Jan 30, 2014

जब लगें ज़ख्म...

जब लगें ज़ख्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
है यही रस्म, तो यह रस्म उठा दी जाये

तिशनगी कुछ तो बुझे तिशना-लबान-ए-गम की
एक नदी दर्द की शहरों में बहा दी जाये

दिल का वोह हाल हुआ है गम-ए-दौरान के तले
जैसे एक लाश चट्टानों में दबा दी जाये

हमने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूँढ़ लिया है
क्या बुरा है जो यह अफवाह उड़ा दी जाये

हमको गुजरी हुई सदियाँ तो न पह्चानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाये

फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लावें
शर्त यह है कि इन्हें खूब हवा दी जाये

कम नहीं नशे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाये

हमसे पूछो कि ग़ज़ल क्या है, ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ्जों में कोई आग छुपा दी जाये

--- जानिसार अख्तर

Jan 25, 2014

Grass

Pile the bodies high at Austerlitz and Waterloo.
Shovel them under and let me work—
I am the grass; I cover all.

And pile them high at Gettysburg
And pile them high at Ypres and Verdun.
Shovel them under and let me work.
Two years, ten years, and passengers ask the conductor:
What place is this?
Where are we now?

I am the grass.
Let me work.

---Carl Sandberg

Jan 24, 2014

घास

मैं दीवारों की संध में
उगती हूं
जहां दीवारों का जोड़ होता है
वहां जहां वे एक दूसरे से मिलती हैं
जहां वे पक्की कर दी जाती हैं

वहीं मैं प्रवेश करती हूं

हवा के द्वारा बिखेरा गया
कोई अंधा बीज

धैर्यपूर्वक पूरे इत्मीनान से
मैं खामोशियों की दरारों में
फैलती जाती हूं
मैं प्रतीक्षा करती हूं दीवारों के ढहने की
और उनके धरती पर लौट आने की

और तब
मैं सारे नामों और चेहरों को
ढांक लूंगी ।

---Tadeusz Rozewicz ,1962

Jan 18, 2014

ज़मीन तेरी कशिश

कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफताब के साथ

तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ
[saraab=mirage]

बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम रात बसर की किसी गुलाब के

फिजा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुजरने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख्वाब के साथ

ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ

--- शहरयार

Jan 17, 2014

Maut

अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूं तो चलूं
अपने ग़मख़ाने में एक धूम मचा लूं तो चलूं
और एक जाम-ए-मए तल्ख़ चढ़ा लूं तो चलूं

अभी चलता हूं ज़रा ख़ुद को संभालूं तो चलूं

जाने कब पी थी अभी तक है मए-ग़म का ख़ुमार
धुंधला धुंधला सा नज़र आता है जहाने बेदार
आंधियां चल्ती हैं दुनिया हुई जाती है ग़ुबार

आंख तो मल लूं, ज़रा होश में आ लूं तो चलूं

वो मेरा सहर वो एजाज़ कहां है लाना
मेरी खोई हुई आवाज़ कहां है लाना
मेरा टूटा हुआ साज़ कहां है लाना

एक ज़रा गीत भी इस साज़ पे गा लूं तो चलूं

मैं थका हारा था इतने में जो आए बादल
किसी मतवाले ने चुपके से बढ़ा दी बोतल
उफ़ वह रंगीं पुर-असरार ख़यालों के महल

ऐसे दो चार महल और बना लूं तो चलूं

मेरी आंखों में अभी तक है मोहब्बत का ग़ुरूर
मेरे होंटों को अभी तक है सदाक़त का ग़ुरूर
मेरे माथे पे अभी तक है शराफ़त का ग़ुरूर
ऐसे वहमों से ख़ुद को निकालूं तो चलूं

--- मुईन अह्सन जज़्बी