1 अप्रैल 2021

उल्लू हौ

तुम चाहत हौ भाईचारा?
उल्लू हौ।
देखै लाग्यौ दिनै मा तारा?
उल्लू हौ।
समय कै समझौ यार इशारा
उल्लू हौ,
तुमहू मारौ हाथ करारा
उल्लू हौ।
जवान बीवी छोड़ के दुबई भागत हौ?
जैसे तैसे करौ गुजारा
उल्लू हौ।
कहत रहेन ना फँसौ प्यार के चक्कर मा
झुराय के होइ गयेव छोहारा
उल्लू हौ।
डिगिरी लैके बेटा दर दर भटकौ ना,
हवा भरौ बेँचौ गुब्बारा
उल्लू हौ।
इनका उनका रफीक का गोहरावत हौ?
जब उ चहिहैं मिले किनारा
उल्लू हौ

--- रफ़ीक शादानी

23 मार्च 2021

अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गांव में

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के

कह रही है झोपडी औ’ पूछते हैं खेत भी,
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के

बिन लड़े कुछ भी यहाँ मिलता नहीं ये जानकर,
अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के

कफ़न बाँधे हैं सिरों पर हाथ में तलवार है,
ढूँढने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गाँव के

हर रुकावट चीख़ती है ठोकरों की मार से,
बेडि़याँ खनका रहे हैं लोग मेरे गाँव के

दे रहे हैं देख लो अब वो सदा-ए-इंक़लाब,
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के

एकता से बल मिला है झोपड़ी की साँस को,
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के

तेलंगाना जी उठेगा देश के हर गाँव में,
अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गाँव में

देख ‘बल्ली’ जो सुबह फीकी दिखे है आजकल,
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के

---बल्ली सिंह चीमा

15 मार्च 2021

"Estadio Chile", or "Somos Cinco Mil"

There are five thousand of us herein this small part of the city.
We are five thousand.
I wonder how many we are in all
in the cities and in the whole country?
Here alone
are ten thousand hands which plant seeds
and make the factories run.
How much humanity
exposed to hunger, cold, panic, pain,
moral pressure, terror and insanity?
Six of us were lost
as if into starry space.
One dead, another beaten as I could never have believed
a human being could be beaten.
The other four wanted to end their terror
one jumping into nothingness,
another beating his head against a wall,
but all with the fixed stare of death.
What horror the face of fascism creates!
They carry out their plans with knife-like precision.
Nothing matters to them.
To them, blood equals medals,
slaughter is an act of heroism.
Oh God, is this the world that you created,
for this your seven days of wonder and work?
Within these four walls only a number exists
which does not progress,
which slowly will wish more and more for death.
But suddenly my conscience awakes
and I see that this tide has no heartbeat,
only the pulse of machines
and the military showing their midwives' faces
full of sweetness.
Let Mexico, Cuba and the world
cry out against this atrocity!
We are ten thousand hands
which can produce nothing.
How many of us in the whole country?
The blood of our President, our compañero,
will strike with more strength than bombs and machine guns!
So will our fist strike again!

How hard it is to sing
when I must sing of horror.
Horror which I am living,
horror which I am dying.
To see myself among so much
and so many moments of infinity
in which silence and screams
are the end of my song.
What I see, I have never seen
What I have felt and what I feel
Will give birth to the momentÂ…

8 मार्च 2021

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़ल्ब-ए-माहौल में लर्ज़ां शरर-ए-जंग हैं आज
हौसले वक़्त के और ज़ीस्त के यक-रंग हैं आज
आबगीनों में तपाँ वलवला-ए-संग हैं आज
हुस्न और इश्क़ हम-आवाज़ ओ हम-आहंग हैं आज

जिस में जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

तेरे क़दमों में है फ़िरदौस-ए-तमद्दुन की बहार
तेरी नज़रों पे है तहज़ीब ओ तरक़्क़ी का मदार
तेरी आग़ोश है गहवारा-ए-नफ़्स-ओ-किरदार
ता-ब-कै गिर्द तिरे वहम ओ तअ'य्युन का हिसार

