6 जनवरी 2022

दिल्ली

यह कैसे चांदनी अमा के मलिन तमिस्त्र गगन में !
कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधुली-लगन में ?
मरघट में तू साज रही दिल्ली ! कैसे श्रृंगार ?
यह बहार का स्वांग अरि, इस उजड़े हुए चमन में !

इस उजाड़, निर्जन खंडहर में,
छिन-भिन्न उजड़े इस घर में,
तुझे रूप सजने की सूझी
मेरे सत्यानाश प्रहर में !

डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया तराना
और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;
हम धोते हैं गाव इधर सतलज के शीतल जल से,
उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिडकाना ?

महल कहाँ ? बस, हमें सहारा
केवल फूस-फांस, तृणदल का;
अन्न नहीं, अवलंब प्राण को
गम, आंसू या गंगाजल का;

यह विहगों का झुण्ड लक्ष्य है
आजीवन बधिकों के फल का,
मरने पर भी हमें कफ़न है
माता शैव्या के अंचल का !

गुलचीं निष्ठुर फेंक रहा कलियों को तोड़ अनल में,
कुछ सागर के पार और कुछ रावी-सतलज-जल में;
हम मिटते जा रहे, न ज्यों, अपना कोई भगवान् !
यह अलका छवि कौन भला देखेगा इस हलचल में ?

बिखरी लट, आंसू छलके हैं,
देख, वन्दिनी है बिलखाती,
अश्रु पोंछने हम जाते हैं,
दिल्ली ! आह ! कलम रुक जाती।

अरि विवश हैं, कहो, करें क्या ?
पैरों में जंजीर हाय, हाथों-
में हैं कड़ियाँ कस जातीं !

और कहें क्या ? धरा न धंसती,
हुन्करता न गगन संघाती !
हाय ! वन्दिनी मां के सम्मुख
सुत की निष्ठुर बलि चढ़ जाती !

तड़प-तड़प हम कहो करें क्या ?
'बहै न हाथ, दहै रिसि छाती',
अंतर ही अंतर घुलते हैं,
'भा कुठार कुंठित रिपु-घाती !'

अपनी गर्दन रेत-रेत असी की तीखी धारों पर
राजहंस बलिदान चढाते माँ के हुंकारों पर।
पगली ! देख, जरा कैसे मर-मिटने की तैयारी ?
जादू चलेगा न धुन के पक्के इन बंजारों पर।

तू वैभव-मद में इठलाती
परकीया-सी सैन चलाती,
री ब्रिटेन की दासी ! किसको
इन आँखों पर है ललचाती ?

हमने देखा यहीं पांडू-वीरों का कीर्ति-प्रसार,
वैभव का सुख-स्वप्न, कला का महा-स्वप्न-अभिसार,
यही कभी अपनी रानी थी, तू ऐसे मत भूल,
अकबर, शाहजहाँ ने जिसका किया स्वयं श्रृंगार।

तू न ऐंठ मदमाती दिल्ली !
मत फिर यों इतराती दिल्ली !
अविदित नहीं हमें तेरी
कितनी कठोर है छाती दिल्ली !

हाय ! छिनी भूखों की रोटी
छिना नग्न का अर्द्ध वसन है,
मजदूरों के कौर छिने हैं
जिन पर उनका लगा दसन है ।

छिनी सजी-साजी वह दिल्ली
अरी ! बहादुरशाह 'जफर' की ;
और छिनी गद्दी लखनउ की
वाजिद अली शाह 'अख्तर' की ।

छिना मुकुट प्यारे 'सिराज' का,
छिना अरी, आलोक नयन का,
नीड़ छिना, बुलबुल फिरती है
वन-वन लिये चंचु में तिनका।

आहें उठीं दीन कृषकों की,
मजदूरों की तड़प, पुकारें,
अरी! गरीबों के लोहू पर
खड़ी हुई तेरी दीवारें ।

अंकित है कृषकों के दृग में तेरी निठुर निशानी,
दुखियों की कुटिया रो-रो कहती तेरी मनमानी ।
औ' तेरा दृग-मद यह क्या है ? क्या न खून बेकस का ?
बोल, बोल क्यों लजा रही ओ कृषक-मेध की रानी ?

वैभव की दीवानी दिल्ली !
कृषक-मेध की रानी दिल्ली !
अनाचार, अपमान, व्यंग्य की
चुभती हुई कहानी दिल्ली !

अपने ही पति की समाधि पर
कुलटे ! तू छवि में इतराती !
परदेसी-संग गलबाँही दे
मन में है फूली न समाती !

दो दिन ही के 'बाल-डांस' में
नाच हुई बेपानी दिल्ली !
कैसी यह निर्लज्ज नग्नता,
यह कैसी नादानी दिल्ली !

अरी हया कर, है जईफ यह खड़ा कुतुब मीनार,
इबरत की माँ जामा भी है यहीं अरी ! हुशियार ।
इन्हें देखकर भी तो दिल्ली ! आँखें, हाय, फिरा ले,
गौरव के गुरु रो न पड़े, हा, घूंघट जरा गिरा ले !

