2 दिसंबर 2018

Aubade

I work all day, and get half-drunk at night.
Waking at four to soundless dark, I stare.
In time the curtain-edges will grow light.
Till then I see what’s really always there:
Unresting death, a whole day nearer now,
Making all thought impossible but how
And where and when I shall myself die.
Arid interrogation: yet the dread
Of dying, and being dead,
Flashes afresh to hold and horrify.

The mind blanks at the glare. Not in remorse
—The good not done, the love not given, time
Torn off unused—nor wretchedly because
An only life can take so long to climb
Clear of its wrong beginnings, and may never;
But at the total emptiness for ever,
The sure extinction that we travel to
And shall be lost in always. Not to be here,
Not to be anywhere,
And soon; nothing more terrible, nothing more true.

This is a special way of being afraid
No trick dispels. Religion used to try,
That vast moth-eaten musical brocade
Created to pretend we never die,
And specious stuff that says No rational being
Can fear a thing it will not feel, not seeing
That this is what we fear—no sight, no sound,
No touch or taste or smell, nothing to think with,
Nothing to love or link with,
The anaesthetic from which none come round.

And so it stays just on the edge of vision,
A small unfocused blur, a standing chill
That slows each impulse down to indecision.
Most things may never happen: this one will,
And realisation of it rages out
In furnace-fear when we are caught without
People or drink. Courage is no good:
It means not scaring others. Being brave
Lets no one off the grave.
Death is no different whined at than withstood.

Slowly light strengthens, and the room takes shape.
It stands plain as a wardrobe, what we know,
Have always known, know that we can’t escape,
Yet can’t accept. One side will have to go.
Meanwhile telephones crouch, getting ready to ring
In locked-up offices, and all the uncaring
Intricate rented world begins to rouse.
The sky is white as clay, with no sun.
Work has to be done.
Postmen like doctors go from house to house.

---Philip Larkin

15 नवंबर 2018

बात सीधी थी पर


बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
ज़रा टेढ़ी फँस गई ।

उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आये-
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गई ।

सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को खोलने के बजाय
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
क्यों कि इस करतब पर मुझे
साफ़ सुनायी दे रही थी
तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह ।

आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था –
ज़ोर ज़बरदस्ती से
बात की चूड़ी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी ।

हार कर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोंक दिया ।
ऊपर से ठीकठाक
पर अन्दर से
न तो उसमें कसाव था
न ताक़त ।

बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी,
मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा –
“क्या तुमने भाषा को

सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा ?”

14 नवंबर 2018

सागराने

सागराने नाविका मनी संकट मोठे पेरले,
वादळाने होडीस एका दशदिशांनी घेरले
शीड तुटले, खीळ तुटले, कथा काय या वल्ह्याची,
नाविकास ही फिकीर नव्हती, पुढे राहिल्या पल्ल्याची...

नशीब नव्हते पाठीशी, नव्हता अनुभव गाठीशी
उभा ठाकला एकटाच, युद्ध होते वादळाच्या वय वर्षे साठीशी
स्वबळी विश्वास मोठा, त्यास तोड कर्तुत्वही
रौद्र वादळ शांत झाहले, पागळले शत्रुत्वही.

एकवटला धीर हा, कोठूनी येतो त्या क्षणी,
शत बाहूंचे बळ येते, जव मातृत्व तरळते मनी.

The Sea bore an array of perils
A mighty storm ambushed the lone sailor
The sail snapped, the nails unhooked
The sailor persisted, unfazed by what lay ahead
Luckless, the knots of skill turned loose
He stood there alone, the storm slapped its noose
A life lived in benevolence will not let faith wither
He overcame fear and the storm lulled into slither
Courage of the universe, regathers in a single moment
A hundred arm’s strength regains, as the memory of mother returns

--- Ravindra Ghanshyam Deshpande
-किल्ला (मराठी चित्रपट)

9 नवंबर 2018

अन्तर

कोई पहाड़
संगीन की नोक से बड़ा नहीं है।
और कोई आँख
छोटी नहीं है समुद्र से
यह केवल हमारी प्रतीक्षाओं का अन्तर है -
जो कभी
हमें लोहे या कभी लहरों से जोड़ता है l

---धूमिल

22 अक्टूबर 2018

अत्याचारी के प्रमाण

अत्याचारी के निर्दोष होने के कई प्रमाण हैं

उसके नाखून या दाँत लम्बे नहीं हैं
आँखें लाल नहीं रहतीं
बल्कि वह मुस्कराता रहता है
अक्सर अपने घर आमंत्रित करता है
और हमारी ओर अपना कोमल हाथ बढ़ाता है
उसे घोर आश्चर्य है कि लोग उससे डरते हैं

अत्याचारी के घर पुरानी तलवारें और बन्दूकें
सिर्फ़ सजावट के लिए रखी हुई हैं
उसका तहख़ाना एक प्यारी सी जगह है
जहाँ श्रेष्ठ कलाकृतियों के आसपास तैरते
उम्दा संगीत के बीच
जो सुरक्षा महसूस होती है वह बाहर कहीं नहीं है

अत्याचारी इन दिनों ख़ूब लोकप्रिय है
कई मरे हुए लोग भी उसके घर आते जाते हैं

--- मंगलेश डबराल

16 अक्टूबर 2018

भात दे हरामी

बेहद भूखा हूँ
पेट में , शरीर की पूरी परिधि में
महसूसता हूँ हर पल ,सब कुछ निगल जाने वाली एक भूख .
बिना बरसात के ज्यों चैत की फसलों वाली खेतों मे जल उठती है भयानक आग
ठीक वैसी ही आग से जलता है पूरा शरीर .
महज दो वक़्त दो मुट्ठी भात मिले , बस और कोई मांग नहीं है मेरी .
लोग तो न जाने क्या क्या मांग लेते हैं . वैसे सभी मांगते है
मकान गाड़ी , रूपए पैसे , कुछेक मे प्रसिद्धि का लोभ भी है
पर मेरी तो बस एक छोटी सी मांग है , भूख से जला जाता है पेट का प्रांतर
भात चाहिए , यह मेरी सीधी सरल सी मांग है , ठंडा हो या गरम
महीन हो या खासा मोटा या राशन मे मिलने वाले लाल चावल का बना भात ,
कोई शिकायत नहीं होगी मुझे ,एक मिटटी का सकोरा भरा भात चाहिये मुझे .
में तो नहीं चाहता नाभि के नीचे साड़ी बाधने वाली साड़ी की मालिकिन को
उसे जो चाहते है ले जाएँ , जिसे मर्ज़ी उसे दे दो .
ये जान लो कि मुझे इन सब की कोई जरुरत नहीं
पर अगर पूरी न कर सको मेरी इत्ती सी मांग
तुम्हारे पूरे मुल्क मे बवाल मच जायेगा ,
भूखे के पास नहीं होता है कुछ भला बुरा , कायदे कानून
सामने जो कुछ मिलेगा खा जाऊँगा बिना किसी रोक टोक के
बचेगा कुछ भी नहीं , सब कुछ स्वाहा हो जायेगा निवालों के साथ
और मान लो गर पड़ जाओ तुम मेरे सामने
राक्षसी भूख के लिए परम स्वादिष्ट भोज्य बन जाओगे तुम .
सब कुछ निगल लेने वाली महज़ भात की भूख
खतरनाक नतीजो को साथ लेकर आने को न्योतती है
दृश्य से द्रष्टा तक की प्रवहमानता को चट कर जाती है .
और अंत मे सिलसिलेवार मैं खाऊंगा पेड़ पौधें , नदी नालें
गाँव देहात , फुटपाथ, गंदे नाली का बहाव
सड़क पर चलते राहगीरों , नितम्बिनी नारियों
झंडा ऊंचा किये खाद्य मंत्री और मंत्री की गाड़ी
आज मेरी भूक के सामने कुछ भी न खाने लायक नहीं
भात दे हरामी , वर्ना मैं चबा जाऊँगा समूचा मानचित्र

---रफीक आज़ाद
Translated by Haider Rizvi

27 सितंबर 2018

How Do You Tackle Your Work?

How do you tackle your work each day?
Are you scared of the job you find?
Do you grapple the task that comes your way
With a confident, easy mind?
Do you stand right up to the work ahead
Or fearfully pause to view it?
Do you start to toil with a sense of dread?
Or feel that you're going to do it?

You can do as much as you think you can,
But you'll never accomplish more;
If you're afraid of yourself, young man,
There's little for you in store.
For failure comes from the inside first,
It's there if we only knew it,
And you can win, though you face the worst,
If you feel that you're going to do it.

