जब सब बोलते थे
वह चुप रहता था,
जब सब चलते थे
वह पीछे हो जाता था,
जब सब खाने पर टूटते थे
वह अलग बैठा टूँगता रहता था,
जब सब निढाल हो सो जाते थे
वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था
लेकिन जब गोली चली
तब सबसे पहले
वही मारा गया
---सर्वेश्वरदयाल_सक्सेना
1 मई 2020
28 अप्रैल 2020
जावेद अख्तर के नाम
1)
जादू, बयान तुम्हारा, और पुकार सुनी है
तुम ‘एकला’ नहीं, हमने वो ललकार सुनी है
बोली लगी थी कल, कि सिंहासन बिकाऊ थे
नीलाम होती कल, सर-ए-बाज़ार सुनी थी
तुम ने भी खून-ए-दिल में डुबोई हैं उंगलियां
हमने क़लम की पहले भी झंकार सुनी है
2)
जो बात कहते डरते हैं सब, तू वो बात लिख
इतनी अंधेरी थी ना कभी पहले रात, लिख
जिनसे क़सीदे लिखे थे, वो फेंक दे क़लम
फिर खून-ए-दिल से सच्चे कलाम की सिफ़त लिख
जो रोज़नामचे में कहीं पाती नहीं जगह
जो रोज़ हर जगह की है, वो वारदात लिख
जितने भी तंग दायरे हैं सारे तोड़ दे
अब आ खुली फिज़ाओं में, अब कायनात लिख
जो वाक़यात हो गए उनका तो जिक्र है
लेकिन जो होने चाहिए, वो वाक़यात लिख
इस जगह में जो देखनी है तुझ को फिर बहार
तू डाल-डाल दे सदा, तू पात-पात लिख
--- गुलज़ार
जादू, बयान तुम्हारा, और पुकार सुनी है
तुम ‘एकला’ नहीं, हमने वो ललकार सुनी है
बोली लगी थी कल, कि सिंहासन बिकाऊ थे
नीलाम होती कल, सर-ए-बाज़ार सुनी थी
तुम ने भी खून-ए-दिल में डुबोई हैं उंगलियां
हमने क़लम की पहले भी झंकार सुनी है
2)
जो बात कहते डरते हैं सब, तू वो बात लिख
इतनी अंधेरी थी ना कभी पहले रात, लिख
जिनसे क़सीदे लिखे थे, वो फेंक दे क़लम
फिर खून-ए-दिल से सच्चे कलाम की सिफ़त लिख
जो रोज़नामचे में कहीं पाती नहीं जगह
जो रोज़ हर जगह की है, वो वारदात लिख
जितने भी तंग दायरे हैं सारे तोड़ दे
अब आ खुली फिज़ाओं में, अब कायनात लिख
जो वाक़यात हो गए उनका तो जिक्र है
लेकिन जो होने चाहिए, वो वाक़यात लिख
इस जगह में जो देखनी है तुझ को फिर बहार
तू डाल-डाल दे सदा, तू पात-पात लिख
--- गुलज़ार
23 अप्रैल 2020
And yet the books
And yet the books will be there on the shelves, separate beings,
That appeared once, still wet
As shining chestnuts under a tree in autumn,
And, touched, coddled, began to live
In spite of fires on the horizon, castles blown up,
Tribes on the march, planets in motion.
“We are, ” they said, even as their pages
Were being torn out, or a buzzing flame
Licked away their letters. So much more durable
Than we are, whose frail warmth
Cools down with memory, disperses, perishes.
I imagine the earth when I am no more:
Nothing happens, no loss, it’s still a strange pageant,
Women’s dresses, dewy lilacs, a song in the valley.
Yet the books will be there on the shelves, well born,
Derived from people, but also from radiance, heights.
--- Czeslaw Milosz
That appeared once, still wet
As shining chestnuts under a tree in autumn,
And, touched, coddled, began to live
In spite of fires on the horizon, castles blown up,
Tribes on the march, planets in motion.
“We are, ” they said, even as their pages
Were being torn out, or a buzzing flame
Licked away their letters. So much more durable
Than we are, whose frail warmth
Cools down with memory, disperses, perishes.
