अरूजे कामयाबी पर कभी तो हिन्दुस्तां होगा ।
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियां हेागा ।।
चखायेगे मजा बरबादिये गुलशन का गुलची को ।
बहार आयेगी उस दिन जब कि अपना बागवां होगा ।।
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है ।
सुना है आज मकतल में हमारा इम्तहां होगा ।।
जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दें वतन हरगिज ।
न जाने बाद मुर्दन मैं कहां.. और तू कहां होगा ।।
यह आये दिन को छेड़ अच्छी नहीं ऐ खंजरे कातिल !
बता कब फैसला उनके हमारे दरमियां होगा ।।
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेगें हर बरस मेले ।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा ।।
इलाही वह भी दिन होगा जब अपना राज्य देखेंगे ।
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा ।।
--- पं० जगदम्बा प्रसाद मिश्र 'हितैषी'
This poem is wrongly attributed to RamPrasad Bismil while its author was Pandit Jagdamba Prasad Mishra 'Hiteshi'.
15 अगस्त 2012
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?
सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला
जहां भी टिकट मिला
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसीका पन्द्रह अगस्त है
बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है...
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है?
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है
सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
ग़रीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है
धत् तेरी, धत् तेरी, कुच्छों नहीं! कुच्छों नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्छों नहीं, कुच्छों नहीं...
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है...
---नागार्जुन
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?
सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला
जहां भी टिकट मिला
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसीका पन्द्रह अगस्त है
बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है...
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है?
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है
सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
ग़रीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है
धत् तेरी, धत् तेरी, कुच्छों नहीं! कुच्छों नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्छों नहीं, कुच्छों नहीं...
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है...
---नागार्जुन
10 अगस्त 2012
तानाशाह
वह अभी तक सोचता है
कि तानाशाह बिल्कुल वैसा ही या
फिर उससे मिलता-जुलता ही होगा
यानी मूंछ तितलीकट, नाक के नीचे
बिल्ले-तमगे और
भीड़ को सम्मोहित करने की वाकपटुता
जबकि अब होगा यह
कि वह पहले जैसा तो होगा नहीं
अगर उसने दुबारा पुरानी शक्ल और पुराने कपड़े में
आने की कोशिश की तो
वह मसखरा ही साबित होगा
भरी हो उसके दिल में कितनी ही घृणा
दिमाग में कितने ही खतरनाक इरादे
कोई भी तानाशाह ऐसा तो होता नहीं
कि वह तुरन्त पहचान लिया जाये
कि लोग फजीहत कर डालें उसकी
चिढ़ाएं, छुछुआएं
यहां तक कि मौके-बेमौके बच्चे तक पीट डालें
अब तो वह आयेगा तो उसे पहचानना भी मुश्किल होगा|
---उदयप्रकाश
कि तानाशाह बिल्कुल वैसा ही या
फिर उससे मिलता-जुलता ही होगा
यानी मूंछ तितलीकट, नाक के नीचे
बिल्ले-तमगे और
भीड़ को सम्मोहित करने की वाकपटुता
जबकि अब होगा यह