Success! It's found in the soul of you,
And not in the realm of luck!
The world will furnish the work to do,
But you must provide the pluck.
You can do whatever you think you can,
It's all in the way you view it.
It's all in the start you make, young man:
You must feel that you're going to do it.

How do you tackle your work each day?
With confidence clear, or dread?
What to yourself do you stop and say
When a new task lies ahead?
What is the thought that is in your mind?
Is fear ever running through it?
If so, just tackle the next you find
By thinking you're going to do it.

--- Edgar Albert Guest

22 सितंबर 2018

पप्पू के दुल्हिन

पप्पू के दुल्हिन की चर्चा कालोनी के घर घर में,
पप्पू के दुल्हिन पप्पू के रखै अपने अंडर में
पप्पुवा इंटर फेल और दुलहिया बीए पास हौ भाई जी
औ पप्पू असू लद्धड़ नाही, एडवांस हौ भाई जी
कहे ससुर के पापा जी औ कहे सास के मम्मी जी
माई डियर कहे पप्पू के, पप्पू कहैं मुसम्मी जी

बहु सुरक्षा समीति बनउले हौ अपने कॉलोनी में
बहुतन के इ सबक सिखौले हौ अपने कॉलोनी में
औ कॉलोनी के कुल दुल्हनिया एके प्रेसिडेंट कहैली
और एकर कहना कुल मानेली एकर कहना तुरंत करैली
पप्पू के दुल्हिन के नक्शा कालोनी में हाई हौ
ढंग एकर बेढब हौ सबसे रंग एके रेक्जाई हो

औ कॉलोनी के बुढ़िया बुढ़वा दूरे से परनाम करैले
भीतरे भीतर सास डरैले भीतरे भीतर ससुर डरैले
दिन में सूट रात में मैक्सी, न घुंघटा न अँचरा जी
देख देख के हसै पड़ोसी मिसराइन औ मिसरा जी
अपने एक्को काम न छुए कुल पप्पुए से करवावैले
पप्पुओ जान गयेल हौ काहे माई डियर बोलावैले

के छूट गइल पप्पू के बीड़ी औ चौराहा छूट गइल
छूट गइल मंडली रात के ही ही हा हा छूट गइल
हरदम अप टू डेट रहैले मेकअप दोनों जून करैले
रोज बिहाने मलै चिरौंजी गाले पे निम्बुवा रगरै
पप्पू ओके का छेड़ीहै ऊ खुद छेड़ेले पप्पू के
जैइसे फेरे पान पनेरिन ऊ फेरेले पप्पू के

पप्पू के जेबा एक दिन लव लेटर ऊ पाई गइल
लव लेटर ऊ पाई गइल, पप्पू के शामत आई गइल
मुंह पर छीटा मारै उनके आधी रात जगावैले
इ लव लेटर केकर हउवे उनही से पढ़वावैले
लव लेटर के देखते पप्पुवा पहिले तो सोकताइ गइल
झपकी जैसे फिर से आइल पप्पुवा उहै गोहताई गइल


मेहर छीटा मारे फिर फिर पप्पुवा आँख न खोलत हौ
संकट में कुकरे के पिल्ला जैसे कूँ कूँ बोलत हौ
जैसे कत्तो घाव लगल हौ हाँफ़त औ कराहत हौ
इम्तहान के चिटइस चिटिया मुंह में घोंटल चाहत हौ
सहसा हँसे ठठाकर पप्पुवा फिर गुरेर के देखलस
अँधियारन में एक तीर ऊ खूब साधकर मरलस

अच्छा देखा एहर आवा बात सुना तू अइसन हउवे
लव लेटर लिखै के हमरे कॉलेज में कम्पटीसन हउवे
हमरो कहना मान मुसमिया रात आज के बीतै दे
सबसे बढ़िया लव लेटर पे पुरस्कार हौ, जीतै दे

--- कैलाश गौतम

17 सितंबर 2018

छींक

ज़िल्लेइलाही
शहंशाह-ए-हिन्दुस्तान
आफ़ताब-ए-वक़्त
हुज़ूर-ए-आला !

परवरदिगार
जहाँपनाह !

