'मंच पर खड़े होकर
कुछ बेवक़ूफ़ चीख़ रहे हैं
कवि से
आशा करता है
सारा देश।
मूर्खों! देश को खोकर ही
मैंने प्राप्त की थी
यह कविता...'
Sep 5, 2024
Aug 27, 2024
15 बेहतरीन शेर - 12 !!!
1. कोठियों से मुल्क के मेआर को मत आँकिए, असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है.
3. शाम-ए-फ़िराक़ अब ना पूछ, आई और आ के टल गई |
4. शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूं , फ़रिश्तों अब तो सोने दो,
5. वही कारवाँ,वही रास्ते, वही ज़िंदगी, वही मरहले,
6. जहाँ हर सिंगार फ़ुज़ूल हों जहाँ उगते सिर्फ़ बबूल हों,
7. वो तुझ को भूलें हैं तो तुझ पे भी लाज़िम है मीर,
8. गुलशन-ए-फ़िरदौस पर क्या नाज़ है रिज़वां तुझे,
9. इस दर्जा होशियार तो पहले कभी न थे,
10. 'रातों को दिन कह रहा, दिन को कहता रात,
11. बेगुनाही जुर्म था अपना, सो इस कोशिश में हूं,
12- इलेक्शन तक गरीबों का वो हुजरा देखते हैं,
जिस शहर में मुंतज़िम अंधे हों जल्वागाह के, उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है.
- अदम गोंडवी
2. अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूं तो चलूं, अपने ग़मख़ाने में एक धूम मचा लूं तो चलूं
और एक जाम-ए-मए तल्ख़ चढ़ा लूं तो चलूं, अभी चलता हूं ज़रा ख़ुद को संभालूं तो चलूं
- मुईन अह्सन जज़्बी
2. अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूं तो चलूं, अपने ग़मख़ाने में एक धूम मचा लूं तो चलूं
और एक जाम-ए-मए तल्ख़ चढ़ा लूं तो चलूं, अभी चलता हूं ज़रा ख़ुद को संभालूं तो चलूं
- मुईन अह्सन जज़्बी
3- मुनीर' इस मुल्क पर आसेब का साया है या क्या है,
कि हरकत तेज़-तर है और सफ़र आहिस्ता आहिस्ता - मुनीर नियाज़ी
4- तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था,
उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था - हबीब जालिब
दिल था कि फिर बहल गया , जां थी कि फिर संभल गई...!!! - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
4. शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूं , फ़रिश्तों अब तो सोने दो,
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता - आहिस्ता...!!! - अमीर मीनाई
5. वही कारवाँ,वही रास्ते, वही ज़िंदगी, वही मरहले,
मगर अपने अपने मक़ाम पर, कभी तुम नहीं,कभी हम नहीं - शकील बदायूनी
6. जहाँ हर सिंगार फ़ुज़ूल हों जहाँ उगते सिर्फ़ बबूल हों,
जहाँ ज़र्द रंग हो घास का वहाँ क्यूँ न शक हो बहार पर ~ विकास शर्मा राज़
7. वो तुझ को भूलें हैं तो तुझ पे भी लाज़िम है मीर,
ख़ाक डाल. आग लगा. नाम न ले. याद न कर ! - मीर तक़ी मीर
8. गुलशन-ए-फ़िरदौस पर क्या नाज़ है रिज़वां तुझे,
पूछ उस के दिल से जो है रुत्बा-दान-ए-लखनऊ ! - नज़्म तबातबाई
9. इस दर्जा होशियार तो पहले कभी न थे,
अब क्यों क़दम क़दम पे संभलने लगे हैं हम ! - वाली आसी
10. 'रातों को दिन कह रहा, दिन को कहता रात,
जितना ऊँचा आदमी, उतनी नीची बात।' - अंसार कम्बरी
11. बेगुनाही जुर्म था अपना, सो इस कोशिश में हूं,