कि वह पहले जैसा तो होगा नहीं
अगर उसने दुबारा पुरानी शक्ल और पुराने कपड़े में
आने की कोशिश की तो
वह मसखरा ही साबित होगा
भरी हो उसके दिल में कितनी ही घृणा
दिमाग में कितने ही खतरनाक इरादे
कोई भी तानाशाह ऐसा तो होता नहीं
कि वह तुरन्त पहचान लिया जाये
कि लोग फजीहत कर डालें उसकी
चिढ़ाएं, छुछुआएं
यहां तक कि मौके-बेमौके बच्चे तक पीट डालें
अब तो वह आयेगा तो उसे पहचानना भी मुश्किल होगा|
---उदयप्रकाश
31 जुलाई 2012
"लखनऊ हम पर फ़िदा और हम फ़िदा-ए-लखनऊ"
"ये लखनऊ की सरज़मीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
ये रंग रूप का चमन
ये हुस्न-ओ-इश्क का वतन
यही तो वो मकाम है
जहाँ अवध की शाम है
जवां-जवां, हसीं-हसीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
शबाब-ओ-शेर का ये घर
ये एहल-ए-इल्म का नगर
है मंजिलों की गोद में
यहाँ की हर एक रहगुज़र
ये शहर लालाज़ार है
यहाँ दिलों में प्यार है
जिधर नज़र उठाइये
बहार ही बहार है
कली कली है नाज़नीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
यहाँ की सब रवायतें
अदब की शाहकार हैं
अमीर एहल-ए-दिल यहाँ
गरीब जां-निसार हैं
हर इक शाख पर यहाँ
हैं बुलबुलों के चहचहे
गली गली में ज़िन्दगी
क़दम क़दम पे कहकहे
हर इक नज़ारा दिलनशीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
यहाँ के दोस्त बा-वफ़ा
मोहब्बतों से आशना
किसी के हो गए अगर
रहे उसी के उम्र भर
निभाई अपनी आन भी
बढ़ाई दिल की शान भी
हैं ऐसे मेहरबान भी
कहो तो दे दें जान भी
जो दोस्ती का हो यकीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
ये लखनऊ कि सरज़मीं"
-- शकील बदायुनी
ये लखनऊ की सरज़मीं
ये रंग रूप का चमन
ये हुस्न-ओ-इश्क का वतन
यही तो वो मकाम है
जहाँ अवध की शाम है
जवां-जवां, हसीं-हसीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
शबाब-ओ-शेर का ये घर
ये एहल-ए-इल्म का नगर
है मंजिलों की गोद में
यहाँ की हर एक रहगुज़र
ये शहर लालाज़ार है
यहाँ दिलों में प्यार है
जिधर नज़र उठाइये
बहार ही बहार है
कली कली है नाज़नीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
यहाँ की सब रवायतें
अदब की शाहकार हैं
अमीर एहल-ए-दिल यहाँ
गरीब जां-निसार हैं
हर इक शाख पर यहाँ
हैं बुलबुलों के चहचहे
गली गली में ज़िन्दगी
क़दम क़दम पे कहकहे
हर इक नज़ारा दिलनशीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
यहाँ के दोस्त बा-वफ़ा
मोहब्बतों से आशना
किसी के हो गए अगर
रहे उसी के उम्र भर
निभाई अपनी आन भी
बढ़ाई दिल की शान भी
हैं ऐसे मेहरबान भी
कहो तो दे दें जान भी
जो दोस्ती का हो यकीं
ये लखनऊ की सरज़मीं
ये लखनऊ कि सरज़मीं"
-- शकील बदायुनी
7 जून 2012
ये मेघ साहसिक सैलानी!
ये मेघ साहसिक सैलानी!
ये तरल वाष्प से लदे हुए
द्रुत साँसों से लालसा भरे,
ये ढीठ समीरण के झोंके,
कंटकित हुए रोएँ तन के
किन अदृश करों से आलोड़ित
स्मृति शेफाली के फूल झरे!
झर-झर झर-झर
अप्रतिहत स्वर
जीवन की गति आनी-जानी!
झर -
नदी कूल के झर नरसल
झर - उमड़ा हुआ नदी का जल
ज्यों क्वारपने की केंचुल में
यौवन की गति उद्दाम प्रबल
झर -
दूर आड़ में झुरमुट की
चातक की करुण कथा बिखरी
चमकी टिटीहरी की गुहार
झाऊ की साँसों में सिहरी,
मिल कर सहसा सहमी ठिठकीं
वे चकित मृगी-सी आँखड़ियाँ
झर! सहसा दर्शन से झंकृत
इस अल्हड़ मानस की कड़ियाँ!
झर -
अंतरिक्ष की कौली भर
मटियाया-सा भूरा पानी
थिगलियाँ-भरे-छीजे आँचल-सी
ज्यों-त्यों बिछी धरा धानी,
हम कुंज-कुंज यमुना-तीरे
बढ़ चले अटपटे पैरों से
छिन लता-गुल्म छिन वानीरे
झर-झर झर-झर
द्रुत मंद स्वर
आए दल बल ले अभिमानी
ये मेघ साहसिक सैलानी!
कंपित फरास की ध्वनि सर-सर
कहती थी कौतुक से भर कर
पुरवा पछवा हरकारों से
कह देगा सब निर्मम हो कर
दो प्राणों का सलज्ज मर्मर -
औत्सुक्य-सजल पर शील-नम्र
इन नभ के प्रहरी तारों से!
ओ कह देते तो कह देते
पुलिनों के ओ नटखट फरास!
ओ कह देते तो कह देते
पुरवा पछवा के हरकारों
नभ के कौतुक कंपित तारों
हाँ कह देते तो कह देते
लहरों के ओ उच्छवसित हास!
पर अब झर-झर
स्मृति शेफाली,
यह युग-सरि का
अप्रतिहत स्वर!
झर-झर स्मृति के पत्ते सूखे
जीवन के अंधड़ में पिटते
मरुथल के रेणुक कण रुखे!
झर-जीवन गाति आनी जानी
उठती गिरतीं सूनी साँसें
लोचन अंतस प्यासे भूखे
अलमस्त चल दिए छलिया से
ये मेघ साहसिक सैलानी!
- अज्ञेय
ये तरल वाष्प से लदे हुए
द्रुत साँसों से लालसा भरे,
ये ढीठ समीरण के झोंके,
कंटकित हुए रोएँ तन के
किन अदृश करों से आलोड़ित
स्मृति शेफाली के फूल झरे!
झर-झर झर-झर
अप्रतिहत स्वर
जीवन की गति आनी-जानी!
झर -
नदी कूल के झर नरसल
झर - उमड़ा हुआ नदी का जल
ज्यों क्वारपने की केंचुल में
यौवन की गति उद्दाम प्रबल
झर -
दूर आड़ में झुरमुट की
चातक की करुण कथा बिखरी
चमकी टिटीहरी की गुहार
झाऊ की साँसों में सिहरी,
मिल कर सहसा सहमी ठिठकीं
वे चकित मृगी-सी आँखड़ियाँ
झर! सहसा दर्शन से झंकृत
इस अल्हड़ मानस की कड़ियाँ!
झर -
अंतरिक्ष की कौली भर
मटियाया-सा भूरा पानी
थिगलियाँ-भरे-छीजे आँचल-सी
ज्यों-त्यों बिछी धरा धानी,
हम कुंज-कुंज यमुना-तीरे
बढ़ चले अटपटे पैरों से
छिन लता-गुल्म छिन वानीरे
झर-झर झर-झर
द्रुत मंद स्वर
आए दल बल ले अभिमानी
ये मेघ साहसिक सैलानी!
कंपित फरास की ध्वनि सर-सर
कहती थी कौतुक से भर कर
पुरवा पछवा हरकारों से
कह देगा सब निर्मम हो कर
दो प्राणों का सलज्ज मर्मर -
औत्सुक्य-सजल पर शील-नम्र
इन नभ के प्रहरी तारों से!
ओ कह देते तो कह देते
पुलिनों के ओ नटखट फरास!
ओ कह देते तो कह देते
पुरवा पछवा के हरकारों
नभ के कौतुक कंपित तारों
हाँ कह देते तो कह देते
लहरों के ओ उच्छवसित हास!
पर अब झर-झर
स्मृति शेफाली,
यह युग-सरि का
अप्रतिहत स्वर!
झर-झर स्मृति के पत्ते सूखे
जीवन के अंधड़ में पिटते
मरुथल के रेणुक कण रुखे!
झर-जीवन गाति आनी जानी
उठती गिरतीं सूनी साँसें
लोचन अंतस प्यासे भूखे
अलमस्त चल दिए छलिया से
ये मेघ साहसिक सैलानी!