क्षमा करें मेरे पाप |

मगर ये सच है
मेरी क़िस्मत के आक़ा,
मेरे ख़ून और पसीने के क़तरे-क़तरे
के हक़दार,
ये बिल्कुल सच है

कि अभी-अभी
आपको
बिल्कुल इनसानों जैसी
छींक आयी |

--- उदय प्रकाश

7 सितंबर 2018

अव्यवस्था

देखो -
मेरे मन के ड्राअर में
तुम्हारी स्मृति के पृष्ठ,
कुछ बिखर से गये हैं !
समय के हाथों से
कुछ छितर से गये हैं !
आओ -
तनिक इन्हें सँवार दो,
तनिक सा दुलार दो,
और फिर जतन से सहेज कर -
अपने विश्वास के आलपिन में बद्ध कर,
प्यार के पेपरवेट से
तनिक सा दबा दो !

---ममता कालिया

5 सितंबर 2018

कवि

निकलता है
पानी की चिन्ता में
लौटता है लेकर समुन्दर अछोर

ठौर की तलाश में
निकलता है
लौटता है हाथों पर धारे वसुन्धरा

सब्जियाँ खरीदने
निकलता है
लौटता है लेकर भरा-पूरा चांद

अंडे लाने को
निकलता है
लौटता है कंधों पर लादे ब्रह्मांड

हत्यारी नगरी में
निकलेगा इसी तरह किसी रोज़
तो लौट नहीं पाएगा!

--राकेश रंजन

16 अगस्त 2018

व्याख्या

एक दिन कहा गया था
दुनिया की व्याख्या बहुत हो चुकी
ज़रूरत उसे बदलने की है
तब से लगातार
बदला जा रहा है
दुनिया को
बदली है अपने-आप भी
पर क्या अब यह नहीं लगता
कि और बदलने से पहले
कुछ
व्याख्या की ज़रूरत है ?

--- नेमिचंद्र जैन

15 अगस्त 2018

अधिनायक

राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरिचरना गाता है l
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चँवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है l
पूरब-पच्छिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा, उनके
तमग़े कौन लगाता है l
कौन-कौन है वह जन-गण-मन-
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज़ बजाता है l

---रघुवीर सहाय

6 अगस्त 2018

हिरोशिमा

एक दिन सहसा
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक :
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से.

छायाएँ मानव-जन की
दिशाहीन
सब ओर पड़ीं - वह सूरज
नहीं उगा था पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचो-बीच नगर के :
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टूट कर
बिखर गये हों
दसों दिशा में.

कुछ क्षण का वह उदय-अस्त !
केवल एक प्रज्वलित क्षण की
दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी.
फिर ?
छायाएँ मानव जन की
नहीं मिटीं लम्बी हो-होकर
मानव ही सब भाप हो गये.
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्थरों पर
उजड़ी सड़कों की गच पर.

मानव का रचा हुआ सूरज
मानव को भाप बना कर सोख गया.
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है.

---अज्ञेय

5 जुलाई 2018

जितने सभ्य होते हैं

जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक ।

आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक ।

जंगल का चंद्रमा
असभ्य चंद्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं

क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है ।

--- विनोद कुमार शुक्ल

4 जुलाई 2018

The New Colossus

Not like the brazen giant of Greek fame,
With conquering limbs astride from land to land;
Here at our sea-washed, sunset gates shall stand
A mighty woman with a torch, whose flame
Is the imprisoned lightning, and her name
Mother of Exiles. From her beacon-hand
Glows world-wide welcome; her mild eyes command
The air-bridged harbor that twin cities frame.
“Keep, ancient lands, your storied pomp!” cries she
With silent lips. “Give me your tired, your poor,
Your huddled masses yearning to breathe free,
The wretched refuse of your teeming shore.
Send these, the homeless, tempest-tossed to me,
I lift my lamp beside the golden door!”

---Emma Lazarus

What Father Knows

My father knows the proper way
The nation should be run;
He tells us children every day
Just what should now be done.
He knows the way to fix the trusts,
He has a simple plan;
But if the furnace needs repairs
We have to hire a man.

My father, in a day or two,
Could land big thieves in jail;
There's nothing that he cannot do,
He knows no word like "fail."
"Our confidence" he would restore,
Of that there is no doubt;
But if there is a chair to mend
We have to send it out.

All public questions that arise
He settles on the spot;
He waits not till the tumult dies,
But grabs it while its hot.
In matters of finance he can
Tell Congress what to do;
But, O, he finds it hard to meet
His bills as they fall due.

It almost makes him sick to read
The things law-makers say;
Why, father's just the man they need;
He never goes astray.
All wars he'd very quickly end,
As fast as I can write it;
But when a neighbor starts a fuss
'Tis mother has to fight it.

