1 फ़रवरी 2011

To the Tyrants of the World

You, the unfair tyrants…

You the lovers of the darkness…

You the enemies of life…

You’ve made fun of innocent people’s wounds; and your palm covered with their blood

You kept walking while you were deforming the charm of existence and growing seeds of sadness in their land

Wait, don’t let the spring, the clearness of the sky and the shine of the morning light fool you…

Because the darkness, the thunder rumble and the blowing of the wind are coming toward you from the horizon

Beware because there is a fire underneath the ash

Who grows thorns will reap wounds

You’ve taken off heads of people and the flowers of hope; and watered the cure of the sand with blood and tears until it was drunk

The blood’s river will sweep you away and you will be burned by the fiery storm.

---Aboul-Qacem Echebbi .
"To the Tyrants of the World" was recited on the streets during the protests in Tunisia, and in streets of Cairo and Alexandria.

30 जनवरी 2011

Young Poets

Write as you will
In whatever style you like
Too much blood has run under the bridge
To go on believing
That only one road is right.

In poetry everything is permitted.

With only this condition of course,
You have to improve the blank page.

-- Nicanor Parra

(trans. by Miller Williams)

In Praise of My Sister

My sister doesn't write poems,
and it's unlikely that she'll suddenly start writing poems.
She takes after her mother, who didn't write poems,
and also her father, who likewise didn't write poems.
I feel safe beneath my sister's roof:
my sister's husband would rather die than write poems.
And, even though this is starting to sound as
repetitive as Peter Piper,
the truth is, none of my relatives write poems.

My sister's desk drawers don't hold old poems,
and her handbag doesn't hold new ones.
When my sister asks me over for lunch,
I know she doesn't want to read me her poems.
Her soups are delicious without ulterior motives.
Her coffee doesn't spill on manuscripts.

There are many families in which nobody writes poems,
but once it starts up it's hard to quarantine.
Sometimes poetry cascades down through the generations,
creating fatal whirlpools where family love may founder.

My sister has tackled oral prose with some success,
but her entire written opus consists of postcards from vacations
whose text is only the same promise every year:
when she gets back, she'll have
so much
much
much to tell.

--- Wislawa Szymborska

कर्मवीर

देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उबताते नहीं
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले ।

आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं ।

जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुये जो दिन गंवाते हैं नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिये
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिये ।

व्योम को छूते हुये दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहां रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल-राशि की उठती हुयी ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं ।

---अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

28 जनवरी 2011

सुकूत-ए-शाम मिटाओ बहुत अँधेरा है

सुकूत-ए-शाम मिटाओ बहुत अँधेरा है
सुख़न की शम्ओ जलाओ बहुत अँधेरा है

चमक उठेंगी सियहबख्तियां जमाने की
नवा-ए-दर्द सुनाओ, बहुत अँधेरा है

हर इक चराग से हर तीरगी नहीं मिटती
चराग़े-अश्क जलाओ बहुत अँधेरा है

दयार-ए-ग़म में दिल-ए-बेक़रार छूट गया
सम्भल के ढूंढने जाओ बहुत अँधेरा है

ये रात वो है के सूझे जहाँ न हाथ को हाथ
ख़्यालों दूर न जाओ बहुत अँधेरा है

वो ख़ुद नहीं जो सरे बज़्मे ग़म तो आज उसके
तबस्सुमों को बुलाओ बहुत अँधेरा है

पसे-गुनाह जो ठहरे थे चश्में आदम में
उन आंसुओ को बहाओ बहुत अँधेरा है

हवाए नीम शबी हों कि चादर-ए-अंजुम
नक़ाब रुख़ से उठाओ बहुत अँधेरा है

शब-ए-सियाह में गुम हो गई है राह-ए-हयात
क़दम संभल के उठाओ बहुत अँधेरा है

गुज़श्ता अह्द की यादों को फिर करो ताज़ा
बुझे चिराग़ जलाओ बहुत अँधेरा है

थी एक उचटती हुई नींद ज़िंदगी उसकी
'फ़िराक़' को न जगाओ बहुत अँधेरा है

--- Firaq Gorakhpuri

21 जनवरी 2011

दिल की बात लबों पर लाकर

दिल की बात लबों पर लाकर, अब तक हम दुख सहते हैं|
हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं|

बीत गया सावन का महीना मौसम ने नज़रें बदली,
लेकिन इन प्यासी आँखों में अब तक आँसू बहते हैं|

एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्ज़ाम नहीं,
दुनिया वाले दिल वालों को और बहुत कुछ कहते हैं|

जिस की ख़ातिर शहर भी छोड़ा जिस के लिये बदनाम हुए,
आज वही हम से बेगाने-बेगाने से रहते हैं|

वो जो अभी रहगुज़र से, चाक-ए-गरेबाँ गुज़रा था,
उस आवारा दीवाने को 'ज़लिब'-'ज़लिब' कहते हैं|

---हबीब जालिब 

20 जनवरी 2011

इस शहर-ए-खराबी में

इस शहर-ए-खराबी में गम-ए-इश्क के मारे
ज़िंदा हैं यही बात बड़ी बात है प्यारे

ये हंसता हुआ लिखना ये पुरनूर सितारे
ताबिंदा-ओ-पा_इन्दा हैं ज़र्रों के सहारे

हसरत है कोई गुंचा हमें प्यार से देखे
अरमां है कोई फूल हमें दिल से पुकारे

हर सुबह मेरी सुबह पे रोती रही शबनम
हर रात मेरी रात पे हँसते रहे तारे

कुछ और भी हैं काम हमें ए गम-ए-जानां
कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे

---हबीब जालिब