नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।
- मैथिलीशरण गुप्त
जीवन के लिए आवश्यक सन्देश
जवाब देंहटाएंमाँ हिंदी के जाज्वल्यमान् कवि मैथिलीशरण गुप्त जी को प्रणाम।आपकी यह कविता मेरे जैसे कही विधार्थीयो के लिए प्रेरणापुञ्ज का काम कर रही है।🙋
जवाब देंहटाएंकई कई बार हाइपोथेटिकल होने से बहुत कुछ सीखने को मिल जाता है।
जवाब देंहटाएंअक्सर हम कितने ही कपोल कल्पना करके अनायास ही भ्रम में जीने लग जाते है,
और सबसे बड़ा दुःख होता है कल्पनाओं के साकार न कर पाने पर।
इंसान एक कल्पना करता हैं फिर उसे साकार करने के लिए अथक प्रयासों में लग जाता है लेकिन यदि उन कल्पनाओं को साकार न कर पाने की स्थिति में वो अंदर ही अंदर मायूस होकर टूटता सा जाता है। अपने हर प्रयासों से कुछ सीखने के अलावा भी वो पूरे रास्ते को ही गलत ठहराने की स्थिति में हो जाता है।
कई बार दूसरों के उपहासों से भी मानव टूट सा जाता है।
सोचा जाए की अगर इंसान कोई कल्पना ही न करे तो क्या होगा??
इंसान एक सूखे पेड़ के जैसे हो जाएगा जो लंबा तो होगा लेकिन किसी को छाया न दे पायेगा।
क्योंकि कल्पना की चिंगारी ही वो ज्वाला होती है जो इंसान को उसके अंदर की आत्मशक्ति से परिचय करवाती है,
न वो अपने क्षमता को भलीभाँति परख पायेगा न वो समाज को अपना बेस्ट स्वरूप दे पायेगा।
जीवन जीने का एक और पहलू होता है की हमने आस पड़ोस समाज को क्या दिया,
हमने समाज से बहुत कुछ सीखा है, उसके बदले में हमने क्या लौटाया और क्या लौटा सकते थे।
इस ज्ञान का आत्म्बोध होने पर ही इंसान एक प्रेरणास्रोत बन सकता है जिससे की दूसरे प्रेरित हो सके।
इसलिए इंसान को चाहिए की अपनी कल्पनाओं के साकार न कर पाने की स्थिति में भी हताश न हो और अपने अच्छे कर्मों में लगा रहे।
क्योंकि मैथिलीशरण गुप्त ने यह भी कहा है,
" नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।"