25 अक्टूबर 2010

ग़म-ए-दुनिया से गर पायी भी फ़ुरसत सर उठाने की

ग़म-ए-दुनिया से गर पायी भी फ़ुरसत सर उठाने की
तो फिर कोशिश करेंगे हम भी कुछ कुछ मुस्कुराने की

सुनी थी बात घर की चाँद पर दादी के किस्सों में
हकीक़त हो ही जाएगी वहां अब आशियाने की

बशर के बीच पहले भेद करते हैं सियासतदां
ज़रूरत फिर जताते हैं किसी कौमी तराने की

वतन की नींव में मिटटी जमा है जिन शहीदों की
कभी भी भूल ना करना उन्हें तुम भूल जाने की

नगर में जब से बच्चे रह गए और गाँव में दादी
लगाये कौन फिर आवाज़ परियों को बुलाने की

जलायोगे दिए तूफां में अपने हौसलों के गर
कोई आंधी नहीं कर पायेगी हिम्मत बुझाने की

नदी के वेग को ज्यादा नहीं तुम बाँध पाओगे
जो हद हो जाएगी तो ठान लेगी सब मिटाने की

कहा तुमसे अगर कुछ तो उसे क्या मान लोगे तुम
शिकायत फिर तुम्हें मुझसे है क्यूँ कुछ ना बताने की

सभी रंग उनके चेहरे पर लगे हैं प्यार के खिलने
ज़रूरत ही नहीं उनको हिना के अब रचाने की

यही किस्मत है क्या सच्ची मोहब्बत करने वालों की
उन्हें बस ठोकरें मिलती रहें सारे ज़माने

---ममता_किरण

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