कौंद कर मज्लिस-ए-ख़ल्वत से निकलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

तू कि बे-जान खिलौनों से बहल जाती है
तपती साँसों की हरारत से पिघल जाती है
पाँव जिस राह में रखती है फिसल जाती है
बन के सीमाब हर इक ज़र्फ़ में ढल जाती है

ज़ीस्त के आहनी साँचे में भी ढलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

ज़िंदगी जेहद में है सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू काँपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है निकहत ख़म-ए-गेसू में नहीं
जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं

उस की आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

गोशे गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिए
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए

रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शो'ले भी हैं बस अश्क-फ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं

अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

तोड़ कर रस्म का बुत बंद-ए-क़दामत से निकल
ज़ोफ़-ए-इशरत से निकल वहम-ए-नज़ाकत से निकल
नफ़्स के खींचे हुए हल्क़ा-ए-अज़्मत से निकल
क़ैद बन जाए मोहब्बत तो मोहब्बत से निकल

राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

तोड़ ये अज़्म-शिकन दग़दग़ा-ए-पंद भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वो सौगंद भी तोड़
तौक़ ये भी है ज़मुर्रद का गुलू-बंद भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मर्दान-ए-ख़िरद-मंद भी तोड़

बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

तू फ़लातून ओ अरस्तू है तू ज़हरा परवीं
तेरे क़ब्ज़े में है गर्दूं तिरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर से जबीं
मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं

लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि सँभलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

---कैफ़ी आज़मी

1 मार्च 2021

मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा


मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।। टेक।।

आसन मारि मंदिर में बैठे, नाम छाड़ि पूजन लागे पथरा।। 1।। 

कनवां फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा।। 2।।

जंगल जाय जोगी धुनिया रमौले, काम जराय जोगी होइ गैलै हिजरा।। 3।। 

मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ा रंगौले, गीता बाँचि के होइ गैले लबरा।। 4।। 

कहहि कबीर सुनो भाई साधो, जम दरबजवाँ बाँधल जैवे पकरा।। 5।। 

23 फ़रवरी 2021

पुल बन गया था

 मैं जिन लोगों के लिए

पुल बन गया था 

वे जब मुझ पर से 

गुज़र कर जा रहे थे

मैंने सुना—मेरे बारे में कह रहे थे :

वह कहाँ छूट गया 

चुप-सा आदमी?

शायद पीछे लौट गया है!

हमें पहले ही ख़बर थी

उसमें दम नहीं है।

--- सुरजीत पातर  

पंजाबी से अनुवाद : चमनलाल


20 फ़रवरी 2021

10-Year-Old Shot Three Times, but She’s Fine

Dumbfounded in hospital whites, you are picture-book
itty-bit, floundering in bleach and steel. Braids untwirl
and corkscrew, you squirm, the crater in your shoulder
spews a soft voltage. On a TV screwed into the wall
above your head, neon rollicks. A wide-eyed train
engine perfectly smokes, warbles a song about forward.

Who shot you, baby?
I don’t know. I was playing.
You didn’t see anyone?
I was playing with my friend Sharon.
I was on the swing
and she was—
Are you sure you didn’t—
No, I ain’t seen nobody but Sharon. I heard
people yelling though, and—

Each bullet repainted you against the brick, kicked
you a little sideways, made you need air differently.
You leaked something that still goldens the boulevard.
I ain’t seen nobody, I told you.
And at A. Lincoln Elementary on Washington Street,
or Jefferson Elementary on Madison Street, or Adams
Elementary just off the Eisenhower Expressway,
we gather the ingredients, if not the desire, for pathos:

an imploded homeroom, your empty seat pulsating
with drooped celebrity, the sometime counselor
underpaid and elsewhere, a harried teacher struggling
toward your full name. Anyway your grades weren’t
all that good. No need to coo or encircle anything,
no call for anyone to pull their official white fingers
through your raveled hair, no reason to introduce
the wild notion of loving you loud and regardless.