सुर्ख़-रू मैं भी रहूं, क़ातिल भी शर्मिंदा न हो ! - सुरूर बाराबंकवी
12- इलेक्शन तक गरीबों का वो हुजरा देखते हैं,
हुकूमत मिल गई तो सिर्फ "मुजरा" देखते हैं। ~उस्मान मीनाई
13- है अजीब शहर की ज़िंदगी न सफ़र रहा न क़याम है,
कहीं कारोबार सी दोपहर कहीं बद-मिज़ाज सी शाम है ~ बशीर बद्र
14- हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए,
बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए - अकबर इलाहाबादी
15- जो मैं सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा,
तिरा दिल तो है सनम-आश्ना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में - अल्लामा इक़बाल
Aug 23, 2024
एक चंबेली के मंडवे तले
एक चंबेली के मंडवे तले
मैकदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर
दो बदन
प्यार की आग में जल गए
प्यार हर्फ़ ए वफ़ा प्यार उनका ख़ुदा
प्यार उनकी चिता
दो बदन
ओस में भीगते, चाँदनी में नहाते हुए
जैसे दो ताज़ा रु ओ ताज़ा दम फूल पिछले पहर
ठंडी ठंडी सुबक-रव चमन की हवा
सर्फ़ ए मातम हुई
काली काली लटों से लिपट गर्म रुख़सार पर
एक पल के लिए रुक गई
हमने देखा उन्हें
दिन और रात में
नूर ओ ज़ुल्मात में
मस्जिदों के मीनारों ने देखा उन्हें
मंदिरों की किवाड़ों ने देखा उन्हें
मयकदे की दरारों ने देखा उन्हें
अज़ अज़ल ता अबद
ये बता चारगर
तेरीज़ंबील में
नुस्ख़ा ए कीमिया ए मोहब्बत भी है
कुछ इलाज ओ मदावा ए उल्फ़त भी है?
एक चंबेली के मंडवे तले
दो बदन।
मैकदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर
दो बदन
प्यार की आग में जल गए
प्यार हर्फ़ ए वफ़ा प्यार उनका ख़ुदा
प्यार उनकी चिता
दो बदन
ओस में भीगते, चाँदनी में नहाते हुए
जैसे दो ताज़ा रु ओ ताज़ा दम फूल पिछले पहर
ठंडी ठंडी सुबक-रव चमन की हवा
सर्फ़ ए मातम हुई
काली काली लटों से लिपट गर्म रुख़सार पर
एक पल के लिए रुक गई
हमने देखा उन्हें
दिन और रात में
नूर ओ ज़ुल्मात में
मस्जिदों के मीनारों ने देखा उन्हें
मंदिरों की किवाड़ों ने देखा उन्हें
मयकदे की दरारों ने देखा उन्हें
अज़ अज़ल ता अबद
ये बता चारगर
तेरीज़ंबील में
नुस्ख़ा ए कीमिया ए मोहब्बत भी है
कुछ इलाज ओ मदावा ए उल्फ़त भी है?
एक चंबेली के मंडवे तले
दो बदन।
यह कहानी जमी़ल गुलरेज़ द्वारा साझा की गई है। उन्होंने एक संस्मरण सुनाया कि एक बार वे अपने कैंपस में खुशी-खुशी एक फ़िल्मी गाना गा रहे थे, तभी उनके टीचर जाफ़री साहब ने उनसे अचानक पूछ लिया, "मियाँ, इल्म है, ये नज़्म मख़्दूम ने क्यूँ कही थी?" जब उन्होंने अनभिज्ञता जताई, तब जाफ़री साहब ने बताया कि हैदराबाद में जब एक नौजवान लड़के और एक नौजवान लड़की को, अलग-अलग मजहब के होने के बावजूद, आपस में शादी करने की वजह से ज़िंदा जला दिया गया था, तब मख़्दूम मोइनुद्दीन ने इस ज़ुल्म और त्रासदी पर शोक मनाने और अपना विरोध जताने के लिए यह नज़्म लिखी थी।(स्रोत: जमी़ल गुलरायस, Founder- Katha Kathan, @gulrayys, ट्विटर पोस्ट, 1 जून 2023)
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