I work all day, and get half-drunk at night.
Waking at four to soundless dark, I stare.
In time the curtain-edges will grow light.
Till then I see what’s really always there:
Unresting death, a whole day nearer now,
Making all thought impossible but how
And where and when I shall myself die.
Arid interrogation: yet the dread
Of dying, and being dead,
Flashes afresh to hold and horrify.
The mind blanks at the glare. Not in remorse
—The good not done, the love not given, time
Torn off unused—nor wretchedly because
An only life can take so long to climb
Clear of its wrong beginnings, and may never;
But at the total emptiness for ever,
The sure extinction that we travel to
And shall be lost in always. Not to be here,
Not to be anywhere,
And soon; nothing more terrible, nothing more true.
This is a special way of being afraid
No trick dispels. Religion used to try,
That vast moth-eaten musical brocade
Created to pretend we never die,
And specious stuff that says No rational being
Can fear a thing it will not feel, not seeing
That this is what we fear—no sight, no sound,
No touch or taste or smell, nothing to think with,
Nothing to love or link with,
The anaesthetic from which none come round.
And so it stays just on the edge of vision,
A small unfocused blur, a standing chill
That slows each impulse down to indecision.
Most things may never happen: this one will,
And realisation of it rages out
In furnace-fear when we are caught without
People or drink. Courage is no good:
It means not scaring others. Being brave
Lets no one off the grave.
Death is no different whined at than withstood.
Slowly light strengthens, and the room takes shape.
It stands plain as a wardrobe, what we know,
Have always known, know that we can’t escape,
Yet can’t accept. One side will have to go.
Meanwhile telephones crouch, getting ready to ring
In locked-up offices, and all the uncaring
Intricate rented world begins to rouse.
The sky is white as clay, with no sun.
Work has to be done.
Postmen like doctors go from house to house.
---Philip Larkin
2 दिसंबर 2018
15 नवंबर 2018
बात सीधी थी पर
बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
ज़रा टेढ़ी फँस गई ।
उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आये-
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गई ।
सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को खोलने के बजाय
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
क्यों कि इस करतब पर मुझे
साफ़ सुनायी दे रही थी
तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह ।
आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था –
ज़ोर ज़बरदस्ती से
बात की चूड़ी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी ।
हार कर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोंक दिया ।
ऊपर से ठीकठाक
पर अन्दर से
न तो उसमें कसाव था
न ताक़त ।
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी,
मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा –
“क्या तुमने भाषा को
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा ?”
--- कुंवर नारायण
14 नवंबर 2018
सागराने
सागराने नाविका मनी संकट मोठे पेरले,
वादळाने होडीस एका दशदिशांनी घेरले
शीड तुटले, खीळ तुटले, कथा काय या वल्ह्याची,
नाविकास ही फिकीर नव्हती, पुढे राहिल्या पल्ल्याची...
नशीब नव्हते पाठीशी, नव्हता अनुभव गाठीशी
उभा ठाकला एकटाच, युद्ध होते वादळाच्या वय वर्षे साठीशी
स्वबळी विश्वास मोठा, त्यास तोड कर्तुत्वही
रौद्र वादळ शांत झाहले, पागळले शत्रुत्वही.
एकवटला धीर हा, कोठूनी येतो त्या क्षणी,
शत बाहूंचे बळ येते, जव मातृत्व तरळते मनी.
The Sea bore an array of perils
A mighty storm ambushed the lone sailor
The sail snapped, the nails unhooked
The sailor persisted, unfazed by what lay ahead
Luckless, the knots of skill turned loose
He stood there alone, the storm slapped its noose
A life lived in benevolence will not let faith wither
He overcame fear and the storm lulled into slither
Courage of the universe, regathers in a single moment
A hundred arm’s strength regains, as the memory of mother returns
--- Ravindra Ghanshyam Deshpande
-किल्ला (मराठी चित्रपट)
वादळाने होडीस एका दशदिशांनी घेरले
शीड तुटले, खीळ तुटले, कथा काय या वल्ह्याची,
नाविकास ही फिकीर नव्हती, पुढे राहिल्या पल्ल्याची...
नशीब नव्हते पाठीशी, नव्हता अनुभव गाठीशी
उभा ठाकला एकटाच, युद्ध होते वादळाच्या वय वर्षे साठीशी
स्वबळी विश्वास मोठा, त्यास तोड कर्तुत्वही
रौद्र वादळ शांत झाहले, पागळले शत्रुत्वही.
एकवटला धीर हा, कोठूनी येतो त्या क्षणी,
शत बाहूंचे बळ येते, जव मातृत्व तरळते मनी.