Oh, and they’ve finally located your mama, who
will soon burst in with her cut-rate cure of stammering
Jesus’ name. Beneath the bandages, your chest crawls
shut. Perky ol’ Thomas winks a bold-faced lie from
his clacking track, and your heart monitor hums
a wry tune no one will admit they’ve already heard.

Elsewhere, 23 seconds rumble again and again through
Sharon’s body. Boom, boom, she says to no one.

14 फ़रवरी 2021

Ode to the flute

A man sings
by opening his
mouth a man
sings by opening
his lungs by
turning himself into air
a flute can
be made of a man
nothing is explained
a flute lays
on its side
and prays a wind
might enter it
and make of it
at least
a small final song

3 फ़रवरी 2021

Strange Fruits

Southern trees bear a strange fruit
Blood on the leaves and blood at the root
Black bodies swingin' in the Southern breeze
Strange fruit hangin' from the poplar trees

Pastoral scene of the gallant South
The bulgin' eyes and the twisted mouth
Scent of magnolias sweet and fresh
Then the sudden smell of burnin' flesh

Here is a fruit for the crows to pluck
For the rain to gather, for the wind to suck
For the sun to rot, for the tree to drop
Here is a strange and bitter crop

1 फ़रवरी 2021

My Mother’s Fault

You marched with other seven-year-old girls,
Singing songs of freedom at dawn in rural Gujarat,
Believing that would shame the British and they would leave India. 

Five years later, they did. You smiled, 
When you first saw Maqbool Fida Husain’s nude sketches of Hindu goddesses, 
And laughed, 
When I told you that some people wanted to burn his art. 
‘Have those people seen any of our ancient sculptures? Those are far naughtier,’ You said.

Your voice broke, On December 6, 1992, 
As you called me at my office in Singapore, 
When they destroyed the Babri Masjid. 
‘We have just killed Gandhi again,’ you said. 
We had. Aavu te karaay koi divas (Can anyone do such a thing any time?) 

You asked, aghast, Staring at the television, 
As Hindu mobs went, house-to-house, 
Looking for Muslims to kill, 
After a train compartment in Godhra burned, 
Killing 58 Hindus in February 2002. 
You were right, each time. 

After reading what I’ve been writing over the years, 
Some folks have complained that I just don’t get it. 
I live abroad: what do I know of India? 
But I knew you; that was enough. 
And that’s why I turned out this way. 

30 जनवरी 2021

आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे

आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अन्धकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती

होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न -भिन्न हो पाएँगे

तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चीं, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे

पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएँगे

यह रक्तपात यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते पर
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है

सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी
हम याद रखेंगे, पार उसे कर जाएँगे

मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है

आए हैं जब चलकर इतने लाख बरस
इसके आगे भी चलते ही जाएँगे

आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे

---वीरेन डंगवाल

26 जनवरी 2021

छोड़ो कल की बातें (हम हिन्दुस्तानी 1961)


छोडो कल की बातें कल की बात पुरानी
नए दौर में लिखेंगे मिल कर नयी कहानी
हम हिन्दुस्तानी, हम हिन्दुस्तानी…
आज पुरानी जंजीरों को तोड़ चुके है
क्या देखे उस मंजिल को जो छोड़ चुके है
चाँद के दर पे जा पंहुचा है आज ज़माना
नए जगत से हम भी नाता जोड़ चुके है
नया खून है नयी उमंगें अब है नयी जवानी

हमको कितने ताजमहल है और बनाने
कितने ही अजन्ता है, हमको और सजाने
अभी पलटना है रुख कितने दरियाओ का
कितने पर्वत राहो से है आज हटाने
आओ मेहनत को अपना इमान बनाये
अपने हाथों से अपना भगवान बनाये
राम की इस धरती को, गौतम की इस भूमि को
सपनो से भी प्यारा हिंदुस्तान बनाये
नया खून है नयी उमंगें अब है नयी जवानी

दाग गुलामी का धोया है जान लुटा के…
दीप जलाये है कितने दीप बुझा के…
मिली है आज़ादी तो, इस आज़ादी को…
रखना होगा हर दुश्मन से आज बचा के…

हर जर्रा है मोती आँख उठाकर देखो
मिटटी में है सोना हाथ बढाकर देखो
सोने की ये गंगा है, चाँदी की जमुना
चाहो तो पत्थर पे धान उगाकर के देखो

नए दौर में लिखेंगे मिल कर नयी कहानी…

--- प्रेम धवन

22 जनवरी 2021

The Hill We Climb


When day comes we ask ourselves,
where can we find light in this never-ending shade?
The loss we carry,
a sea we must wade

We’ve braved the belly of the beast
We’ve learned that quiet isn’t always peace
And the norms and notions
of what just is

Isn’t always just-ice
And yet the dawn is ours
before we knew it
Somehow we do it

Somehow we’ve weathered and witnessed
a nation that isn’t broken
but simply unfinished
We the successors of a country and a time
Where a skinny Black girl
descended from slaves and raised by a single mother
can dream of becoming president
only to find herself reciting for one
And yes we are far from polished
far from pristine
but that doesn’t mean we are
striving to form a union that is perfect
We are striving to forge a union with purpose
To compose a country committed to all cultures, colors, characters and
conditions of man
And so we lift our gazes not to what stands between us
but what stands before us
We close the divide because we know, to put our future first,
we must first put our differences aside
We lay down our arms
so we can reach out our arms
to one another
We seek harm to none and harmony for all
Let the globe, if nothing else, say this is true:
That even as we grieved, we grew
That even as we hurt, we hoped
That even as we tired, we tried
That we’ll forever be tied together, victorious
Not because we will never again know defeat
but because we will never again sow division
Scripture tells us to envision
that everyone shall sit under their own vine and fig tree
And no one shall make them afraid
If we’re to live up to our own time
Then victory won’t lie in the blade
But in all the bridges we’ve made
That is the promise to glade
The hill we climb
If only we dare
It’s because being American is more than a pride we inherit,
it’s the past we step into
and how we repair it
We’ve seen a force that would shatter our nation
rather than share it
Would destroy our country if it meant delaying democracy
And this effort very nearly succeeded
But while democracy can be periodically delayed
it can never be permanently defeated
In this truth
in this faith we trust
For while we have our eyes on the future
history has its eyes on us
This is the era of just redemption
We feared at its inception
We did not feel prepared to be the heirs
of such a terrifying hour
but within it we found the power
to author a new chapter
To offer hope and laughter to ourselves
So while once we asked,
how could we possibly prevail over catastrophe?
Now we assert
How could catastrophe possibly prevail over us?
We will not march back to what was
but move to what shall be
A country that is bruised but whole,
benevolent but bold,
fierce and free
We will not be turned around
or interrupted by intimidation
because we know our inaction and inertia
will be the inheritance of the next generation
Our blunders become their burdens
But one thing is certain:
If we merge mercy with might,
and might with right,
then love becomes our legacy
and change our children’s birthright
So let us leave behind a country
better than the one we were left with
Every breath from my bronze-pounded chest,
we will raise this wounded world into a wondrous one
We will rise from the gold-limbed hills of the west,
we will rise from the windswept northeast
where our forefathers first realized revolution
We will rise from the lake-rimmed cities of the midwestern states,
we will rise from the sunbaked south
We will rebuild, reconcile and recover
and every known nook of our nation and
every corner called our country,
our people diverse and beautiful will emerge,
battered and beautiful
When day comes we step out of the shade,
aflame and unafraid
The new dawn blooms as we free it
For there is always light,
if only we’re brave enough to see it
If only we’re brave enough to be it

21 जनवरी 2021

A Man Doesn't Have Time In His Life

A man doesn't have time in his life
to have time for everything.
He doesn't have seasons enough to have
a season for every purpose. Ecclesiastes
Was wrong about that.

A man needs to love and to hate at the same moment,
to laugh and cry with the same eyes,
with the same hands to throw stones and to gather them,
to make love in war and war in love.
And to hate and forgive and remember and forget,
to arrange and confuse, to eat and to digest
what history
takes years and years to do.

A man doesn't have time.
When he loses he seeks, when he finds
he forgets, when he forgets he loves, when he loves
he begins to forget.

And his soul is seasoned, his soul
is very professional.
Only his body remains forever
an amateur. It tries and it misses,
gets muddled, doesn't learn a thing,
drunk and blind in its pleasures
and its pains.

He will die as figs die in autumn,
Shriveled and full of himself and sweet,
the leaves growing dry on the ground,
the bare branches pointing to the place
where there's time for everything.

--- Yehuda Amichai (Note: From "The Selected Poetry of Yehuda Amichai", translations by ChanaBloch and Stephen Mitchell)

20 जनवरी 2021

A Worker Reads History

Who built the seven gates of Thebes?
The books are filled with names of kings.
Was it the kings who hauled the craggy blocks of stone?
And Babylon, so many times destroyed.
Who built the city up each time? In which of Lima's houses,
That city glittering with gold, lived those who built it?
In the evening when the Chinese wall was finished
Where did the masons go? Imperial Rome
Is full of arcs of triumph. Who reared them up? Over whom
Did the Caesars triumph? Byzantium lives in song.
Were all her dwellings palaces? And even in Atlantis of the legend
The night the seas rushed in,
The drowning men still bellowed for their slaves.

Young Alexander conquered India.
He alone?
Caesar beat the Gauls.
Was there not even a cook in his army?
Phillip of Spain wept as his fleet
was sunk and destroyed. Were there no other tears?
Frederick the Greek triumphed in the Seven Years War.
Who triumphed with him?

Each page a victory
At whose expense the victory ball?
Every ten years a great man,
Who paid the piper?

So many particulars.
So many questions.

--- Bertolt Brecht

14 जनवरी 2021

Bitter Cold

There is bitter cold 
At the borders of the city Of indifference. 
Wizened women and men 
And children below their teens 
Lie the frozen nights 
On bare tarmac, 
Surviving by the fire in their hearts, 
And the justice of their cause. 

A glow of truth from their being 
Warms the air and shames the 
Winter of crude impertinence, 
Even as their human bodies may 
Succumb to the December hell.

 Carrying the nursing warmth 
Of the soil in their bones, 
India’s farmers outface the urban 
Cold and show how the real freeze 
Lies in the swollen skull of authority 
Whose hollow cruelty may be stern 
Without human content, but whose 
Pride of office screams for pity. 

 This is truly a new beauty born 
That gathers histories 
Of courage and faith
 In the sounding of the people’s horn 
That may never be stilled 
Either by Nature’s extremes 
Or the flimsy robes worn By Pharaohs of the day. 
Yet again, the ploughshare shows the way. 

13 जनवरी 2021

गीत है यह, गिला नही

 'आये भी वो गये भी वो' 'गीत है यह, गिला नहीं।'

हमने ये कब कहा भला, हमसे कोई मिला नहीं।

आपके एक ख़याल में मिलते रहे हम आपसे

ये भी है एक सिलसिला गो कोई सिलसिला नहीं।

गर्मे-सफर हैं आप, तो हम भी हैं भीड़ में कहीं।

अपना भी काफ़िला है कुछ आप ही का काफ़िला नहीं।

दर्द को पूछते थे वो, मेरी हँसी थमी नहीं,

दिल को टटोलते थे वो, मेरा जिगर हिला नहीं।

आयी बहार हुस्‍न का खाबे-गराँ लिये हुए,

मेरे चमन को क्‍या हुआ, जो कोई गुल खिला नहीं।

उसने किये बहत जतन, हार के कह उठी नज़र,

सीना-ए-चाक का रफू हमसे कभी सिला नहीं।

इश्‍क़ का शायर है ख़ाक, हुस्‍न का जिक्र है मज़ाक़

दर्द में गर चमक नहीं, रूह में गर जिला नहीं।

कौन उठाये उसके नाज, दिल तो उसी के पास है;

'शम्‍स' मजे में हैं कि हम इश्‍क में मुब्तिला नहीं।

---  शमशेर बहादुर सिंह

2 जनवरी 2021

In Flanders Fields

In Flanders fields the poppies blow
Between the crosses, row on row,
That mark our place; and in the sky
The larks, still bravely singing, fly
Scarce heard amid the guns below.

We are the dead. Short days ago
We lived, felt dawn, saw sunset glow,
Loved, and were loved, and now we lie
In Flanders fields.

Take up our quarrel with the foe:
To you from failing hands we throw
The torch; be yours to hold it high.
If ye break faith with us who die
We shall not sleep, though poppies grow
In Flanders fields.

---John McCrae

25 दिसंबर 2020

In Praise of Coldness

"If you wish to move your reader,"
Chekhov said, "you must write more coldly."

Herakleitos recommended, "A dry soul is best."

And so at the center of many great works
is found a preserving dispassion,
like the vanishing point of quattrocentro perspective,
or tiny packets of desiccant enclosed
in a box of new shoes or seeds.

But still the vanishing point
is not the painting,
the silica is not the blossoming plant.

Chekhov, dying, read the timetables of trains.
To what more earthly thing could he have been faithful?—
Scent of rocking distances,
smoke of blue trees out the window,
hampers of bread, pickled cabbage, boiled meat.

Scent of a knowable journey.

Neither a person entirely broken
nor one entirely whole can speak.

In sorrow, pretend to be fearless. In happiness, tremble.

--- Jane Hirschfield

23 दिसंबर 2020

No Road Back Home

In this forgotten place I have no lover’s touch
Each night brings darker dreams, I have no amulet
My life is all I ask, I have no other thirst
These silent thoughts torment, I have no way to hope

Who I once was, what I’ve become, I cannot know
Who could I tell my heart’s desires, I cannot say
My love, the temper of the fates I cannot guess
I long to go to you, I have no strength to move

Through cracks and crevices I’ve watched the seasons change
For news of you I’ve looked in vain to buds and flowers
To the marrow of my bones I’ve ached to be with you
What road led here, why do I have no road back home

---Abduqadir Jalalidin (a detained Uighur poet, bears witness to the suffering of Uighurs detained in Chinese so-called “reeducation” camps) 

20 दिसंबर 2020

Onion

The smoothness of onions infuriates him
so like the skin of women or their expensive clothes
and the striptease of onions, which is also a disappearing act.
He says he is searching for the ultimate nakedness
but when he finds that thin green seed
that negligible sprout of a heart
we could have told him he'd be disappointed.
Meanwhile the onion has been hacked to bits
and he's weeping in the kitchen most unromantic tears.

--- Katha Pollitt

18 दिसंबर 2020

आठ मिनट छियालीस सेकंड


दो मिनट नहीं
आठ मिनट छियालीस सेकंड का
मौन रखा गया अमेरिका में
जॉर्ज फ़्लॉयड की स्मृति-सभा में

गोरा पुलिस अफ़सर
आठ मिनट छियालीस सेकंड
अपने घुटने से
जॉर्ज फ़्लॉयड के
गले को दबाता रहा
जब तक कि उनकी जान
नहीं चली गयी
और वह कहते रहे :
"मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ"

किसी मज़लूम की याद में
महज़ दो मिनट का
मौन मत रखो
इस रस्म को बदलो

कोई तो रिश्ता हो
तुम्हारे सुलूक का
मृतक के अपमान
और यातना से

---पंकज चतुर्वेदी

10 दिसंबर 2020

Let them not say

Let them not say: we did not see it.
We saw.

Let them not say: we did not hear it.
We heard.

Let them not say: they did not taste it.
We ate, we trembled.

Let them not say: it was not spoken, not written.

We spoke,
we witnessed with voices and hands.
Let them not say: they did nothing.
We did not-enough.

Let them say, as they must say something:

A kerosene beauty.
It burned.

Let them say we warmed ourselves by it,
read by its light, praised,
and it burned.

