्र में फेंका जाए
बहस यह थी
कि उन्हें धकेला जाए
तो किस पहाड़ से धकेला जाए
वे मुसलमान थे लेकिन वे चींटियाँ नहीं थे
वे मुसलमान थे वे चूजे नहीं थे
सावधान!
सिन्धु के दक्षिण में
सैंकड़ों सालों की नागरिकता के बाद
मिट्टी के ढेले नहीं थे वे
वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे
वे सिन्धु और हिन्दुकुश की तरह सच थे
सच को जिस तरह भी समझा जा सकता हो
उस तरह वे सच थे
वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे
वे मुसलमान थे अफ़वाह नहीं थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे

~देवी प्रसाद मिश्र

4 जुलाई 2016

एन.जी.ओ. एक ख़तरनाक साम्राज्यवादी कुचक्र

भिखमंगे आये
नवयुग का मसीहा बनकर,
लोगों को अज्ञान, अशिक्षा और निर्धनता से मुक्ति दिलाने ।
अद्भुत वक्तृता, लेखन–कौशल और
सांगठनिक क्षमता से लैस
स्वस्थ–सुदर्शन–सुसंस्कृत भिखमंगे आये
हमारी बस्ती में ।
एशिया–अफ्रीका–लातिनी अमेरिका के
तमाम गरीबों के बीच
जिस तरह पहुंचे वे यानों और
वाहनों पर सवार,
उसी तरह आये वे हमारे बीच ।
भीख, दया, समर्पण और भय की
संस्कृति के प्रचारक
पुराने मिशनरियों से वे अलग थे,
जैसे कि उनके दाता भी भिन्न थे
अपने पूर्वजों से ।
अलग थे वे उन सर्वोदयी याचकों से भी
जिनके गांधीवादी जांघिये में
पड़ा रहता था
(और आज भी पड़ा रहता है)
विदेशी अनुदान का नाड़ा ।
भिखमंगों ने बेरोजगार युवाओं से
कहा-“तुम हमारे पास आओ,
हम तुम्हें जनता की सेवा करना सिखायेंगे,
वेतन कम देंगे
पर गुजारा–भत्ता से बेहतर होगा
और उसकी भरपाई के लिए
‘जनता के आदमी’ का
ओहदा दिलायेंगे,
स्थायी नौकरी न सही,
बिना किसी जोखिम के
क्रान्तिकारी बनायेंगे,
मजबूरी के त्याग का वाजिब
मोल दिलायेंगे ।”
“रिटायर्ड, निराश, थके हुए क्रान्तिकारियो,
आओ, हम तुम्हें स्वर्ग का रास्ता बतायेंगे ।
वामपंथी विद्वानो, आओ
आओ सबआल्टर्न वालो,
आओ तमाम उत्तर मार्क्सवादियो,
उत्तर नारीवादियो वगैरह–वगैरह
आओ, अपने ज्ञान और अनुभव से
एन.जी.ओ. दर्शन के नये–नये शस्त्र और शास्त्र रचो,”
आह्वान किया भिखमंगों ने
और जुट गये दाता–एजेंसियों के लिए
नई रिपोर्ट तैयार करने में

1 मई 2016

निवाला

मां है रेशम के कारखाने में
बाप मसरूफ सूती मिल में है
कोख से मां की जब से निकला है
बच्चा खोली के काले दिल में है

जब यहाँ से निकल के जाएगा
कारखानों के काम आयेगा
अपने मजबूर पेट की खातिर
भूक सरमाये की बढ़ाएगा

हाथ सोने के फूल उगलेंगे
जिस्म चांदी का धन लुटाएगा
खिड़कियाँ होंगी बैंक की रौशन
खून इसका दिए जलायेगा

यह जो नन्हा है भोला भाला है
खूनीं सरमाये का निवाला है
पूछती है यह इसकी खामोशी
कोई मुझको बचाने वाला है!

---अली सरदार जाफ़री

2 अप्रैल 2016

कौन आज़ाद हुआ ?

कौन आज़ाद हुआ ?
किसके माथे से सियाही छुटी ?
मेरे सीने मे दर्द है महकुमी का
मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है वही
कौन आज़ाद हुआ ?

खंजर आज़ाद है सीने मे उतरने के लिए
वर्दी आज़ाद है वेगुनाहो पर जुल्मो सितम के लिए
मौत आज़ाद है लाशो पर गुजरने के लिए
कौन आज़ाद हुआ ?

काले बाज़ार मे बदशक्ल चुदैलों की तरह
कीमते काली दुकानों पर खड़ी रहती है
हर खरीदार की जेबो को कतरने के लिए
कौन आज़ाद हुआ ?

कारखानों मे लगा रहता है
साँस लेती हुयी लाशो का हुजूम
बीच मे उनके फिरा करती है बेकारी भी
अपने खूंखार दहन खोले हुए
कौन आज़ाद हुआ ?

