29 नवंबर 2024

मिलना था इत्तिफ़ाक़ बिछड़ना नसीब था

मिलना था इत्तिफ़ाक़ बिछड़ना नसीब था
वो उतनी दूर हो गया जितना क़रीब था

मैं उस को देखने को तरसती ही रह गई
जिस शख़्स की हथेली पे मेरा नसीब था

बस्ती के सारे लोग ही आतिश-परस्त थे
घर जल रहा था और समुंदर क़रीब था

मरियम कहाँ तलाश करे अपने ख़ून को
हर शख़्स के गले में निशान-ए-सलीब था

दफ़ना दिया गया मुझे चाँदी की क़ब्र में
मैं जिस को चाहती थी वो लड़का ग़रीब था

23 नवंबर 2024

हज़ारों कांटों से

हज़ारों कांटों से दामन बचा लिया मैंने,
अना को मार के सब कुछ बचा लिया मैंने!!

कहीं भी जाऊँ नज़र में हूँ इक ज़माने की,
ये कैसा ख़ुद को तमाशा बना लिया मैंने!!

अज़ीम थे ये दुआओं को उठने वाले हाथ,
न जाने कब इन्हें कासा बना लिया मैंने!!

अंधेरे बीच में आ जाते इससे पहले ही,
दिया तुम्हारे दिये से जला लिया मैंने!!

मुझे जुनून था हीरा तराशने का तो फिर,
कोई भी राह का पत्थर उठा लिया मैंने!!

जले तो हाथ मगर हाँ हवा के हमलों से,
किसी चराग़ की लौ को बचा लिया मैंने!!

17 नवंबर 2024

पत्रकारिता का सेल्फ़ीकरण

कई बार सोचता हूँ
बिलकुल सही समय पर
मर गए पत्रकारिता के पुरोधा,
नहीं रहे तिलक और गांधी,
नहीं रहे बाबूराव विष्णु पराड़कर
गणेश शंकर विद्यार्थी भी
हो गए शहीद
राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी
का भी हो गया अवसान।
आज ये ज़िंदा होते तो
खुद पर ही शर्मिन्दा होते
पत्रकारिता की झुकी कमर
और लिजलिजी काया देख कर
शोक मनाते
शायद जीते जी मर जाते
सुना है कि दिल्ली में
'सेल्फिश' पत्रकारिता अब
'सेल्फ़ी ' तक आ गयी है
हमारी खुदगर्ज़ी
हमको ही खा गयी है''

14 नवंबर 2024

ये किताबें बदलनी हैं तुम्हें!

किसान के बच्चों ने
किताब का पहला पन्ना
खोला
देर तक किताबों में ढूँढ़ा
अपने पिता को

मिस्त्री का बच्चा
ढूँढ़ता रहा
मिस्त्री किताबों में
दुनिया के सबसे बड़े महलों
मीनारों का इतिहास
पढ़ता हुआ

घस्यारिन के बच्चे
घस्यारिने ढूँढ़ते रहे
पहाड़ों के बारे में पढ़ते हुए
किताबों में

नाई की बच्ची
ढूँढ़ती रही
क़ैंची से निकलती
गौरैया-सी आवाज़ के साथ

अपने पिता को
किताबों में
सफ़ाईकर्मी
का बच्चा ढूँढ़ता रहा

एक साफ़-सुथरी बात
कि उसका पिता क्यों नहीं है किताबों में
कौन इन्हें बताए
यह दुनिया केवल
डॉक्टर, इंजीनियर, मास्टर, प्रोफ़ेसरों की है
तहसीलदार, ज़िलाधीशों की है
इसमें मजूरों, किसानों,
नाई और घस्यारिनों की कोई जगह नहीं

मेरे प्यारे बच्चो,
ये किताबें बदलनी हैं तुम्हें!

- अनिल कार्की

2 नवंबर 2024

चाँदनी की पाँच परतें

चाँदनी की पाँच परतें,
हर परत अज्ञात है ।

एक जल में,
एक थल में,
एक नीलाकाश में ।
एक आँखों में तुम्हारे झिलमिलाती,
एक मेरे बन रहे विश्वास में ।

क्या कहूँ , कैसे कहूँ.....
कितनी ज़रा सी बात है ।
चाँदनी की पाँच परतें,
हर परत अज्ञात है ।

एक जो मैं आज हूँ,
एक जो मैं हो न पाया,
एक जो मैं हो न पाऊँगा कभी भी,
एक जो होने नहीं दोगी मुझे तुम,
एक जिसकी है हमारे बीच यह अभिशप्त छाया ।

क्यों सहूँ, कब तक सहूँ....
कितना कठिन आघात है ।
चाँदनी की पाँच परतें,
हर परत अज्ञात है ।

25 अक्टूबर 2024

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा
इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जाएगा

हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा

कितनी सच्चाई से मुझ से ज़िंदगी ने कह दिया
तू नहीं मेरा तो कोई दूसरा हो जाएगा

मैं ख़ुदा का नाम ले कर पी रहा हूँ दोस्तो
ज़हर भी इस में अगर होगा दवा हो जाएगा

सब उसी के हैं हवा ख़ुशबू ज़मीन ओ आसमाँ
मैं जहाँ भी जाऊँगा उस को पता हो जाएगा

--- बशीर बद्र

15 अक्टूबर 2024

लीक पर वे चलें

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।

साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट,
कि उनमें गा रहा है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं।

शेष जो भी हैं—
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ;
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़,
हिलती क्षितिज की झालरें;
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मंडली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यंत्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के सहारे हैं।

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।

--- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना