हिज्र की पहली शाम के साये दूर उफ़क़ तक छाये थे
हम जब उसके शहर से निकले सब रास्ते सँवलाये थे
जाने वो क्या सोच रहा था अपने दिल में सारी रात
प्यार की बातें करते करते उस के नैन भर आये थे
मेरे अन्दर चली थी आँधी ठीक उसी दिन पतझड़ की
जिस दिन अपने जूड़े में उसने कुछ फूल सजाये थे
उसने कितने प्यार से अपना कुफ़्र दिया नज़राने में
हम अपने ईमान का सौदा जिससे करने आये थे
कैसे जाती मेरे बदन से बीते लम्हों की ख़ुश्बू
ख़्वाबों की उस बस्ती में कुछ फूल मेरे हम-साये थे
कैसा प्यारा मंज़र था जब देख के अपने साथी को
पेड़ पे बैठी इक चिड़िया ने अपने पर फैलाये थे
रुख़्सत के दिन भीगी आँखों उसका वो कहना हाए "क़तील"
तुम को लौट ही जाना था तो इस नगरी क्यूँ आये थे |
--- क़तील शिफ़ाई
Feb 7, 2014
Jan 30, 2014
जब लगें ज़ख्म...
जब लगें ज़ख्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
है यही रस्म, तो यह रस्म उठा दी जाये
तिशनगी कुछ तो बुझे तिशना-लबान-ए-गम की
एक नदी दर्द की शहरों में बहा दी जाये
दिल का वोह हाल हुआ है गम-ए-दौरान के तले
जैसे एक लाश चट्टानों में दबा दी जाये
हमने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूँढ़ लिया है
क्या बुरा है जो यह अफवाह उड़ा दी जाये
हमको गुजरी हुई सदियाँ तो न पह्चानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाये
फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लावें
शर्त यह है कि इन्हें खूब हवा दी जाये
कम नहीं नशे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाये
हमसे पूछो कि ग़ज़ल क्या है, ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ्जों में कोई आग छुपा दी जाये
--- जानिसार अख्तर
है यही रस्म, तो यह रस्म उठा दी जाये
तिशनगी कुछ तो बुझे तिशना-लबान-ए-गम की
एक नदी दर्द की शहरों में बहा दी जाये
दिल का वोह हाल हुआ है गम-ए-दौरान के तले
जैसे एक लाश चट्टानों में दबा दी जाये
हमने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूँढ़ लिया है
क्या बुरा है जो यह अफवाह उड़ा दी जाये
हमको गुजरी हुई सदियाँ तो न पह्चानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाये
फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लावें
शर्त यह है कि इन्हें खूब हवा दी जाये
कम नहीं नशे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाये
हमसे पूछो कि ग़ज़ल क्या है, ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ्जों में कोई आग छुपा दी जाये
--- जानिसार अख्तर
Jan 25, 2014
Grass
Pile the bodies high at Austerlitz and Waterloo.
Shovel them under and let me work—
I am the grass; I cover all.
And pile them high at Gettysburg
And pile them high at Ypres and Verdun.
Shovel them under and let me work.
Two years, ten years, and passengers ask the conductor:
What place is this?
Where are we now?
I am the grass.
Let me work.
---Carl Sandberg
Shovel them under and let me work—
I am the grass; I cover all.
And pile them high at Gettysburg
And pile them high at Ypres and Verdun.
Shovel them under and let me work.
Two years, ten years, and passengers ask the conductor:
What place is this?
Where are we now?
I am the grass.
Let me work.
---Carl Sandberg
Jan 24, 2014
घास
मैं दीवारों की संध में
उगती हूं
जहां दीवारों का जोड़ होता है
वहां जहां वे एक दूसरे से मिलती हैं
जहां वे पक्की कर दी जाती हैं
वहीं मैं प्रवेश करती हूं
हवा के द्वारा बिखेरा गया
कोई अंधा बीज
धैर्यपूर्वक पूरे इत्मीनान से
मैं खामोशियों की दरारों में
फैलती जाती हूं
मैं प्रतीक्षा करती हूं दीवारों के ढहने की
और उनके धरती पर लौट आने की
और तब
मैं सारे नामों और चेहरों को
ढांक लूंगी ।
---Tadeusz Rozewicz ,1962
उगती हूं
जहां दीवारों का जोड़ होता है
वहां जहां वे एक दूसरे से मिलती हैं
जहां वे पक्की कर दी जाती हैं
वहीं मैं प्रवेश करती हूं
हवा के द्वारा बिखेरा गया
कोई अंधा बीज
धैर्यपूर्वक पूरे इत्मीनान से
मैं खामोशियों की दरारों में
फैलती जाती हूं
मैं प्रतीक्षा करती हूं दीवारों के ढहने की
और उनके धरती पर लौट आने की
और तब
मैं सारे नामों और चेहरों को
ढांक लूंगी ।
---Tadeusz Rozewicz ,1962
Jan 18, 2014
ज़मीन तेरी कशिश
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफताब के साथ
तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ
[saraab=mirage]
बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम रात बसर की किसी गुलाब के
फिजा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुजरने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख्वाब के साथ
ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ
--- शहरयार
कि आज धूप नहीं निकली आफताब के साथ
तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ
[saraab=mirage]
बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम रात बसर की किसी गुलाब के
फिजा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुजरने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख्वाब के साथ
ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ
--- शहरयार
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