रोटियाँ चकलो की कहवाये है
जिनको सरमाये के द्ल्लालो ने
नफाखोरी के झरोखों मे सजा रखा है
बालियाँ धान की गेंहूँ के सुनहरे गोशे
मिस्रो यूनान के मजबूर गुलामो की तरह
अजबनी देश के बाजारों मे बिक जाते है
और बदबख्त किसानो की तडपती हुयी रूह
अपने अल्फाज मे मुंह ढांप के सो जाती है

कौन आजाद हुआ ?

---अली सरदार जाफ़री

21 मार्च 2016

ईरानी कविता

शहतूत

क्‍या आपने कभी शहतूत देखा है,
जहां गिरता है, उतनी ज़मीन पर
उसके लाल रस का धब्‍बा पड़ जाता है.
गिरने से ज़्यादा पीड़ादायी कुछ नहीं.
मैंने कितने मज़दूरों को देखा है
इमारतों से गिरते हुए,
गिरकर शहतूत बन जाते हुए.


(ईश्‍वर)

(ईश्‍वर) भी एक मज़दूर है
ज़रूर वह वेल्‍डरों का भी वेल्‍डर होगा.
शाम की रोशनी में
उसकी आंखें अंगारों जैसी लाल होती हैं,
रात उसकी क़मीज़ पर
छेद ही छेद होते हैं.

बंदूक़

अगर उन्‍होंने बंदूक़ का आविष्‍कार न किया होता
तो कितने लोग, दूर से ही,
मारे जाने से बच जाते.
कई सारी चीज़ें आसान हो जातीं.
उन्‍हें मज़दूरों की ताक़त का अहसास दिलाना भी
कहीं ज़्यादा आसान होता.

मृत्‍यु का ख़ौफ़

ताउम्र मैंने इस बात पर भरोसा किया
कि झूठ बोलना ग़लत होता है
ग़लत होता है किसी को परेशान करना

ताउम्र मैं इस बात को स्‍वीकार किया
कि मौत भी जि़ंदगी का एक हिस्‍सा है

इसके बाद भी मुझे मृत्‍यु से डर लगता है
डर लगता है दूसरी दुनिया में भी मजदूर बने रहने से.


कॅरियर का चुनाव

मैं कभी साधारण बैंक कर्मचारी नहीं बन सकता था
खाने-पीने के सामानों का सेल्‍समैन भी नहीं
किसी पार्टी का मुखिया भी नहीं
न तो टैक्‍सी ड्राइवर
प्रचार में लगा मार्केटिंग वाला भी नहीं

मैं बस इतना चाहता था
कि शहर की सबसे ऊंची जगह पर खड़ा होकर
नीचे ठसाठस इमारतों के बीच उस औरत का घर देखूं
जिससे मैं प्‍यार करता हूं
इसलिए मैं बांधकाम मज़दूर बन गया.


मेरे पिता

अगर अपने पिता के बारे में कुछ कहने की हिम्‍मत करूं
तो मेरी बात का भरोसा करना,
उनके जीवन ने उन्‍हें बहुत कम आनंद दिया

वह शख़्स अपने परिवार के लिए समर्पित था
परिवार की कमियों को छिपाने के लिए
उसने अपना जीवन कठोर और ख़ुरदुरा बना लिया

और अब
अपनी कविताएं छपवाते हुए
मुझे सिर्फ़ एक बात का संकोच होता है
कि मेरे पिता पढ़ नहीं सकते.

आस्‍था

मेरे पिता मज़दूर थे
आस्‍था से भरे हुए इंसान
जब भी वह नमाज़ पढ़ते थे
(अल्‍लाह) उनके हाथों को देख शर्मिंदा हो जाता था.


मृत्‍यु

मेरी मां ने कहा
उसने मृत्‍यु को देख रखा है
उसके बड़ी-बड़ी घनी मूंछें हैं
और उसकी क़द-काठी, जैसे कोई बौराया हुआ इंसान.

उस रात से
मां की मासूमियत को
मैं शक से देखने लगा हूं.


राजनीति

बड़े-बड़े बदलाव भी
कितनी आसानी से कर दिए जाते हैं.
हाथ-काम करने वाले मज़दूरों को
राजनीतिक कार्यकर्ताओं में बदल देना भी
कितना आसान रहा, है न!
क्रेनें इस बदलाव को उठाती हैं
और सूली तक पहुंचाती हैं.


दोस्‍ती

मैं (ईश्‍वर) का दोस्‍त नहीं हूं
इसका सिर्फ़ एक ही कारण है
जिसकी जड़ें बहुत पुराने अतीत में हैं :
जब छह लोगों का हमारा परिवार
एक तंग कमरे में रहता था

और (ईश्‍वर) के पास बहुत बड़ा मकान था
जिसमें वह अकेले ही रहता था


सरहदें

जैसे कफ़न ढंक देता है लाश को
बर्फ़ भी बहुत सारी चीज़ों को ढंक लेती है.
ढंक लेती है इमारतों के कंकाल को
पेड़ों को, क़ब्रों को सफ़ेद बना देती है

और सिर्फ़ बर्फ़ ही है जो
सरहदों को भी सफ़ेद कर सकती है.


