The name of the author is the first to go
followed obediently by the title, the plot,
the heartbreaking conclusion, the entire novel
which suddenly becomes one you have never read, never even heard of,
as if, one by one, the memories you used to harbour
decided to retire to the southern hemisphere of the brain,
to a little fishing village where there are no phones.
Long ago you kissed the names of the nine muses goodbye
and watched the quadratic equation pack its bag,
and even now as you memorise the order of the planets,
something else is slipping away, a state flower perhaps,
the address of an uncle, the capital of Paraguay.
Whatever it is you are struggling to remember,
it is not poised on the tip of your tongue
or even lurking in some obscure corner of your spleen.
It has floated away down a dark mythological river
whose name begins with an L as far as you can recall
well on your own way to oblivion where you will join those
who have even forgotten how to swim and how to ride a bicycle.
No wonder you rise in the middle of the night
to look up the date of a famous battle in a book on war.
No wonder the moon in the window seems to have drifted
out of a love poem that you used to know by heart.
---Billy Collins
24 जुलाई 2020
21 जुलाई 2020
मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही
ज़ालिम को जो न रोके वो शामिल है ज़ुल्म में
क़ातिल को जो न टोके वो क़ातिल के साथ है
हम सर-ब-कफ़ उठे हैं कि हक़ फ़तह-याब हो
कह दो उसे जो लश्कर-ए-बातिल के साथ है
इस ढंग पर है ज़ोर तो ये ढंग ही सही
ज़ालिम की कोई ज़ात न मज़हब न कोई क़ौम
ज़ालिम के लब पे ज़िक्र भी इन का गुनाह है
फलती नहीं है शाख़-ए-सितम इस ज़मीन पर
तारीख़ जानती है ज़माना गवाह है
कुछ कोर-बातिनों की नज़र तंग ही सही
ये ज़र की जंग है न ज़मीनों की जंग है
ये जंग है बक़ा के उसूलों के वास्ते
जो ख़ून हम ने नज़्र दिया है ज़मीन को
वो ख़ून है गुलाब के फूलों के वास्ते
फूटेगी सुब्ह-ए-अम्न लहू-रंग ही सही
---साहिर लुधियानवी
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही
ज़ालिम को जो न रोके वो शामिल है ज़ुल्म में
क़ातिल को जो न टोके वो क़ातिल के साथ है
हम सर-ब-कफ़ उठे हैं कि हक़ फ़तह-याब हो
कह दो उसे जो लश्कर-ए-बातिल के साथ है
इस ढंग पर है ज़ोर तो ये ढंग ही सही
ज़ालिम की कोई ज़ात न मज़हब न कोई क़ौम
ज़ालिम के लब पे ज़िक्र भी इन का गुनाह है
फलती नहीं है शाख़-ए-सितम इस ज़मीन पर
तारीख़ जानती है ज़माना गवाह है
कुछ कोर-बातिनों की नज़र तंग ही सही
ये ज़र की जंग है न ज़मीनों की जंग है
ये जंग है बक़ा के उसूलों के वास्ते
जो ख़ून हम ने नज़्र दिया है ज़मीन को
वो ख़ून है गुलाब के फूलों के वास्ते
फूटेगी सुब्ह-ए-अम्न लहू-रंग ही सही
---साहिर लुधियानवी
20 जुलाई 2020
एक छप्पर भी नहीं है सर छिपाने के लिए
एक छप्पर भी नहीं है सर छिपाने के लिए
हम बने है दूसरों के घर बनाने के लिए
बन चुकी पूरी इमारत आपका कब्ज़ा हुआ
हम तरसते ही रहे बस आशियाने के लिए
जेब मे रखकर वो चेहरे को हमारे चल दिए
जानते है, जा रहे है फिर न आने के लिए
बिजलियाँ चमकें, गिरें, हमको नहीं परवाह अब
नींव तो रख जाएँगे हम आशियाने के लिए
उसने एक दीपक जलाया, ये भी तो कुछ कम नहीं
कुछ तो कोशिश की अन्धेरे को मिटाने के लिए
--- अश्वघोष
हम बने है दूसरों के घर बनाने के लिए
बन चुकी पूरी इमारत आपका कब्ज़ा हुआ
हम तरसते ही रहे बस आशियाने के लिए
जेब मे रखकर वो चेहरे को हमारे चल दिए
जानते है, जा रहे है फिर न आने के लिए
बिजलियाँ चमकें, गिरें, हमको नहीं परवाह अब
नींव तो रख जाएँगे हम आशियाने के लिए
उसने एक दीपक जलाया, ये भी तो कुछ कम नहीं
कुछ तो कोशिश की अन्धेरे को मिटाने के लिए
--- अश्वघोष
11 जुलाई 2020