I imagine the earth when I am no more:
Nothing happens, no loss, it’s still a strange pageant,
Women’s dresses, dewy lilacs, a song in the valley.
Yet the books will be there on the shelves, well born,
Derived from people, but also from radiance, heights.
--- Czeslaw Milosz
14 अप्रैल 2020
मैं हिंदुस्तानी मुसलमाँ हूँ
सड़क पर सिगरेट पीते वक़्त
जो अजां सुनाई दी मुझको
तो याद आया के वक़्त है क्या
और बात ज़हन में ये आई
मैं कैसा मुसलमां हूं भाई?
मैं शिया हूं या सुन्नी हूं
मैं खोजा हूं या बोहरी हूं
मैं गांव से हूं या शहरी हूं
मैं बाग़ी हूं या सूफी हूं
मैं क़ौमी हूं या ढोंगी हूं
मैं कैसा मुसलमां हूं भाई?
मैं सजदा करने वाला हूं
या झटका खाने वाला हूं
मैं टोपी पहन के घूमता हूं
या दाढ़ी बड़ा के रहता हूं
मैं आयत कौल से पढ़ता हूं
या फ़िल्मी गाने रमता हूं
मैं अल्लाह अल्लाह करता हूं
या शेखों से लड़ पड़ता हूं?
मैं कैसा मुसलमां हूं भाई?
दक्कन से हूँ , यूपी से हूँ
भोपाल से हूँ दिल्ली से हूँ
कश्मीर से हूँ गुजरात से हूँ
हर ऊंची नीची जात से हूँ
मैं ही हूँ जुलाहा मोची भी
मैं डॉक्टर भी हूँ दर्ज़ी भी
मुझमे गीता का सार भी है
एक उर्दू का अख़बार भी है
मेरा एक महीना रमज़ान भी है
मैंने किया तो गंगा स्नान भी है
मैं अपने तौर से जीता हूँ
दारू सिगरेट भी पीता हूँ
कोई नेता मेरी नस में नहीं
मैं किसी पार्टी के बस में नहीं।
ख़ूनी दरवाज़ा मुझमे है
इक भूलभलैया मुझमे है
मैं बाबरी का एक गुम्बद हूँ
मैं शहर के बीच में सरहद हूँ
झुग्गियों में पलती ग़ुरबत मैं
मदरसों की टूटी सी छत में मैं
दंगों में भड़कता शोला मैं
कुर्ते पर खून का धब्बा मैं
मंदिर की चौखट मेरी है
मस्जिद के किबले मेरे है
गुरूद्वारे का दरबार मेरा
यीशु के गिरजे मेरे हैं
सौ में से चौदह हूँ
चौदह ये कम न पड़ते हैं
मैं पूरे सौ में बसता हूँ
पूरे सौ मुझ में बसते हैं
मुझे एक नज़र से देख न तू
मेरे एक नहीं सौ चेहरे हैं
सौ रंग के हैं किरदार मेरे
सौ रंग में लिखी कहानी हूँ
मैं जितना मुसलमाँ हूँ भाई
मैं उतना हिंदुस्तानी हूँ
मैं हिंदुस्तानी मुसलमाँ हूँ भाई
मैं हिंदुस्तानी मुसलमाँ हूँ .
--- हुसैन हैदरी
जो अजां सुनाई दी मुझको
तो याद आया के वक़्त है क्या
और बात ज़हन में ये आई
मैं कैसा मुसलमां हूं भाई?
मैं शिया हूं या सुन्नी हूं
मैं खोजा हूं या बोहरी हूं
मैं गांव से हूं या शहरी हूं
मैं बाग़ी हूं या सूफी हूं
मैं क़ौमी हूं या ढोंगी हूं
मैं कैसा मुसलमां हूं भाई?
मैं सजदा करने वाला हूं
या झटका खाने वाला हूं
मैं टोपी पहन के घूमता हूं
या दाढ़ी बड़ा के रहता हूं
मैं आयत कौल से पढ़ता हूं
या फ़िल्मी गाने रमता हूं
मैं अल्लाह अल्लाह करता हूं
या शेखों से लड़ पड़ता हूं?
मैं कैसा मुसलमां हूं भाई?
