25 अप्रैल 2025

ना नर में कोई राम बचा

ना नर में कोई राम बचा,
नारी में ना कोई सीता है !
ना धरा बचाने के खातिर,
विष कोई शंकर पीता है !!

ना श्रीकृष्ण सा धर्म-अधर्म का,
किसी में ज्ञान बचा है!
ना हरिश्चंद्र सा सत्य,
किसी के अंदर रचा बसा है !!

न गौतम बुद्ध सा धैर्य बचा,
न नानक जी सा परम त्याग !
बस नाच रही है नर के भीतर
प्रतिशोध की कुटिल आग !!

फिर बोलो की उस स्वर्णिम युग का,
क्या अंश बाकि तुम में !
कि किसकी धुनी में रम कर फुले नहीं समाते हो,
तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…

तुम भीष्म पितामह की भांति,
अपने ही जिद पर अड़े रहे !
तुम शकुनि के षणयंत्रो से, घृणित रहे, तुम दंग रहे,
तुम कर्ण के जैसे भी होकर, दुर्योधन दल के संग रहे !!

एक दुर्योधन फिर,
सत्ता के लिए युद्ध में जाता है !
कुछ धर्मांधो के अन्दर फिर
थोड़ा धर्म जगाता है !!

फिर धर्म की चिलम में नफ़रत की
चिंगारी से आग लगाकर!
चरस की धुँआ फुक-फुक कर, मतवाले होते जाते है,
तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…

--- शुभम शाम

 

20 अप्रैल 2025

15 बेहतरीन शेर - 15 !!!

1. क़रार दिल को सदा जिस के नाम से आया, वो आया भी तो किसी और काम से आया - ज़माल एहसानी

2. किस सलीक़े से मता-ए-होश हम खोते रहे, गर्द चेहरे पर जमी थी आइना धोते रहे - असर फ़ैज़ाबादी

3. वो इंतिक़ाम की आतिश थी मेरे सीने में, मिला न कोई तो ख़ुद को पछाड़ आया हूँ - जमाल एहसानी

4. तितलियाँ यूँ ही नहीं बैठ रही हैं तुम पर, बारहा तुमको भी फूलों में गिना जाता है - नासिर खान नासिर

5. जो देखता हूँ वही बोलने का आदी हूँ, मैं अपने शहर का सब से बड़ा फ़सादी हूँ - अज्ञात

6. सेंक देता था जो जाड़े में ग़रीबों के बदन, आज उस सूरज को इक दीवार उठ कर खा गई - नज़ीर बनारसी

7. उस शहर में कितने चेहरे थे कुछ याद नहीं सब भूल गए, इक शख़्स किताबों जैसा था वो शख़्स ज़बानी याद हुआ - नोशी गिलानी

8. हमारी बेबसी शहरों की दीवारों पे चिपकी है, हमें ढूँडेगी कल दुनिया पुराने इश्तिहारों में ~ अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

9. मैं दोस्ती में हर एक बढ़ता हाथ चूमता हूँ, बस शर्त ये हैं कि बन्दा नमक हराम न हो - राकिब मुख़्तार 

10. अब नहीं कोई बात ख़तरे की, अब सभी को सभी से ख़तरा है। - जौन एलिया

11. नुक्स निकालते हैं लोग कुछ इस कदर हम में , जैसे उन्हें खुदा चाहिए था और हम इंसान मिल गए। - अज्ञात

12. उम्मीदें इंसान से लगा कर शिकवा खुदा से करते हो, तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो... - अज्ञात

13. रियाज़ मौत है इस शर्त से हमें मंज़ूर, ज़मीं सताये ना मरने पे आसमान की तरह - रियाज़ ख़ैराबादी

14. ऐ दिल! न अक़ीदा है दवा पर, न दुआ पर कम-बख़्त तुझे छोड़ दिया हम ने ख़ुदा पर...!!! - सफ़ी औरंगाबादी

15. ज़ाहिद का दिल न ख़ातिर-ए-मय-ख़्वार तोड़िए, सौ बार तौबा कीजिए, सौ बार तोड़िए...!!! - जिगर मुरादाबादी

15 अप्रैल 2025

एक कविता पढ़ रहा था

एक कविता पढ़ रहा था
लम्बी न थी
शब्दों को सोचता हुआ
मन जाने कहाँ-कहाँ की
यात्राएँ करता रहा
आँख उठाकर देखा :
पहर बीत चला था
एक कविता और इतना समय?
अरे भोले!
एक उम्र गँवा दी थी कवि ने
इन शब्दों तक
पहुँचने के लिए

---पंकज चतुर्वेदी

9 अप्रैल 2025

प्रासादों के कनकाभ शिखर

“प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
कंचन पर कभी न सोता है.
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में.

होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
मानव होता निज तप क्षीण,
सत्ता किरीट मणिमय आसन,
करते मनुष्य का तेज हरण.
नर वैभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है.

चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
नर भले बने सुमधुर कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
आताप अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नही कहला सकता,
विघ्नों को नही हिला सकता.

उड़ते जो झंझावतों में,
पीते जो वारि प्रपातो में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं.”

--- रामधारी सिंह 'दिनकर'

1 अप्रैल 2025

आराम करो

एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।

मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ -- सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।

अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।

मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।

- गोपालप्रसाद व्यास

25 मार्च 2025

15 बेहतरीन शेर - 14 !!!

1-तमाम उम्र ख़ुशी की तलाश में गुज़री, तमाम उम्र तरसते रहे ख़ुशी के लिए - अबुल मुजाहिद ज़ाहिद

2- पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है, जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है - मीर तक़ी मीर

3- नए दौर के नए ख़्वाब हैं नए मौसमों के गुलाब हैं, ये मोहब्बतों के चराग़ हैं इन्हें नफ़रतों की हवा न दे- बशीर बद्र

4-जो लोग मौत को ज़ालिम क़रार देते हैं, ख़ुदा मिलाए उन्हें ज़िंदगी के मारों से - नज़ीर सिद्दीक़ी

5- चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है, हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम - सरशार सैलानी

6- ये कोई क़त्ल थोड़ी है कि बात आई-गई हो, मैं और अपना नज़र-अंदाज़ होना भूल जाऊँ? - जव्वाद शेख़

7- अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल, हम वो नहीं कि जिन को ज़माना बना गया - जिगर मुरादाबादी

8- मैंने गिनती सिखाई थी जिसको, वो पहाड़ा पढ़ा रहा है मुझे। ~ फ़हमी बदायूँनी

9- मिले खाक में नौजवां कैसे कैसे, ज़मीं खा गई आसमां कैसे कैसे - प्रेम धवन

10- उस की बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सिर पर , ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ...!!! - अकबर इलाहाबादी

11- साहिल के सुकूँ से किसे इंकार है लेकिन, तूफ़ान से लड़ने में मज़ा और ही कुछ है - आल-ए-अहमद सुरूर

12- लोग कहते हैं बदलता है ज़माना सब को, मर्द वो हैं जो ज़माने को बदल देते हैं - अकबर इलाहाबादी

13-देख ज़िंदाँ से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार, रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख - मजरूह सुल्तानपुरी

14- इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के - मिर्ज़ा ग़ालिब

15- सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें, आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत - बशीर बद्र

20 मार्च 2025

The Language School

I

The charges might as well be read out
in Chinese, Bantu or Dravidian

or not be read at all – they drift, they loop
like light that cannot turn a corner

or soundwaves that bend in and out
of some fidelity to the original. To whom

do they cling? Another dumbstruck boy
who does not speak the English they speak

or even hear it – all nape and haircut, sat
folded up in a Jesuit clasp

with hands in his armpits, perusing
with a sort of thick-lipped composure

the platypus-nose of his left trainer, as if it had
evolved out of kilter with the rest.

II

No is the blank, the zero, the lumpy zilch,
the bijou fuck-all the question solicits

and wishes-for: the litany, the plural of no.
It is the answer the question anticipates

before asking itself, surrounding no.
Do you have anything to say in your own defence?

The hiatus, the answer-in-minus scans
the many milliseconds of a second

that hang like a threat, scaring it
way up into the corner of articulation

where it ceases to exist.
Without fuss, or noise, or anything,

without changing expression or looking up
the only yes there is nods to a no.

--- Tim Liardet