अरी हया कर, हया अभागी !
मत फिर लज्जा को ठुकराती;
चीख न पड़ें कब्र में अपनी,
फट न जाय अकबर की छाती ।

हुक न उठे कहीं 'दारा' की
कूक न उठे कब्र मदमाती !
गौरव के गुरु रो न पड़ें, हा,
दिल्ली घूंघट क्यों न गिराती ?

बाबर है, औरंग यहीं है
मदिरा औ' कुलटा का द्रोही,
बक्सर पर मत भूल, यहीं है
विजयी शेरशाह निर्मोही ।

अरी ! सँभल, यह कब्र न फट कर कहीं बना दे द्वार !
निकल न पड़े क्रोध में ले कर शेरशाह तलवार !
समझायेगा कौन उसे फिर ? अरी, सँभल नादान !
इस घूंघट पर आज कहीं मच जाय न फिर संहार !

जरा गिरा ले घूंघट अपना,
और याद कर वह सुख सपना,
नूरजहाँ की प्रेम-व्यथा में
दीवाने सलीम का तपना;

गुम्बद पर प्रेमिका कुपोती
के पीछे कपोत का उड़ना,
जीवन की आनन्द-घडी में
जन्नत की परियों का जुड़ना ।

जरा याद कर, यहीं नहाती---
थी रानी मुमताज अतर में,
तुझ-सी तो सुन्दरी खड़ी---
रहती थी पैमाना ले कर में ।

सुख, सौरभ, आनन्द बिछे थे
गली, कूच, वन, वीथि, नगर में,
कहती जिसे इन्द्रपुर तू वह-
तो था प्राप्य यहाँ घर-घर में ।

आज आँख तेरी बिजली से कौध-कौध जाती है !
हमें याद उस स्नेह-दीप की बार-बार आती है !

खिलें फूल, पर, मोह न सकती
हमें अपरिचित छटा निराली,
इन आँखों में घूम रही
अब भी मुरझे गुलाब की लाली ।

उठा कसक दिल में लहराता है यमुना का पानी,
पलकें जोग रहीं बीते वैभव की एक निशानी,
दिल्ली ! तेरे रूप-रंग पर कैसे ह्रदय फंसेगा ?
बाट जोहती खंडहर में हम कंगालों की रानी।

1 जनवरी 2022

1 January 1965

The Wise Men will unlearn your name. 
Above your head no star will flame. 
One weary sound will be the same— 
the hoarse roar of the gale. 

The shadows fall from your tired eyes
 as your lone bedside candle dies, 
for here the calendar breeds nights 
till stores of candles fail. 

 What prompts this melancholy key? 
A long familiar melody. 
It sounds again. 
So let it be. 

Let it sound from this night. 
Let it sound in my hour of death— 
as gratefulness of eyes and lips for that 
which sometimes makes us lift our gaze to the far sky. 

You glare in silence at the wall. 
Your stocking gapes: no gifts at all.
It's clear that you are now too old to trust in good Saint Nick; 
that it's too late for miracles. —

But suddenly, 
lifting your eyes to heaven's light,
 you realize: your life is a sheer gift. 

 --- JOSEPH BRODSKY (TRANSLATED BY GEORGE L. KLINE)

28 दिसंबर 2021

Tapestry

It hangs from heaven to earth.
There are trees in it, cities, rivers,
small pigs and moons. In one corner
the snow falling over a charging cavalry,
in another women are planting rice.

You can also see:
a chicken carried off by a fox,
a naked couple on their wedding night,
a column of smoke,
an evil-eyed woman spitting into a pail of milk.

What is behind it?
—Space, plenty of empty space.

And who is talking now?
—A man asleep under his hat.

What happens when he wakes up?
—He’ll go into a barbershop.

They’ll shave his beard, nose, ears, and hair,
To make him look like everyone else.

--- Charles Simic

25 दिसंबर 2021

15 बेहतरीन शेर - 4 !!!

1. 'रोने वालों से कहो उनका भी रोना रो लें, जिनको मजबूरी-ए-हालात ने रोने न दिया' - सुदर्शन फ़ाकिर

2. मिटा दे अपनी हस्ती को, अगर कुछ मर्तबा चाहे | कि दाना खाक में मिलकर गुले गुलज़ार होता है - अल्लामा इक़बाल

3. एक आस्तीं चढ़ाने की आदत को छोड़कर, हाफ़ी तुम आदमी तो बहुत शानदार हो -तहज़ीब हाफ़ी

4. ये सोचना ग़लत है कि तुम पर नज़र नहीं, मसरूफ़ हम बहुत हैं मगर बे-ख़बर नहीं - आलोक श्रीवास्तव

5. न जाने कौन सा आसेब दिल में बसता है, कि जो भी ठहरा वो आख़िर मकान छोड़ गया -परवीन शाकिर

6. जीने का कुछ उसूल न मरने का ढंग है हर छोटी-छोटी बात पे आपस में जंग है - रऊफ़ रहीम

7. बे-मक़्सद महफ़िल से बेहतर तन्हाई, बे-मतलब बातों से अच्छी ख़ामोशी - ऐन इरफ़ान

8. कभी मैं अपने हाथों की लकीरों से नहीं उलझा, मुझे मालूम है क़िस्मत का लिखा भी बदलता है - बशीर बद्र

