अभी कल तक
गालियॉं देती तुम्हें
हताश खेतिहर,
अभी कल तक
धूल में नहाते थे
गोरैयों के झुंड,
अभी कल तक
पथराई हुई थी
धनहर खेतों की माटी,
अभी कल तक
धरती की कोख में
दुबके पेड़ थे मेंढक,
अभी कल तक
उदास और बदरंग था आसमान!
और आज
ऊपर-ही-ऊपर तन गए हैं
तम्हारे तंबू,
और आज
छमका रही है पावस रानी
बूँदा-बूँदियों की अपनी पायल,
और आज
चालू हो गई है
झींगुरो की शहनाई अविराम,
और आज
ज़ोरों से कूक पड़े
नाचते थिरकते मोर,
और आज
आ गई वापस जान
दूब की झुलसी शिराओं के अंदर,
और आज विदा हुआ चुपचाप ग्रीष्म
समेटकर अपने लाव-लश्कर।
--- नागार्जुन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें