9 जुलाई 2025

शासन सचमुच बंदरों के हाथ में है!

एक दिन बंदरों ने हथिया ली सत्ता
उंगलियों में सोने की अंगूठी ठूंस ली
सफ़ेद कलफ़दार क़मीज़ें पहनीं
सुगंधित हवाना सिगार का कश लगाया
अपने पांव में डाले चमाचम काले जूते!

हमें पता ही न चला, क्योंकि हम दूसरे कामों में व्यस्त थे
कोई अरस्तू पढ़ता रहा, तो कोई आकंठ प्यार में डूबा हुआ था
शासकों के भाषण ऊटपटांग होने लगे
गपड़-सपड़, लेकिन हमने कभी इन्हें ध्यान से सुना ही नहीं
हमें संगीत ज़्यादा पसंद था
युद्ध अधिक वहशी होने लगे
जेलख़ाने पहले से और गंदे हो गये
तब जाकर लगा कि शासन सचमुच बंदरों के हाथ में है!

- आदम ज़गायेव्स्की 

3 जुलाई 2025

पत्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसाँ पाए हैं

पत्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसाँ पाए हैं
तुम शहर-ए-मोहब्बत कहते हो हम जान बचा कर आए हैं

बुत-ख़ाना समझते हो जिस को पूछो न वहाँ क्या हालत है
हम लोग वहीं से लौटे हैं बस शुक्र करो लौट आए हैं

हम सोच रहे हैं मुद्दत से अब उम्र गुज़ारें भी तो कहाँ
सहरा में ख़ुशी के फूल नहीं शहरों में ग़मों के साए हैं

होंटों पे तबस्सुम हल्का सा आँखों में नमी सी है 'फ़ाकिर'
हम अहल-ए-मोहब्बत पर अक्सर ऐसे भी ज़माने आए हैं

--- सुदर्शन फ़ाकिर

29 जून 2025

Imaginary Conversation

You tell me to live each day
as if it were my last. This is in the kitchen
where before coffee I complain
of the day ahead—that obstacle race
of minutes and hours,
grocery stores and doctors.

But why the last? I ask. Why not
live each day as if it were the first—
all raw astonishment, Eve rubbing
her eyes awake that first morning,
the sun coming up
like an ingénue in the east?

You grind the coffee
with the small roar of a mind
trying to clear itself. I set
the table, glance out the window
where dew has baptized every
living surface.

--- Linda Pastan

From Insomnia, published by W. W. Norton. Copyright © 2015 by Linda Pastan. Used with permission of Linda Pastan in care of the Jean V. Naggar Literary Agency, Inc.

23 जून 2025

रद्दी

एकदा रेशन संपल्यावर
घरातली रद्दी विकायला काढली
तेव्हा तू हसत म्हणालीस,
तुमच्या कवितांचे कागद
यात घालू का ?
तेवढंच वजन वाढेल !

मी उत्तरलो, जे काम काळ उद्या करणार आहे
ते तू आज करू नकोस.
तुझ्या डोळ्यांत अनपेक्षित आसवं तरारली
आणि तू म्हणालीस,
मी तर नाहीच,
पण काळही ते करणार नाही

- कुसुमाग्रज

रद्दी

एक दफा, 
जब राशन खत्म हुआ था तो 
रद्दी निकाली थी घर से
 कि बेच आएँ! 
हँस के कहा था तू ने तब
कहो तुम्हारी नज़्में भी, डाल दूँ उन में? 
उन से वज़न बढ़ जाएगा।

मैंने कहा था :
"कल जो वक़्त करेगा, 
वो मत आज करो!" 
आँखे भर आई थीं तेरी ! 
और कहा थाः
"मैं तो क्या.... 
वो वक़्त भी न कर पाएगा!!"

अनुवादगुलजार

16 जून 2025

15 बेहतरीन शेर - 16 !!!

1. चराग़ों के बदले मकाँ जल रहे हैं नया है ज़माना नई रौशनी है - खुमार बाराबंकवी

2. ये अलग बात है कि ख़ामोश खड़े रहते हैं, फिर भी जो लोग बड़े हैं, वो बड़े रहते हैं ~राहत इंदौरी

3. पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला, मैं मोम हूँ उस ने मुझे छू कर नहीं देखा -बशीर बद्र

4. और क्या था बेचने के लिए, अपनी आँखों के ख़्वाब बेचे हैं। -जौन एलिया

5. फ़क़ीराना आए सदा कर चले, मियाँ ख़ुश रहो दुआ कर चले - मीर तकि मीर

6. बाग़बाँ दिल से वतन को ये दुआ देता है, मैं रहूँ या न रहूँ ये चमन आबाद रहे। - बृजनारायण चकबस्त

7. उठाओ हाथ कि दस्त-ए-दुआ बुलंद करें, हमारी उम्र का एक और दिन तमाम हुआ - अख़्तरुल ईमान

8. हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे, कहते हैं कि गालिब का है अन्दाज-ए-बयां और - मिर्ज़ा ग़ालिब

9. मैं इन दिनों हूँ ख़ुद से इतना बेख़बर, मैं बुझ चुका हूँ और मुझे पता नहीं -तहज़ीब हाफ़ी

10. वादा-ए-यार की बात न छेड़ो, ये धोखा भी खा रक्खा है. - नासिर काज़मी

11. कह दिया तू ने जो मा'सूम तो हम हैं मा'सूम, कह दिया तू ने गुनहगार गुनहगार हैं हम - फ़िराक़ गोरखपुरी

12. ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ, हम अपने शहर में होते तो घर चले जाते - उम्मीद फ़ाज़ली

13. कौन सीखा है सिर्फ बातों से सबको एक हादसा ज़रूरी है - जौन एलिया

14. रात ही रात में तमाम तय हुए उम्र के मक़ाम, हो गई ज़िंदगी की शाम अब मैं सहर को क्या करूं - हफ़ीज़ जालंधरी

15. फ़ारेहा क्या बहुत जरूरी है हर किसी शेरसाज़ को पढ़ना, मेरे ग़ुस्से के बाद भी तुमने नहीं छोड़ा मजाज़ को पढ़ना -जौन एलिया

12 जून 2025

Hummingbird

Not just how
it hung so still
in the quick of its wings,
all gem and temper
anchored in air;

not just the way
it moved from shelf
to shelf of air,
up down, here there,
without moving;

not just how it flicked
its tongue's thread
through each butter-yellow
foxglove flower
for its fix of sugar;

not just the vest's
electric emerald,
the scarf's scarlet,
not just the fury
of its berry-sized heart,

but also how the bird
would soon be found
in a tree nearby,
quiet as moss at the end
of a bare branch,

wings closed around
its sweetening being,
and then how light
might touch its throat
and make it glow,

as if it were the tip
of a cigarette
smouldering
on the lip of a world,
whose face,


in the lake's hush
and the stir of leaves,
might appear
for a moment
composed.

--- Mark Roper

8 जून 2025

न मोहब्बत न दोस्ती के लिए

न मोहब्बत न दोस्ती के लिए
वक्त रुकता नहीं किसी के लिए

दिल को अपने सज़ा न दे यूँ ही
इस ज़माने की बेरुखी के लिए

कल जवानी का हश्र क्या होगा
सोच ले आज दो घड़ी के लिए

हर कोई प्यार ढूंढता है यहाँ
अपनी तनहा सी ज़िन्दगी के लिए

वक्त के साथ साथ चलता रहे
यही बेहतर है आदमी के लिए