---Jane Hirshfield


6 दिसंबर 2020

अगर रोज कर्फ्यू के दिन हों

अगर रोज कर्फ्यू के दिन हों
तो कोई अपनी मौत नहीं मरेगा
कोई किसी को मार देगा
पर मैं स्वाभाविक मौत मरने तक
जिन्दा रहना चाहता हूँ
दूसरों के मारने तक नहीं
और रोज की तरह
अपना शहर रोज घूमना चाहता हूँ।

शहर घूमना मेरी आदत है ऐसी
आदत कि कर्फ्यू के दिन भी
किसी तरह दरवाजे खटखटा कर
सबके हालचाल पूछूँ

हो सकता है हत्यारे का दरवाजा भी खटखटाऊँ
अगर वह हिन्दू हुआ तो
अपनी जान हिन्दू कह कर न बचाऊँ
मुसलमान कहूँ
अगर मुसलमान हुआ तो
अपनी जान मुसलमान कह कर न बचाऊँ
हिन्दू कहूँ

हो सकता है इसके बाद
भी मेरी जान बच जाये
तो मैं दूसरों के मारने तक नहीं
अपने मरने तक जिन्दा रहूँ।

-- विनोद कुमार शुक्ल

3 दिसंबर 2020

Where Are the War Poets?

They who in folly or mere greed
Enslaved religion, markets, laws,
Borrow our language now and bid
Us to speak up in freedom’s cause.

It is the logic of our times,
No subject for immortal verse—
That we who lived by honest dreams
Defend the bad against the worse.

--- Cecil Day-Lewis

29 नवंबर 2020

“In Jerusalem”

In Jerusalem, and I mean within the ancient walls,
I walk from one epoch to another without a memory
to guide me. The prophets over there are sharing
the history of the holy ... ascending to heaven
and returning less discouraged and melancholy, because love
and peace are holy and are coming to town.

I was walking down a slope and thinking to myself: How
do the narrators disagree over what light said about a stone?
Is it from a dimly lit stone that wars flare up?
I walk in my sleep. I stare in my sleep. I see
no one behind me. I see no one ahead of me.
All this light is for me. I walk. I become lighter. I fly

then I become another. Transfigured. Words
sprout like grass from Isaiah’s messenger
mouth: “If you don’t believe you won’t be safe.”
I walk as if I were another. And my wound a white
biblical rose. And my hands like two doves
on the cross hovering and carrying the earth.

I don’t walk, I fly, I become another,
transfigured. No place and no time. So who am I?
I am no I in ascension’s presence. But I
think to myself: Alone, the prophet Muhammad
spoke classical Arabic. “And then what?”
Then what? A woman soldier shouted:

Is that you again? Didn’t I kill you?
I said: You killed me ... and I forgot, like you, to die.

--- Mahmoud Darwish

27 नवंबर 2020

जितना चिल्लात है उतना चोटान थोड़े है

तू जेतना समझत हौ ओतना महान थोड़े है
ख़ान तो लिखत हैं लेकिन पठान थोड़े है

मार-मार के हमसे बयान करवाईस
ईमानदारी से हमरा बयान थोड़े है

देखो आबादी मा तो चीन का पिछाड़ दिहिस
हमरे देस का किसान मरियल थोड़े है

हम ई मानित है मोहब्बत में चोट खाईस है
जितना चिल्लात है ओतना चोटान थोड़े है

ऊ छत पे खेल रही फुलझड़ी पटाखा से
हमरे छप्पर के ओर उनका ध्यान थोड़े है

चुनाव आवा तब देख परे नेताजी
तोहरे वादे का जनता भुलान थोड़े है

"रफ़ीक" मेकप औ' मेंहदी के ई कमाल है सब
तू जेतना समझत हौ ओतनी जवान थोड़े है.