दक्कन से हूँ , यूपी से हूँ
भोपाल से हूँ दिल्ली से हूँ
कश्मीर से हूँ गुजरात से हूँ
हर ऊंची नीची जात से हूँ
मैं ही हूँ जुलाहा मोची भी
मैं डॉक्टर भी हूँ दर्ज़ी भी
मुझमे गीता का सार भी है
एक उर्दू का अख़बार भी है
मेरा एक महीना रमज़ान भी है
मैंने किया तो गंगा स्नान भी है
मैं अपने तौर से जीता हूँ
दारू सिगरेट भी पीता हूँ
कोई नेता मेरी नस में नहीं
मैं किसी पार्टी के बस में नहीं।
ख़ूनी दरवाज़ा मुझमे है
इक भूलभलैया मुझमे है
मैं बाबरी का एक गुम्बद हूँ
मैं शहर के बीच में सरहद हूँ
झुग्गियों में पलती ग़ुरबत मैं
मदरसों की टूटी सी छत में मैं
दंगों में भड़कता शोला मैं
कुर्ते पर खून का धब्बा मैं
मंदिर की चौखट मेरी है
मस्जिद के किबले मेरे है
गुरूद्वारे का दरबार मेरा
यीशु के गिरजे मेरे हैं
सौ में से चौदह हूँ
चौदह ये कम न पड़ते हैं
मैं पूरे सौ में बसता हूँ
पूरे सौ मुझ में बसते हैं
मुझे एक नज़र से देख न तू
मेरे एक नहीं सौ चेहरे हैं
सौ रंग के हैं किरदार मेरे
सौ रंग में लिखी कहानी हूँ
मैं जितना मुसलमाँ हूँ भाई
मैं उतना हिंदुस्तानी हूँ
मैं हिंदुस्तानी मुसलमाँ हूँ भाई
मैं हिंदुस्तानी मुसलमाँ हूँ .
--- हुसैन हैदरी
13 अप्रैल 2020
Limbo
Fishermen at Ballyshannon
Netted an infant last night
Along with the salmon.
An illegitimate spawning,
A small one thrown back
To the waters. But I'm sure
As she stood in the shallows
Ducking him tenderly
Till the frozen knobs of her wrists
Were dead as the gravel,
He was a minnow with hooks
Tearing her open.
She waded in under
The sign of the cross.
He was hauled in with the fish.
Now limbo will be
A cold glitter of souls
Through some far briny zone.
Even Christ's palms, unhealed,
Smart and cannot fish there.
--- Seamus Heaney
Netted an infant last night
Along with the salmon.
An illegitimate spawning,
A small one thrown back
To the waters. But I'm sure
As she stood in the shallows
Ducking him tenderly
Till the frozen knobs of her wrists
Were dead as the gravel,
He was a minnow with hooks
Tearing her open.
She waded in under
The sign of the cross.
He was hauled in with the fish.
Now limbo will be
A cold glitter of souls
Through some far briny zone.
Even Christ's palms, unhealed,
Smart and cannot fish there.
--- Seamus Heaney
11 अप्रैल 2020
15 बेहतरीन शेर !!!
1. खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम अमीर, सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है - अमीर मीनाई
2. हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता - अकबर इलाहाबादी
3- लोग टूट जाते हैं एक घर के बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में. - बशीर बद्र
4. तू इधर उधर की न बात कर ये बता कि क़ाफ़िला क्यूँ लुटा, मुझे रहज़नों से गिला नहीं तिरी रहबरी का सवाल है ~ शहाब जाफ़री
5. ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले, ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है ~ अल्लामा इक़बाल
6. कोई क्यूँ किसी का लुभाए दिल कोई क्या किसी से लगाए दिल, वो जो बेचते थे दवा-ए-दिल वो दुकान अपनी बढ़ा गए ~ बहादुर शाह ज़फ़र
7. ऐ ‘ज़ौक़’ तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर, आराम से वो हैं, जो तकल्लुफ़ नहीं करते..!- इब्राहिम ज़ौक़
6. आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं, सामान सौ बरस का है पल की खबर नहीं - -हैरत इलाहाबादी
7. ज़िन्दगी ज़िंदादिली का नाम है, मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते हैं - नासिख लखनवी
8. करीब है यारो रोज़े-महशर, छुपेगा कुश्तों का खून क्योंकर, जो चुप रहेगी ज़ुबाने–खंजर, लहू पुकारेगा आस्तीं का -अमीर मीनाई (रोज़े-महशर = प्रलय का दिन)
9. बड़े गौर से सुन रहा था जमाना, तुम्ही सो गये दास्तां कहते कहते - साक़िब लखनवी
10. हम तालिबे-शोहरत हैं, हमें नंग से क्या काम, बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा - नवाब मुहम्मद मुस्तफा खान शेफ़्ता
11. ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजै, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है -जिगर मुरादाबादी
12. यहां लिबास की कीमत है आदमी की नहीं, मुझे गिलास बड़ा दे, शराब कम कर दे - बशीर बद्र
13. बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था, हर शाख पे उल्लू बैठें हैं अंजाम ऐ गुलिस्तां क्या होगा - रियासत हुसैन रिजवी उर्फ ‘शौक बहराइची’
14. ज़िन्दगी तो अपने कदमो पे चलती है ‘फ़राज़’, औरों के सहारे तो जनाज़े उठा करते हैं - अहमद फ़राज़
15. कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों ~ दुष्यंत कुमार
2. हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता - अकबर इलाहाबादी
3- लोग टूट जाते हैं एक घर के बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में. - बशीर बद्र
4. तू इधर उधर की न बात कर ये बता कि क़ाफ़िला क्यूँ लुटा, मुझे रहज़नों से गिला नहीं तिरी रहबरी का सवाल है ~ शहाब जाफ़री
5. ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले, ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है ~ अल्लामा इक़बाल
6. कोई क्यूँ किसी का लुभाए दिल कोई क्या किसी से लगाए दिल, वो जो बेचते थे दवा-ए-दिल वो दुकान अपनी बढ़ा गए ~ बहादुर शाह ज़फ़र
7. ऐ ‘ज़ौक़’ तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर, आराम से वो हैं, जो तकल्लुफ़ नहीं करते..!- इब्राहिम ज़ौक़
6. आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं, सामान सौ बरस का है पल की खबर नहीं - -हैरत इलाहाबादी
7. ज़िन्दगी ज़िंदादिली का नाम है, मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते हैं - नासिख लखनवी
8. करीब है यारो रोज़े-महशर, छुपेगा कुश्तों का खून क्योंकर, जो चुप रहेगी ज़ुबाने–खंजर, लहू पुकारेगा आस्तीं का -अमीर मीनाई (रोज़े-महशर = प्रलय का दिन)
9. बड़े गौर से सुन रहा था जमाना, तुम्ही सो गये दास्तां कहते कहते - साक़िब लखनवी
