निकलता है
पानी की चिन्ता में
लौटता है लेकर समुन्दर अछोर
ठौर की तलाश में
निकलता है
लौटता है हाथों पर धारे वसुन्धरा
सब्जियाँ खरीदने
निकलता है
लौटता है लेकर भरा-पूरा चांद
अंडे लाने को
निकलता है
लौटता है कंधों पर लादे ब्रह्मांड
हत्यारी नगरी में
निकलेगा इसी तरह किसी रोज़
तो लौट नहीं पाएगा!
--राकेश रंजन
Sep 5, 2018
Aug 16, 2018
व्याख्या
एक दिन कहा गया था
दुनिया की व्याख्या बहुत हो चुकी
ज़रूरत उसे बदलने की है
तब से लगातार
बदला जा रहा है
दुनिया को
बदली है अपने-आप भी
पर क्या अब यह नहीं लगता
कि और बदलने से पहले
कुछ
व्याख्या की ज़रूरत है ?
--- नेमिचंद्र जैन
दुनिया की व्याख्या बहुत हो चुकी
ज़रूरत उसे बदलने की है
तब से लगातार
बदला जा रहा है
दुनिया को
बदली है अपने-आप भी
पर क्या अब यह नहीं लगता
कि और बदलने से पहले
कुछ
व्याख्या की ज़रूरत है ?
--- नेमिचंद्र जैन
Aug 15, 2018
अधिनायक
राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरिचरना गाता है l
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चँवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है l
पूरब-पच्छिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा, उनके
तमग़े कौन लगाता है l
कौन-कौन है वह जन-गण-मन-
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज़ बजाता है l
---रघुवीर सहाय
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरिचरना गाता है l
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चँवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है l
पूरब-पच्छिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा, उनके
तमग़े कौन लगाता है l
कौन-कौन है वह जन-गण-मन-
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज़ बजाता है l
---रघुवीर सहाय
Aug 6, 2018
हिरोशिमा
एक दिन सहसा
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक :
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से.
छायाएँ मानव-जन की
दिशाहीन
सब ओर पड़ीं - वह सूरज
नहीं उगा था पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचो-बीच नगर के :
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टूट कर
बिखर गये हों
दसों दिशा में.
कुछ क्षण का वह उदय-अस्त !
केवल एक प्रज्वलित क्षण की
दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी.
फिर ?
छायाएँ मानव जन की
नहीं मिटीं लम्बी हो-होकर
मानव ही सब भाप हो गये.
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्थरों पर
उजड़ी सड़कों की गच पर.
मानव का रचा हुआ सूरज
मानव को भाप बना कर सोख गया.
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है.
---अज्ञेय
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक :
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से.
छायाएँ मानव-जन की
दिशाहीन
सब ओर पड़ीं - वह सूरज
नहीं उगा था पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचो-बीच नगर के :
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टूट कर
बिखर गये हों
दसों दिशा में.
कुछ क्षण का वह उदय-अस्त !
केवल एक प्रज्वलित क्षण की
दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी.
फिर ?
छायाएँ मानव जन की
नहीं मिटीं लम्बी हो-होकर
मानव ही सब भाप हो गये.
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्थरों पर
उजड़ी सड़कों की गच पर.
मानव का रचा हुआ सूरज
मानव को भाप बना कर सोख गया.
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है.
---अज्ञेय
Jul 5, 2018
जितने सभ्य होते हैं
जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक ।
आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक ।
जंगल का चंद्रमा
असभ्य चंद्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं
क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है ।
--- विनोद कुमार शुक्ल
उतने अस्वाभाविक ।
आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक ।
जंगल का चंद्रमा
असभ्य चंद्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं
क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है ।
--- विनोद कुमार शुक्ल
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