न मेरा है न तेरा है ये हिन्दुस्तान सबका है
न मेरा है न तेरा है ये हिन्दुस्तान सबका है
नहीं समझी गई ये बात तो नुकसान सबका है
हज़ारों रास्ते खोजे गए उस तक पहुँचने के
मगर पहुँचे हुए ये कह गए भगवान सबका है
जो इसमें मिल गईं नदियाँ वे दिखलाई नहीं देतीं
महासागर बनाने में मगर एहसान सबका है
अनेकों रंग, ख़ुशबू, नस्ल के फल-फूल पौधे हैं
मगर उपवन की इज्जत-आबरू ईमान सबका है
हक़ीक़त आदमी की और झटका एक धरती का
जो लावारिस पड़ी है धूल में सामान सबका है
ज़रा से प्यार को खुशियों की हर झोली तरसती है
मुकद्दर अपना-अपना है, मगर अरमान सबका है
उदय झूठी कहानी है सभी राजा और रानी की
जिसे हम वक़्त कहते हैं वही सुल्तान सबका है
---उदय प्रताप सिंह
नहीं समझी गई ये बात तो नुकसान सबका है
हज़ारों रास्ते खोजे गए उस तक पहुँचने के
मगर पहुँचे हुए ये कह गए भगवान सबका है
जो इसमें मिल गईं नदियाँ वे दिखलाई नहीं देतीं
महासागर बनाने में मगर एहसान सबका है
अनेकों रंग, ख़ुशबू, नस्ल के फल-फूल पौधे हैं
मगर उपवन की इज्जत-आबरू ईमान सबका है
हक़ीक़त आदमी की और झटका एक धरती का
जो लावारिस पड़ी है धूल में सामान सबका है
ज़रा से प्यार को खुशियों की हर झोली तरसती है
मुकद्दर अपना-अपना है, मगर अरमान सबका है
उदय झूठी कहानी है सभी राजा और रानी की
जिसे हम वक़्त कहते हैं वही सुल्तान सबका है
---उदय प्रताप सिंह
7 जुलाई 2020
This Be The Verse
They fuck you up, your mum and dad.
They may not mean to, but they do.
They fill you with the faults they had
And add some extra, just for you.
But they were fucked up in their turn
By fools in old-style hats and coats,
Who half the time were soppy-stern
And half at one another’s throats.
Man hands on misery to man.
It deepens like a coastal shelf.
Get out as early as you can,
And don’t have any kids yourself.
---Philip Larkin
They may not mean to, but they do.
They fill you with the faults they had
And add some extra, just for you.
But they were fucked up in their turn
By fools in old-style hats and coats,
Who half the time were soppy-stern
And half at one another’s throats.
Man hands on misery to man.
It deepens like a coastal shelf.
Get out as early as you can,
And don’t have any kids yourself.
---Philip Larkin
3 जुलाई 2020
जागो प्यारे
उठो लाल अब आँखें खोलो,
पानी लायी हूँ मुंह धो लो।
बीती रात कमल दल फूले,
उसके ऊपर भँवरे झूले।
चिड़िया चहक उठी पेड़ों पे,
बहने लगी हवा अति सुंदर।
नभ में प्यारी लाली छाई,
धरती ने प्यारी छवि पाई।
भोर हुई सूरज उग आया,
जल में पड़ी सुनहरी छाया।
नन्ही नन्ही किरणें आई,
फूल खिले कलियाँ मुस्काई।
इतना सुंदर समय मत खोओ,
मेरे प्यारे अब मत सोओ।
---अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
पानी लायी हूँ मुंह धो लो।
बीती रात कमल दल फूले,
उसके ऊपर भँवरे झूले।
चिड़िया चहक उठी पेड़ों पे,
बहने लगी हवा अति सुंदर।
नभ में प्यारी लाली छाई,
धरती ने प्यारी छवि पाई।
भोर हुई सूरज उग आया,
जल में पड़ी सुनहरी छाया।
नन्ही नन्ही किरणें आई,
फूल खिले कलियाँ मुस्काई।
इतना सुंदर समय मत खोओ,
मेरे प्यारे अब मत सोओ।
---अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
25 जून 2020
भरोसा रखना
वॉन गॉग हर खत में
अपने भाई थियो को लिखता था
मुझ पर भरोसा रखना
एक सदी से ज़्यादा हो गए हैं
दोनों भाईयों को इस धरती से कूच किए
लेकिन धरती के कोने कोने में हजारों कटे-अधकटे हाथ आज भी
किसी न किसी थियो को लिख रहे हैं
मुझ पर भरोसा रखना...
––-सुधांशु फिरदौस
अपने भाई थियो को लिखता था
मुझ पर भरोसा रखना
एक सदी से ज़्यादा हो गए हैं
दोनों भाईयों को इस धरती से कूच किए
लेकिन धरती के कोने कोने में हजारों कटे-अधकटे हाथ आज भी
किसी न किसी थियो को लिख रहे हैं
मुझ पर भरोसा रखना...
––-सुधांशु फिरदौस
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