- अज्ञेय
29 मई 2012
My body is not your battle ground
My Body is not your battleground
My breasts are neither wells nor mountians,
neither Badr nor Uhud
My breasts do not want to lead revolutions
nor to become prisoners of war
My breasts seek amnesty: release them
so I can glory in their milktipped fullness,
so I can offer them to my sweet love
without your flags and banners on them
My body is not your battleground
My hair is neither sacred nor cheap,
neither the cause of your disarray
nor the path to your liberation
My hair will not bring progress and clean water
if it flies unbraided in the breeze
It will not save us from our attackers
if it is wrapped and shielded from the sun
Untangle your hands from my hair
so I can comb and delight in it,
so I can honor and annoint it,
so I can spill it over the chest of my sweet love
My body is not your battleground
My private garden is not your tillage
My thighs are not highway lanes to your Golden City
My belly is not the store of your bushels of wheat
My womb is not the cradle of your soldiers,
not the ship of your journey to the homeland
Leave me to discover the lakes
that glisten in my green forests
and to understand the power of their waters
Leave me to fill or not fill my chalice
with the wine or honey of my sweet love
Is it your skin that will tear when the head of the new world emerges?
My body is not your battleground
How dare you put your hand
where I have not given permission
Has God, then, given you permission
to put your hand there?
My body is not your battle ground
Withdraw from the eastern fronts and the western
Withdraw these armaments and this siege
so that I may prepare the earth
for the new age of lilac and clover,
so that I may celebrate this spring
the pageant of beauty with my sweet love.
- Mohja Kahf, 1998
My breasts are neither wells nor mountians,
neither Badr nor Uhud
My breasts do not want to lead revolutions
nor to become prisoners of war
My breasts seek amnesty: release them
so I can glory in their milktipped fullness,
so I can offer them to my sweet love
without your flags and banners on them
My body is not your battleground
My hair is neither sacred nor cheap,
neither the cause of your disarray
nor the path to your liberation
My hair will not bring progress and clean water
if it flies unbraided in the breeze
It will not save us from our attackers
if it is wrapped and shielded from the sun
Untangle your hands from my hair
so I can comb and delight in it,
so I can honor and annoint it,
so I can spill it over the chest of my sweet love
My body is not your battleground
My private garden is not your tillage
My thighs are not highway lanes to your Golden City
My belly is not the store of your bushels of wheat
My womb is not the cradle of your soldiers,
not the ship of your journey to the homeland
Leave me to discover the lakes
that glisten in my green forests
and to understand the power of their waters
Leave me to fill or not fill my chalice
with the wine or honey of my sweet love
Is it your skin that will tear when the head of the new world emerges?
My body is not your battleground
How dare you put your hand
where I have not given permission
Has God, then, given you permission
to put your hand there?
My body is not your battle ground
Withdraw from the eastern fronts and the western
Withdraw these armaments and this siege
so that I may prepare the earth
for the new age of lilac and clover,
so that I may celebrate this spring
the pageant of beauty with my sweet love.
- Mohja Kahf, 1998
12 मई 2012
जे.एन.यू. में हिंदी
जी, यही मेरा घर है
और शायद यही वह पत्थर जिस पर सिर रखकर सोई थी
वह पहली कुल्हाड़ी
जिसने पहले वृक्ष का शिकार किया था
इस पत्थर से आज भी
एक पसीने की गंध आती है
जो शायद उस पहले लकड़हारे के शरीर की
गंध है--
जिससे खुराक मिलती है
मेरे परिसर की सारी आधुनिकता को
इस घर से सटे हुए
बहुत-से घर हैं
जैसे एक पत्थर से सटे हुए बहुत-से पत्थर
और धूप हो की वर्षा यहाँ नियम यह
कि हर घर अपने में बंद
अपने में खुला
पर बगल के घर में अगर पकता है भात
तो उसकी ख़ुशबू घुस आती है
मेरे किचन में
मेरी चुप्पी उधर के फूलदानों तक
साफ़ सुनाई पड़ती है
और सच्चाई यह है कि हम सबकी स्मृतियाँ
अपने-अपने हिस्से की बारिश से धुलकर
इतनी स्वच्छ और ऐसी पारदर्शी
कि यहाँ किसी का नम्बर
किसी को याद नहीं !