10. हम तालिबे-शोहरत हैं, हमें नंग से क्या काम, बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा - नवाब मुहम्मद मुस्तफा खान शेफ़्ता
11. ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजै, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है -जिगर मुरादाबादी
12. यहां लिबास की कीमत है आदमी की नहीं, मुझे गिलास बड़ा दे, शराब कम कर दे - बशीर बद्र
13. बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था, हर शाख पे उल्लू बैठें हैं अंजाम ऐ गुलिस्तां क्या होगा - रियासत हुसैन रिजवी उर्फ ‘शौक बहराइची’
14. ज़िन्दगी तो अपने कदमो पे चलती है ‘फ़राज़’, औरों के सहारे तो जनाज़े उठा करते हैं - अहमद फ़राज़
15. कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों ~ दुष्यंत कुमार
10 अप्रैल 2020
अर्थ
चुप रहने के
हज़ार फ़ायदे
चुप रहनेवाले से
कोई नहीं झगड़ता
किसी को कष्ट नहीं होता
चुप रहनेवाला
कभी दुखी नहीं होता
कभी शिकायत नहीं करता
आलोचना नहीं करता
चुप रहनेवाला
सबको अच्छा लगता है
सबको अच्छा लगने
निहायत ज़रूरी है
चुप रहना
दस हज़ार साल पहले
मनुष्य ने जब
बोलना सीखने की
शुरुआत की
तब उसे नहीं पता था
बोलने से कहीँ बेहतर है
चुप रहना
दस हज़ार साल बाद
ऋषियों की पावन भूमि पर
यह ज्ञान मिला
कि चुप रहनेवाला
सरकार गिराने के आरोप में
आधी रात को
गिरफ़्तार नहीं होता
डॉक्टर कहता है
जनम से बहरा व्यक्ति
जनम से गूंगा हो जाता है
गूंगा होने के लिए
बहरा होना अनिवार्य है
ज्ञानियों का मानना है
जीवन के किसी भी मोड़ पर
थोड़े से प्रयास से
बहरे हो जाओ
गूंगापन ख़ुद आ जाता है
बहरा होने का दूसरा फ़ायदा
कुछ हद तक
अंधापन आ जाता है
आप वही देख पाते हो
जो आंख के आगे है
और हर आंख की
एक सीमा तो होती ही है
और अगर बोलना हो जाए
बेहद ज़रूरी
और जेल भी न जाना हो
तो या तो वर्दी पैदा करो
या गर्दी पैदा करो
या कुर्सी पैदा करो
इनमें से कुछ भी पैदा न कर पाओ
तो बनकर शिखंडी
रक्षा करो
सत्ताधारी अर्जुन की
युद्धोपरांत
पद पुरस्कार प्रतिष्ठा
कुछ भी असंभव नहीं
अप्राप्य नहीं
अतः अनुभवियों की मानो
और चुप रहो
और बोलना ही पड़े
तो ऐसा बोलो
जिसका कोई अर्थ न हो
तकलीफ़ बोलने में नहीं
अर्थ से है
अर्थ चाहिए
तो अर्थ से बचो
चुप रहो
ख़ुश रहो!
---हूबनाथ पांडेय
हज़ार फ़ायदे
चुप रहनेवाले से
कोई नहीं झगड़ता
किसी को कष्ट नहीं होता
चुप रहनेवाला
कभी दुखी नहीं होता
कभी शिकायत नहीं करता
आलोचना नहीं करता
चुप रहनेवाला
सबको अच्छा लगता है
सबको अच्छा लगने
निहायत ज़रूरी है
चुप रहना
दस हज़ार साल पहले
मनुष्य ने जब
बोलना सीखने की
शुरुआत की
तब उसे नहीं पता था
बोलने से कहीँ बेहतर है
चुप रहना
दस हज़ार साल बाद
ऋषियों की पावन भूमि पर
यह ज्ञान मिला
कि चुप रहनेवाला
सरकार गिराने के आरोप में
आधी रात को
गिरफ़्तार नहीं होता
डॉक्टर कहता है
जनम से बहरा व्यक्ति
जनम से गूंगा हो जाता है
गूंगा होने के लिए
बहरा होना अनिवार्य है
ज्ञानियों का मानना है
जीवन के किसी भी मोड़ पर
थोड़े से प्रयास से
बहरे हो जाओ
गूंगापन ख़ुद आ जाता है
बहरा होने का दूसरा फ़ायदा
कुछ हद तक
अंधापन आ जाता है
आप वही देख पाते हो
जो आंख के आगे है
और हर आंख की
एक सीमा तो होती ही है
और अगर बोलना हो जाए
बेहद ज़रूरी
और जेल भी न जाना हो
तो या तो वर्दी पैदा करो
या गर्दी पैदा करो
या कुर्सी पैदा करो
इनमें से कुछ भी पैदा न कर पाओ
तो बनकर शिखंडी
रक्षा करो
सत्ताधारी अर्जुन की
युद्धोपरांत
पद पुरस्कार प्रतिष्ठा
कुछ भी असंभव नहीं
अप्राप्य नहीं
अतः अनुभवियों की मानो
और चुप रहो
और बोलना ही पड़े
तो ऐसा बोलो
जिसका कोई अर्थ न हो
तकलीफ़ बोलने में नहीं
अर्थ से है
अर्थ चाहिए
तो अर्थ से बचो
चुप रहो
ख़ुश रहो!
---हूबनाथ पांडेय
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