घर

मैं पूरी दुनिया के लिए कह सकता हूं यह शब्‍द
दुनिया के हर देश के लिए कह सकता हूं
मैं आसमान को भी कह सकता हूं
इस ब्रह्मांड की हरेक चीज़ को भी.
लेकिन तेहरान के इस बिना खिड़की वाले किराए के कमरे को
नहीं कह सकता,
मैं इसे घर नहीं कह सकता.


सरकार

कुछ अरसा हुआ
पुलिस मुझे तलाश रही है
मैंने किसी की हत्‍या नहीं की
मैंने सरकार के खि़लाफ़ कोई लेख भी नहीं लिखा

सिर्फ़ तुम जानती हो, मेरी प्रियतमा
कि जनता के लिए कितना त्रासद होगा
अगर सरकार महज़ इस कारण मुझसे डरने लगे
कि मैं एक मज़दूर हूं
अगर मैं क्रांतिकारी या बाग़ी होता
तब क्‍या करते वे?

फिर भी उस लड़के के लिए यह दुनिया
कोई बहुत ज़्यादा बदली नहीं है
जो स्‍कूल की सारी किताबों के पहले पन्‍ने पर
अपनी तस्‍वीर छपी देखना चाहता था.


इकलौता डर

जब मैं मरूंगा
अपने साथ अपनी सारी प्रिय किताबों को ले जाऊंगा
अपनी क़ब्र को भर दूंगा
उन लोगों की तस्‍वीरों से जिनसे मैंने प्‍यार किया.
मेर नये घर में कोई जगह नहीं होगी
भविष्‍य के प्रति डर के लिए.

मैं लेटा रहूंगा. मैं सिगरेट सुलगाऊंगा
और रोऊंगा उन तमाम औरतों को याद कर
जिन्‍हें मैं गले लगाना चाहता था.

इन सारी प्रसन्‍नताओं के बीच भी
एक डर बचा रहता है :
कि एक रोज़, भोरे-भोर,
कोई कंधा झिंझोड़कर जगाएगा मुझे और बोलेगा -
'अबे उठ जा सबीर, काम पे चलना है|

---सबीर हका,
अनुवाद : गीत चतुर्वेदी

1 मार्च 2016

कानून

लोहे के पैरों में भारी बूट
कन्‍धे से लटकती बन्दूक
कानून अपना रास्ता पकड़ेगा
हथकड़ियाँ डालकर हाथों में
तमाम ताकत से उन्हें
जेलों की ओर खींचता हुआ
गुजरेगा विचार और श्रम के बीच से
श्रम से फल को अलग करता
रखता हुआ चीजों को
पहले से तय की हुई
जगहों पर
मसलन अपराधी को
न्यायाधीश की, ग़लत को सही की
और पूँजी के दलाल को
शासक की जगह पर
रखता हुआ
चलेगा

मजदूरों पर गोली की रफ्तार से
भुखमरी की रफ्तार से किसानों पर
विरोध की जुबान पर
चाकू की तरह चलेगा
व्याख्या नहीं देगा
बहते हुए ख़ून की
कानून व्याख्या से परे कहा जायेगा
देखते-देखते
वह हमारी निगाहों और सपनों में
खौफ बनकर समा जायेगा
देश के नाम पर
जनता को गिरफ्तार करेगा
जनता के नाम पर
बेच देगा देश
सुरक्षा के नाम पर
असुरक्षित करेगा
अगर कभी वह आधी रात को
आपका दरवाजा खटखटायेगा
तो फिर समझिये कि आपका
पता नहीं चल पायेगा
खबरों में इसे मुठभेड़ कहा जायेगा

पैदा होकर मिल्कियत की कोख से
बहसा जायेगा
संसद में और कचहरियों में
झूठ की सुनहली पालिश से
चमकाकर
तब तक लोहे के पैरों
चलाया जायेगा कानून
जब तक तमाम ताकत से
तोड़ा नहीं जायेगा।

(1980)
--- गोरख पाण्डेय

14 फ़रवरी 2016

कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !

कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !

थककर बैठो नहीं प्रतीक्षा कर रहा कोई कहीं
हारे नहीं जब हौसले
तब कम हुये सब फासले
दूरी कहीं कोई नहीं केवल समर्पण चाहिए !

कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !

हर दर्द झूठा लग रहा सहकर मजा आता नहीं
आँसू वही आँखें वही
कुछ है ग़लत कुछ है सही
जिसमें नया कुछ दिख सके वह एक दर्पण चाहिए !

कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !

राहें पुरानी पड़ गईं आख़िर मुसाफ़िर क्या करे !
सम्भोग से सन्यास तक
आवास से आकाश तक
भटके हुये इन्सान को कुछ और जीवन चाहिए !

कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !

कोई न हो जब साथ तो एकान्त को आवाज़ दें !
इस पार क्या उस पार क्या !
पतवार क्या मँझधार क्या !!
हर प्यास को जो दे डुबा वह एक सावन चाहिए !

कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !

कैसे जियें कैसे मरें यह तो पुरानी बात है !
जो कर सकें आओ करें
बदनामियों से क्यों डरें
जिसमें नियम-संयम न हो वह प्यार का क्षण चाहिए!

कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए !

---रमानाथ अवस्थी