--- रफ़ीक शादानी

19 नवंबर 2020

संविधान

यह पुस्‍तक मर चुकी है
इसे मत पढ़ो
इसके लफ्जों में मौत की ठण्‍डक है
और एक-एक पन्‍ना
जिंदगी के अंतिम पल जैसा भयानक
यह पुस्‍तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु
और जब मैं जागा
तो मेरे इंसान बनने तक
ये पुस्‍तक मर चुकी थी
अब अगर इस पुस्‍तक को पढ़ोगे
तो पशु बन जाओगे
सोये हुए पशु।

---पाश

18 नवंबर 2020

Title Song from Bharat Ek Khoj

सृष्टी से पहले सत् नहीं था
असत् भी नहीं 
अन्तरिक्ष भी नहीं 
आकाश भी नहीं था 
छिपा था क्या? 
कहाँ? 
किसने ढका था? 
उस पल तो अगम अतल जल भी कहाँ था? ।।१।। 

नहीं थी मृत्यू
थी अमरता भी नहीं
नहीं था दिन 
रात भी नहीं
हवा भी नहीं 
साँस थी स्वयमेव फिर भी 
नही था कोई कुछ भी
परमतत्त्व से अलग या परे भी ।।२।। 

अंधेरे में अंधेरा-मुँदा अँधेरा था
जल भी केवल निराकार जल था
परमतत्त्व था सृजन-कामना से भरा 
ओछे जल से घिरा 
वही अपनी तपस्या की महिमा से उभरा ।।३।। 

परम मन में बीज पहला जो उगा 
काम बनकर वह जगा 
कवियों ग्यानियों ने जाना 
असत् और सत् का निकट संबंध पहचाना ।।४।। 

फैले संबंध के किरण धागे तिरछे 
परमतत्त्व उस पल ऊपर या नीचे? 
वह था बँटा हुआ 
पुरुष और स्त्री बना हुआ 
ऊपर दाता वही भोक्ता 
नीचे वसुधा स्वधा हो गया ।।५।। 

सृष्टी यह बनी कैसे? 
किससे? 
आई है कहाँ से? 
कोई क्या जानता है? 
बता सकता है? 
देवताओं को नहीं ग्यात
 वे आए सृजन के बाद 
सृष्टी को रचां है जिसने 
उसको जाना किसने? ।।६।। 

सृष्टी का कौन है कर्ता? 
कर्ता है वा अकर्ता? 
ऊँचे आकाश में रहता 
सदा अध्यक्ष बना रहता 
वही सचमुच में जानता 
या नहीं भी जानता है 
किसी को नहीं पता 
नहीं पता नहीं है पता ।।७।।

14 नवंबर 2020

Kids Who Die

This is for the kids who die,
Black and white,
For kids will die certainly.
The old and rich will live on awhile,
As always,
Eating blood and gold,
Letting kids die.

Kids will die in the swamps of Mississippi
Organizing sharecroppers
Kids will die in the streets of Chicago
Organizing workers
Kids will die in the orange groves of California
Telling others to get together
Whites and Filipinos,
Negroes and Mexicans,
All kinds of kids will die
Who don’t believe in lies, and bribes, and contentment
And a lousy peace.

Of course, the wise and the learned
Who pen editorials in the papers,
And the gentlemen with Dr. in front of their names
White and black,
Who make surveys and write books
Will live on weaving words to smother the kids who die,
And the sleazy courts,
And the bribe-reaching police,
And the blood-loving generals,
And the money-loving preachers
Will all raise their hands against the kids who die,
Beating them with laws and clubs and bayonets and bullets
To frighten the people—
For the kids who die are like iron in the blood of the people—
And the old and rich don’t want the people
To taste the iron of the kids who die,
Don’t want the people to get wise to their own power,
To believe an Angelo Herndon, or even get together
Listen, kids who die—
Maybe, now, there will be no monument for you
Except in our hearts
Maybe your bodies’ll be lost in a swamp
Or a prison grave, or the potter’s field,
Or the rivers where you’re drowned like Leibknecht
But the day will come—
Your are sure yourselves that it is coming—
When the marching feet of the masses
Will raise for you a living monument of love,
And joy, and laughter,
And black hands and white hands clasped as one,
And a song that reaches the sky—
The song of the life triumphant
Through the kids who die.