The Sea bore an array of perils
A mighty storm ambushed the lone sailor
The sail snapped, the nails unhooked
The sailor persisted, unfazed by what lay ahead
Luckless, the knots of skill turned loose
He stood there alone, the storm slapped its noose
A life lived in benevolence will not let faith wither
He overcame fear and the storm lulled into slither
Courage of the universe, regathers in a single moment
A hundred arm’s strength regains, as the memory of mother returns
--- Ravindra Ghanshyam Deshpande
-किल्ला (मराठी चित्रपट)
9 नवंबर 2018
22 अक्टूबर 2018
अत्याचारी के प्रमाण
अत्याचारी के निर्दोष होने के कई प्रमाण हैं
उसके नाखून या दाँत लम्बे नहीं हैं
आँखें लाल नहीं रहतीं
बल्कि वह मुस्कराता रहता है
अक्सर अपने घर आमंत्रित करता है
और हमारी ओर अपना कोमल हाथ बढ़ाता है
उसे घोर आश्चर्य है कि लोग उससे डरते हैं
अत्याचारी के घर पुरानी तलवारें और बन्दूकें
सिर्फ़ सजावट के लिए रखी हुई हैं
उसका तहख़ाना एक प्यारी सी जगह है
जहाँ श्रेष्ठ कलाकृतियों के आसपास तैरते
उम्दा संगीत के बीच
जो सुरक्षा महसूस होती है वह बाहर कहीं नहीं है
अत्याचारी इन दिनों ख़ूब लोकप्रिय है
कई मरे हुए लोग भी उसके घर आते जाते हैं
--- मंगलेश डबराल
उसके नाखून या दाँत लम्बे नहीं हैं
आँखें लाल नहीं रहतीं
बल्कि वह मुस्कराता रहता है
अक्सर अपने घर आमंत्रित करता है
और हमारी ओर अपना कोमल हाथ बढ़ाता है
उसे घोर आश्चर्य है कि लोग उससे डरते हैं
अत्याचारी के घर पुरानी तलवारें और बन्दूकें
सिर्फ़ सजावट के लिए रखी हुई हैं
उसका तहख़ाना एक प्यारी सी जगह है
जहाँ श्रेष्ठ कलाकृतियों के आसपास तैरते
उम्दा संगीत के बीच
जो सुरक्षा महसूस होती है वह बाहर कहीं नहीं है
अत्याचारी इन दिनों ख़ूब लोकप्रिय है
कई मरे हुए लोग भी उसके घर आते जाते हैं
--- मंगलेश डबराल
16 अक्टूबर 2018
भात दे हरामी
बेहद भूखा हूँ
पेट में , शरीर की पूरी परिधि में
महसूसता हूँ हर पल ,सब कुछ निगल जाने वाली एक भूख .
बिना बरसात के ज्यों चैत की फसलों वाली खेतों मे जल उठती है भयानक आग
ठीक वैसी ही आग से जलता है पूरा शरीर .
महज दो वक़्त दो मुट्ठी भात मिले , बस और कोई मांग नहीं है मेरी .
लोग तो न जाने क्या क्या मांग लेते हैं . वैसे सभी मांगते है
मकान गाड़ी , रूपए पैसे , कुछेक मे प्रसिद्धि का लोभ भी है
पर मेरी तो बस एक छोटी सी मांग है , भूख से जला जाता है पेट का प्रांतर
भात चाहिए , यह मेरी सीधी सरल सी मांग है , ठंडा हो या गरम
महीन हो या खासा मोटा या राशन मे मिलने वाले लाल चावल का बना भात ,
कोई शिकायत नहीं होगी मुझे ,एक मिटटी का सकोरा भरा भात चाहिये मुझे .
में तो नहीं चाहता नाभि के नीचे साड़ी बाधने वाली साड़ी की मालिकिन को
उसे जो चाहते है ले जाएँ , जिसे मर्ज़ी उसे दे दो .
ये जान लो कि मुझे इन सब की कोई जरुरत नहीं
पर अगर पूरी न कर सको मेरी इत्ती सी मांग
तुम्हारे पूरे मुल्क मे बवाल मच जायेगा ,
भूखे के पास नहीं होता है कुछ भला बुरा , कायदे कानून
सामने जो कुछ मिलेगा खा जाऊँगा बिना किसी रोक टोक के
बचेगा कुछ भी नहीं , सब कुछ स्वाहा हो जायेगा निवालों के साथ
और मान लो गर पड़ जाओ तुम मेरे सामने
राक्षसी भूख के लिए परम स्वादिष्ट भोज्य बन जाओगे तुम .
सब कुछ निगल लेने वाली महज़ भात की भूख
खतरनाक नतीजो को साथ लेकर आने को न्योतती है
दृश्य से द्रष्टा तक की प्रवहमानता को चट कर जाती है .
और अंत मे सिलसिलेवार मैं खाऊंगा पेड़ पौधें , नदी नालें
गाँव देहात , फुटपाथ, गंदे नाली का बहाव
सड़क पर चलते राहगीरों , नितम्बिनी नारियों
झंडा ऊंचा किये खाद्य मंत्री और मंत्री की गाड़ी
आज मेरी भूक के सामने कुछ भी न खाने लायक नहीं
भात दे हरामी , वर्ना मैं चबा जाऊँगा समूचा मानचित्र
---रफीक आज़ाद
Translated by Haider Rizvi
पेट में , शरीर की पूरी परिधि में
महसूसता हूँ हर पल ,सब कुछ निगल जाने वाली एक भूख .
बिना बरसात के ज्यों चैत की फसलों वाली खेतों मे जल उठती है भयानक आग
ठीक वैसी ही आग से जलता है पूरा शरीर .
महज दो वक़्त दो मुट्ठी भात मिले , बस और कोई मांग नहीं है मेरी .
लोग तो न जाने क्या क्या मांग लेते हैं . वैसे सभी मांगते है
मकान गाड़ी , रूपए पैसे , कुछेक मे प्रसिद्धि का लोभ भी है
पर मेरी तो बस एक छोटी सी मांग है , भूख से जला जाता है पेट का प्रांतर
भात चाहिए , यह मेरी सीधी सरल सी मांग है , ठंडा हो या गरम
महीन हो या खासा मोटा या राशन मे मिलने वाले लाल चावल का बना भात ,
कोई शिकायत नहीं होगी मुझे ,एक मिटटी का सकोरा भरा भात चाहिये मुझे .
में तो नहीं चाहता नाभि के नीचे साड़ी बाधने वाली साड़ी की मालिकिन को
उसे जो चाहते है ले जाएँ , जिसे मर्ज़ी उसे दे दो .
ये जान लो कि मुझे इन सब की कोई जरुरत नहीं
पर अगर पूरी न कर सको मेरी इत्ती सी मांग
तुम्हारे पूरे मुल्क मे बवाल मच जायेगा ,
भूखे के पास नहीं होता है कुछ भला बुरा , कायदे कानून
सामने जो कुछ मिलेगा खा जाऊँगा बिना किसी रोक टोक के
बचेगा कुछ भी नहीं , सब कुछ स्वाहा हो जायेगा निवालों के साथ
और मान लो गर पड़ जाओ तुम मेरे सामने
राक्षसी भूख के लिए परम स्वादिष्ट भोज्य बन जाओगे तुम .
सब कुछ निगल लेने वाली महज़ भात की भूख
खतरनाक नतीजो को साथ लेकर आने को न्योतती है
दृश्य से द्रष्टा तक की प्रवहमानता को चट कर जाती है .
और अंत मे सिलसिलेवार मैं खाऊंगा पेड़ पौधें , नदी नालें
गाँव देहात , फुटपाथ, गंदे नाली का बहाव
सड़क पर चलते राहगीरों , नितम्बिनी नारियों
झंडा ऊंचा किये खाद्य मंत्री और मंत्री की गाड़ी
आज मेरी भूक के सामने कुछ भी न खाने लायक नहीं
भात दे हरामी , वर्ना मैं चबा जाऊँगा समूचा मानचित्र
---रफीक आज़ाद
Translated by Haider Rizvi
27 सितंबर 2018
How Do You Tackle Your Work?
How do you tackle your work each day?
Are you scared of the job you find?
Do you grapple the task that comes your way
With a confident, easy mind?
Do you stand right up to the work ahead
Or fearfully pause to view it?
Do you start to toil with a sense of dread?
Or feel that you're going to do it?
You can do as much as you think you can,
But you'll never accomplish more;
If you're afraid of yourself, young man,
There's little for you in store.
For failure comes from the inside first,
It's there if we only knew it,
And you can win, though you face the worst,
If you feel that you're going to do it.
Success! It's found in the soul of you,
And not in the realm of luck!
The world will furnish the work to do,
But you must provide the pluck.
You can do whatever you think you can,
It's all in the way you view it.
It's all in the start you make, young man:
You must feel that you're going to do it.
How do you tackle your work each day?
With confidence clear, or dread?
What to yourself do you stop and say
When a new task lies ahead?
What is the thought that is in your mind?
Is fear ever running through it?
If so, just tackle the next you find
By thinking you're going to do it.
--- Edgar Albert Guest
Are you scared of the job you find?
Do you grapple the task that comes your way
With a confident, easy mind?
Do you stand right up to the work ahead
Or fearfully pause to view it?
Do you start to toil with a sense of dread?
Or feel that you're going to do it?
You can do as much as you think you can,
But you'll never accomplish more;
If you're afraid of yourself, young man,
There's little for you in store.
For failure comes from the inside first,
It's there if we only knew it,
And you can win, though you face the worst,
If you feel that you're going to do it.
Success! It's found in the soul of you,
And not in the realm of luck!
The world will furnish the work to do,
But you must provide the pluck.
You can do whatever you think you can,
It's all in the way you view it.
It's all in the start you make, young man:
You must feel that you're going to do it.
How do you tackle your work each day?
With confidence clear, or dread?
What to yourself do you stop and say
When a new task lies ahead?
What is the thought that is in your mind?
Is fear ever running through it?
If so, just tackle the next you find
By thinking you're going to do it.
--- Edgar Albert Guest
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