जब लगें ज़ख्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
है यही रस्म, तो यह रस्म उठा दी जाये
तिशनगी कुछ तो बुझे तिशना-लबान-ए-गम की
एक नदी दर्द की शहरों में बहा दी जाये
दिल का वोह हाल हुआ है गम-ए-दौरान के तले
जैसे एक लाश चट्टानों में दबा दी जाये
हमने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूँढ़ लिया है
क्या बुरा है जो यह अफवाह उड़ा दी जाये
हमको गुजरी हुई सदियाँ तो न पह्चानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाये
फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लावें
शर्त यह है कि इन्हें खूब हवा दी जाये
कम नहीं नशे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाये
हमसे पूछो कि ग़ज़ल क्या है, ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ्जों में कोई आग छुपा दी जाये
--- जानिसार अख्तर
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