10 मई 2021

My Poem Will Not Save You

Remember the toddler lying face down
on the sand, and the waves gently receding
from his body as if a forgotten dream?

My poem will not turn him onto his back
and lift him up
to his feet
so he can run
into a familiar lap
like before.
I am sorry
my poem will not
block the shells
when they fall
onto a sleeping town,
will not stop the buildings
from collapsing
around their residents,
will not pick up the broken-leg flower
from under the shrapnel,
will not raise the dead.

My poem will not defuse
the bomb
in the public square.
It will soon explode
where the girl insists
that her father buy her gum.

My poem will not rush them
to leave the place
and ride the car
that will just miss the explosion.
Many mistakes in life
will not be corrected by my poem.
Questions will not be answered.
I am sorry
my poem will not save you.

My poem cannot return
all of your losses,
not even some of them,
and those who went far away
my poem won’t know how to bring them back
to their lovers.
I am sorry.
I don’t know why the birds
sing
during their crossings
over our ruins.

Their songs will not save us,
although, in the chilliest times,
they keep us warm,
and when we need to touch the soul
to know it’s not dead
their songs
give us that touch.

--- Dunya Mikhail

3 मई 2021

हस्‍तक्षेप

कोई छींकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की शांति
भंग न हो जाए,
मगध को बनाए रखना है, तो,
मगध में शांति
रहनी ही चाहिए

मगध है, तो शांति है

कोई चीखता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की व्‍यवस्‍था में
दखल न पड़ जाए
मगध में व्‍यवस्‍था रहनी ही चाहिए

मगध में न रही
तो कहाँ रहेगी?
क्‍या कहेंगे लोग?

लोगों का क्‍या?
लोग तो यह भी कहते हैं
मगध अब कहने को मगध है,

रहने को नहीं

कोई टोकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध में
टोकने का रिवाज न बन जाए

एक बार शुरू होने पर
कहीं नहीं रूकता हस्‍तक्षेप-

वैसे तो मगध निवासिओं
कितना भी कतराओ
तुम बच नहीं सकते हस्‍तक्षेप से-

जब कोई नहीं करता
तब नगर के बीच से गुज़रता हुआ
मुर्दा
यह प्रश्‍न कर हस्‍तक्षेप करता है-
मनुष्‍य क्‍यों मरता है?

---श्रीकांत वर्मा

1 मई 2021

मजदूर हैं हम

मजदूर हैं हम
और मानते हैं कि तुमसे थोड़ा अलग है
तुम्हारे जिस्म लहू और हड्डियों से बने हैं
हमारे सीमेंट और गिट्टियों से,
तुम मां की कोख से जन्म लेते हो
हम कारखाने की भट्ठियों से,
हम खदानों का कोयला है
तुम तिजोरी का सोना
तुम्हें पूरी दुनिया चाहिए
हमें सिर्फ एक कोना
बहुत मुश्किल है
तुम्हारा और हमारा एक साथ होना

ये बराबरी का दौर है
यहां किसी को छोटा कहते अच्छा नहीं लगता
पर तुम्हें कहे भी तो क्या कहें?
तुम बेचारे महंगे मर्तबानो के मारे
अपनी प्यास के लिए मिट्टी के प्याले नहीं कमा पाए
जिंदगी भर दौड़ते रहे और हमारी तरह पैरों के छाले नहीं कमा पाए
स्क्वैर-फिट्स के बाशिंदों कभी जमीन बिछाकर सोए हो क्या?
ब्रेक्सिट पर आंसू बहाने वालों कभी भरत मिलाप देख कर रोए हो क्या?
तुम्हारे जख्म मरहमों के मोहताज हैं
और हमें चोट लग जाए तो धूप के फरिश्ते आकर अपनी उंगलियों का सेक देते हैं
तुम्हारे पास दुखों के वो हीरे कहां?
जो हमारे बच्चे खेल के फेक देते हैं

तुम जुगनूओं के जागीरदार
हम तड़पता हुआ आफ़ताब हैं
तुम नक्शों पे खींची तंग दिल हकीकत
हम नई दुनिया का दरिया दिल ख़्वाब है
तुम सिर्फ जिंदाबाद हो,
हम इंकलाब हैं
यानी तुम बहुत मामूली हो,
हम बहुत नायाब हैं

इसलिए आज हम अपनी गलती कुबूल करते हैं
हमने मांगने से पहले देने वाले का बौनापन नहीं देखा
हमारी मेहनतों का कद तुम्हारी इमारतों से बड़ा है
तुम हमें क्या दोगे?
तुम्हारी एक-एक ईंट पे हमारे पसीने का उधार चढ़ा है
तुम हमें क्या दोगे?
21वीं सदी में महाशक्ति बनने का तुम्हारा सपना, हमारे पैरों पर खड़ा है
तुम हमें क्या दोगे?
हम देते हैं तुम्हे, ये वचन की आज तुम्हें छोड़कर जा रहे हैं
पर वापस लौट के आएंगे,
तुम्हारी ये कायनात जो उजड़ गई है,
इसे फिर बसाएगे
जिंदगी का मलबा देखकर आंसू मत बहाओ,
हम ईश्वर के हाथ हैं
तुम्हारे लिए एक नई दुनिया बनाएंगे।

---मनोज मुंतशिर

24 अप्रैल 2021

The Art Of Poetry

To gaze at a river made of time and water
And remember Time is another river.
To know we stray like a river
and our faces vanish like water.

To feel that waking is another dream
that dreams of not dreaming and that the death
we fear in our bones is the death
that every night we call a dream.

To see in every day and year a symbol
of all the days of man and his years,
and convert the outrage of the years
into a music, a sound, and a symbol.

To see in death a dream, in the sunset
a golden sadness--such is poetry,
humble and immortal, poetry,
returning, like dawn and the sunset.

Sometimes at evening there's a face
that sees us from the deeps of a mirror.
Art must be that sort of mirror,
disclosing to each of us his face.

They say Ulysses, wearied of wonders,
wept with love on seeing Ithaca,
humble and green. Art is that Ithaca,
a green eternity, not wonders.

Art is endless like a river flowing,
passing, yet remaining, a mirror to the same
inconstant Heraclitus, who is the same
and yet another, like the river flowing.

--- Jorge Luis Borges

21 अप्रैल 2021

ठाकुर का कुआँ

चूल्‍हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का ।

भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का ।

बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फ़सल ठाकुर की ।

कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्‍ले ठाकुर के
फिर अपना क्‍या ?
गाँव ?
शहर ?
देश ?

--- ओमप्रकाश वाल्‍मीकि (नवम्बर, 1981)

14 अप्रैल 2021

गीत फरोश

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ।
जी, माल देखिए, दाम बताऊँगा,
बेकाम नहीं हैं, काम बताऊँगा,
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने,
यह गीत सख्त सर-दर्द भुलाएगा,
यह गीत पिया को पास बुलाएगा।

जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको,
पर बाद-बाद में अक्ल जगी मुझको,
जी, लोगों ने तो बेच दिए ईमान,
जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान–
मैं सोच समझ कर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ,
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ।

यह गीत सुबह का है, गा कर देखें,
यह गीत गज़ब का है, ढा कर देखें,
यह गीत ज़रा सूने में लिक्खा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिक्खा था,
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है,
यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है।

यह गीत भूख और प्यास भगाता है,
जी, यह मसान में भूख जगाता है,
यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर,
यह गीत तपेदिक की है दवा है हुजूर,
जी, और गीत भी हैं दिखलाता हूँ,
जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ।

जी, छंद और बेछंद पसंद करें,
जी अमर गीत और वे जो तुरत मरें!
ना, बुरा मानने की इसमें बात,
मैं ले आता हूँ, कलम और दवात,
इनमें से भाये नहीं, नये लिख दूँ,
जी, नए चाहिए नहीं, गए लिख दूँ,
मैं नए, पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ,
जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ।

मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ।
जी, गीत जनम का लिखूँ मरण का लिखूँ,
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ,
यह गीत रेशमी है, यह खादी का,
यह गीत पित्त का है, यह बादी का,
कुछ और डिजाइन भी हैं, यह इलमी,
यह लीजे चलती चीज़, नई फ़िल्मी,
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत,
यह दुकान से घर जाने का गीत।

जी नहीं, दिल्लगी की इसमें क्या बात,
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात,
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,
जी, रूठ-रूठ कर मन जाते हैं गीत!
जी, बहुत ढेर लग गया, हटाता हूँ,
गाहक की मर्ज़ी, अच्छा जाता हूँ,
या भीतर जाकर पूछ आइए आप,
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप,
क्या करूँ मगर लाचार
हार कर गीत बेचता हूँ।

जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ।

भवानी प्रसाद मिश्र

10 अप्रैल 2021

उत्तर आधुनिक आलोचक

जब मैंने भूख को भूख कहा
प्यार को प्यार कहा
तो उन्हें बुरा लगा

जब मैंने
पक्षी को पक्षी कहा
आकाश को आकाश कहा
वृक्ष को वृक्ष
और शब्द को शब्द कहा
तो उन्हें बुरा लगा

परन्तु जब मैंने
कविता के स्थान पर
अकविता लिखी
औरत को
सिर्फ़ योनि बताया
रोटी के टुकड़े को
चांद लिखा
स्याह रंग को
लिखा गुलाबी
काले कव्वे को
लिखा मुर्गाबी

तो वे बोले-
वाह ! भई वाह !!
क्या कविता है
भई वाह !!

---अमरजीत कौंके