In conversation father can
Do many wondrous things;
He's built upon a wiser plan
Than presidents or kings.
He knows the ins and outs of each
And every deep transaction;
We look to him for theories,
But look to ma for action.

---Edgar Guest

3 जुलाई 2018

बात बोलेगी

बात बोलेगी
हम नहीं
भेद खोलेगी
बात ही l

सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या - देखें !
सत्य का रुख
समय का रुख है :
अभय जनता को
सत्य ही सुख है,
सत्य ही सुख l

दैन्य दानव ; काल
भीषण ; क्रूर
स्थिति ; कंगाल
बुद्धि ; घर मज़दूर l

सत्य का
क्या रंग ?
पूछो
एक संग l
एक - जनता का
दुःख एक l
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक l

दैन्य दानव l क्रूर स्थिति l
कंगाल बुद्धि l मजूर घर भर l
एक जनता का अमर वर l
एकता का स्वर l
- अन्यथा स्वातन्त्र्य इति l


--- शमशेरबहादुर सिंह

17 जून 2018

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता

तुम्हारी निश्चल आँखें
तारों-सी चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में
प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता
ईथर की तरह होता है
ज़रूर दिखाई देती होंगी नसीहतें
नुकीले पत्थरों-सी
दुनिया-भर के पिताओं की लम्बी कतार में
पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वाँ नम्बर है मेरा
पर बच्चों के फूलोंवाले बग़ीचे की दुनिया में
तुम अव्वल हो पहली कतार में मेरे लिए
मुझे माफ़ करना मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था
मेरी छाया के तले ही सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी तुम्हारी
अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो
मैं ख़ुश हूँ सोचकर
कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई

--- चंद्रकांत देवताले

11 मई 2018

Make the Ordinary Come Alive

Make the Ordinary Come Alive
Do not ask your children
to strive for extraordinary lives.
Such striving may seem admirable,
but it is a way of foolishness.
Help them instead to find the wonder
and the marvel of an ordinary life.
Show them the joy of tasting
tomatoes, apples, and pears.
Show them how to cry
when pets and people die.
Show them the infinite pleasure
in the touch of a hand.
And make the ordinary come alive for them.
The extraordinary will take care of itself.

--- William Martin, The Parent’s Tao Te Ching: Ancient Advice for Modern Parents.

1 मई 2018

मैं घास हूँ

मैं घास हूँ
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा
बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर
बना दो होस्‍टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
मुझे क्‍या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊंगा
बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी...
दो साल... दस साल बाद
सवारियाँ फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहाँ हरे घास का जंगल है
मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूंगा
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा।

---पाश

14 अप्रैल 2018

हम अपवित्र हैं,

हम अपवित्र हैं,
हम तुम्हें अपवित्र कर देंगे,
छू लेंगे तुम्हारे कुओं को तुम्हारे नलों को तुम्हारी बाल्टियों को हम छू देंगे,
तुम्हारे महलों को तुम्हारी दौलत को तुम्हारी हर चीज को हम अपवित्र कर देंगे,
तुम तब अपवित्र नहीं होते हो जब पीते हो उस कुएं का पानी जिसे हम खोदते हैं,
तुम तब अपवित्र नहीं होते हो
जब रहते हो उन महलों में जिन्हें हम खड़ा करते हैं,
जब खाते हो उस अन्न को जिसे हम उगाते हैं,
तुम तब भी अपवित्र नहीं होते हो जब जीते हो आराम तलब जिंदगी हमारी मेहनत की कीमत पर,
तुम तब अपवित्र हो जाते हो जब हम मांगते हैं अपना हक,
जब हम छू लेते हैं अपनी ही मेहनत की उपज को,
तुम्हारा अपवित्र हो जाना जरूरी है,
क्योंकि अपवित्रता में नहीं होते ऊंचे-नीचे छोटे बड़े,
अपवित्रता में कोई ग़ैर बराबर नहीं होता,
हम अपवित्र कर देंगे तुम्हें,
हम अपवित्र कर देंगे तुम्हारी खून से भीगी पवित्रता को,
जिस का इतिहास अन्याय दमन शोषण और गैर बराबरी का है,
हम अपवित्र कर देंगे पूरी दुनिया को,
क्योंकि अपवित्रता लाएगी बराबरी,
तब कोई गैर बराबर नहीं होगा
-अंकित साहिर
दस्तक पत्रिका से साभार संपादक सीमा आजाद