9. मैं पर्बतों से लड़ता रहा और चंद लोग, गीली ज़मीन खोद के फ़रहाद हो गए - राहत इंदौरी

10. सुना ये है, बना करते हैं जोड़े आसमानों में, तो ये समझें कि हर बीवी बला-ए-आसमानी है - अहमद अल्वी

11. जिन्हें ये फ़िक्र नहीं सर रहे रहे न रहे, वो सच ही कहते हैं जब बोलने पे आते हैं - आबिद अदीब

12. इशरत ए क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना, दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना - मिर्ज़ा ग़ालिब

13. बुरा बुरे के अलावा भला भी होता है, हर आदमी में कोई दूसरा भी होता है - अनवर शऊर

14. ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है, वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है - मिर्ज़ा रज़ा बर्क़

15. गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं, हम चराग़ों की तरह शाम से जल जाते हैं - क़तील शिफ़ाई

21 दिसंबर 2021

उर्दू का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले


क्यूँ जान-ए-हज़ीं ख़तरा-ए-मौहूम से निकले
क्यूँ नाला-ए-हसरत दिल-ए-मग़्मूम से निकले
आँसू न किसी दीदा-ए-मज़लूम से निकले
कह दो कि न शिकवा लब-ए-मग़्मूम से निकले

उर्दू का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले
उर्दू का ग़म-ए-मर्ग सुबुक भी है गराँ भी
है शामिल-ए-अर्बाब-ए-अ'ज़ा शाह-ए-जहाँ भी
मिटने को है अस्लाफ़ की अज़्मत का निशाँ भी

ये मय्यत-ए-ग़म देहली-ए-मरहूम से निकले
उर्दू का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले
ऐ ताज-महल नक़्श-ब-दीवार हो ग़म से
ऐ क़िला-ए-शाही ये अलम पूछ न हम से

ऐ ख़ाक-ए-अवध फ़ाएदा क्या शरह-ए-सितम से
तहरीक ये मिस्र-ओ-अ'रब-ओ-रोम से निकले
उर्दू का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले
साया हो जब उर्दू के जनाज़े पे 'वली' का

हों 'मीर-तक़ी' साथ तो हमराह हूँ 'सौदा'
दफ़नाएँ उसे 'मुसहफ़ी'-ओ-'नासिख़'-ओ-'इंशा'
ये फ़ाल हर इक दफ़्तर-ए-मंज़ूम से निकले
उर्दू का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले

बद-ज़ौक़ है अहबाब से गो ज़ौक़ हैं रंजूर
उर्दू-ए-मुअ'ल्ला के न मातम से रहें दूर
तल्क़ीन सर-ए-क़ब्र पढ़ें मोमिन-ए-मग़्फ़ूर
फ़रियाद दिल-ए-'ग़ालिब'-ए-मरहूम से निकले

उर्दू का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले
है मर्सियाँ-ख़्वाँ क़ौम हैं उर्दू के बहुत कम
कह दो कि 'अनीस' इस का लिखें मर्सिया-ए-ग़म
जन्नत से 'दबीर' आ के पढ़ें नौहा-ए-मातम

ये चीख़ उठे दिल से न हुल्क़ूम से निकले
उर्दू का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले
इस लाश को चुपके से कोई दफ़न न कर दे
पहले कोई 'सरसय्यद'-ए-आज़म को ख़बर दे

वो मर्द-ए-ख़ुदा हम में नई रूह तो भर दे
वो रूह कि मौजूद न मा'दूम से निकले
उर्दू का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले
उर्दू के जनाज़े की ये सज-धज हो निराली

सफ़-बस्ता हों मरहूमा के सब वारिस-ओ-वाली
'आज़ाद'-ओ-'नज़ीर'-ओ-'शरर'-ओ-'शिबली'-ओ-'हाली'
फ़रियाद ये सब के दिल-ए-मग़्मूम से निकले
उर्दू का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले

16 दिसंबर 2021

If We Must Die

If we must die, let it not be like hogs
Hunted and penned in an inglorious spot,
While round us bark the mad and hungry dogs,
Making their mock at our accursèd lot.
If we must die, O let us nobly die,
So that our precious blood may not be shed
In vain; then even the monsters we defy
Shall be constrained to honor us though dead!
O kinsmen! we must meet the common foe!
Though far outnumbered let us show us brave,
And for their thousand blows deal one death-blow!
What though before us lies the open grave?
Like men we’ll face the murderous, cowardly pack,
Pressed to the wall, dying, but fighting back!

10 दिसंबर 2021

काली मिट्टी काले घर

काली मिट्टी काले घर
दिनभर बैठे-ठाले घर

काली नदिया काला धन
सूख रहे हैं सारे बन

काला सूरज काले हाथ
झुके हुए हैं सारे माथ

काली बहसें काला न्याय
खाली मेज पी रही चाय

काले अक्षर काली रात
कौन करे अब किससे बात

काली जनता काला क्रोध
काला-काला है युगबोध

--- केदारनाथ सिंह