विद्वानों की इस बस्ती में जहाँ फूल भी एक सवाल है
और बिच्छू भी एक सवाल
मैंने एक दिन देखा एक अधेड़-सा आदमी
जिसके कंधे पर अंगौछा था
और हाथ में एक गठरी
‘अंगौछा’- इस शब्द से
लम्बे समय बाद मेरे मिलना हुआ
और वह भी जे. एन. यू. में !
वह परेशान-सा आदमी
शायद किसी घर का नम्बर खोज रहा था
और मुझे लगा-कई दरवाज़ों को खटखटा चुकने के बाद
वह हो गया था निराश
और लौट रहा था धीरे-धीरे
ज्ञान की इस नगरी में
उसका इस तरह जाना मुझे ऐसा लगा
जैसे मेरी पीठ पर कुछ गिर रहा हो सपासप्
कुछ देर मैंने उसका सामना किया
और जब रहा न गया चिल्लाया फूटकर--
‘विद्वान लोगो ! दरवाज़ा खोलो
वह जा रहा है
कुछ पूछना चाहता था
कुछ जानना चाहता था वह
रोको.. उस अंगौछे वाले आदमी को रोको...
और यह तो बाद में मैंने जाना
उसके चले जाने के काफ़ी देर बाद
कि जिस समय मैं चिल्ला रहा था
असल में मैं चुप था
जैसे सब चुप थे
और मेरी जगह यह मेरी हिंदी थी
जो मेरे परिसर में अकेले चिल्ला रही थी
---केदारनाथ सिंह
और शायद यही वह पत्थर जिस पर सिर रखकर सोई थी
वह पहली कुल्हाड़ी
जिसने पहले वृक्ष का शिकार किया था
इस पत्थर से आज भी
एक पसीने की गंध आती है
जो शायद उस पहले लकड़हारे के शरीर की
गंध है--
जिससे खुराक मिलती है
मेरे परिसर की सारी आधुनिकता को
इस घर से सटे हुए
बहुत-से घर हैं
जैसे एक पत्थर से सटे हुए बहुत-से पत्थर
और धूप हो की वर्षा यहाँ नियम यह
कि हर घर अपने में बंद
अपने में खुला
पर बगल के घर में अगर पकता है भात
तो उसकी ख़ुशबू घुस आती है
मेरे किचन में
मेरी चुप्पी उधर के फूलदानों तक
साफ़ सुनाई पड़ती है
और सच्चाई यह है कि हम सबकी स्मृतियाँ
अपने-अपने हिस्से की बारिश से धुलकर
इतनी स्वच्छ और ऐसी पारदर्शी
कि यहाँ किसी का नम्बर
किसी को याद नहीं !
विद्वानों की इस बस्ती में जहाँ फूल भी एक सवाल है
और बिच्छू भी एक सवाल
मैंने एक दिन देखा एक अधेड़-सा आदमी
जिसके कंधे पर अंगौछा था
और हाथ में एक गठरी
‘अंगौछा’- इस शब्द से
लम्बे समय बाद मेरे मिलना हुआ
और वह भी जे. एन. यू. में !
वह परेशान-सा आदमी
शायद किसी घर का नम्बर खोज रहा था
और मुझे लगा-कई दरवाज़ों को खटखटा चुकने के बाद
वह हो गया था निराश
और लौट रहा था धीरे-धीरे
ज्ञान की इस नगरी में
उसका इस तरह जाना मुझे ऐसा लगा
जैसे मेरी पीठ पर कुछ गिर रहा हो सपासप्
कुछ देर मैंने उसका सामना किया
और जब रहा न गया चिल्लाया फूटकर--
‘विद्वान लोगो ! दरवाज़ा खोलो
वह जा रहा है
कुछ पूछना चाहता था
कुछ जानना चाहता था वह
रोको.. उस अंगौछे वाले आदमी को रोको...
और यह तो बाद में मैंने जाना
उसके चले जाने के काफ़ी देर बाद
कि जिस समय मैं चिल्ला रहा था
असल में मैं चुप था
जैसे सब चुप थे
और मेरी जगह यह मेरी हिंदी थी
जो मेरे परिसर में अकेले चिल्ला रही थी
---केदारनाथ सिंह
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