11 जून 2024

कविवर

मैं पहली पंक्ति लि‍खता हूँ
और डर जाता हूँ राजा के सिपाहियों से
पंक्ति को काट देता हूँ

मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूँ
और डर जाता हूँ गुरिल्‍ला बाग़ियों से
पंक्ति को काट देता हूँ

मैंने अपनी जान की ख़ातिर
अपनी हज़ारों पंक्तियों की
इस तरह हत्‍या की है

उन पंक्तियों की रूहें
अक्‍सर मेरे चारों ओर मँडराती रहती हैं
और मुझसे कहती हैं : कविवर!
कवि हो या कविता के हत्‍यारे?

सुना था इंसाफ़ करने वाले हुए कई इंसाफ़ के हत्‍यारे
धर्म के रखवाले भी सुना था कई हुए
ख़ुद धर्म की पावन आत्‍मा की
हत्‍या करने वाले

सिर्फ़ यही सुनना बाक़ी था
और यह भी सुन लिया
कि हमारे वक़्त में ख़ौफ़ के मारे
कवि भी हो गए
कविता के हत्‍यारे

~ सुरजीत पातर (अनुवाद : अनूप सेठी) 

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