कमर बांधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं ।
बहोत आगे गए, बाक़ी जो हैं तैयार बैठे हैं ।।
न छेड़ ए निक़हत-ए-बाद-ए-बहारी, राह लग अपनी ।
तुझे अटखेलियाँ सूझी हैं, हम बेज़ार बैठे हैं ।।
तसव्वुर अर्श पर है और सर है पा-ए-साक़ी पर ।
ग़र्ज़ कुछ और धुन में इस घड़ी मय-ख़्वार बैठे हैं ।।
बसाने नक़्शपाए रहरवाँ कू-ए-तमन्ना में ।
नहीं उठने की ताक़त, क्या करें? लाचार बैठे हैं ।।
यह अपनी चाल है उफ़तादगी से इन दिनों पहरों तक ।
नज़र आया जहां पर साया-ए-दीवार बैठे हैं ।।
कहाँ सब्र-ओ-तहम्मुल? आह! नंगोंनाम क्या शै है ।
मियाँ! रो-पीटकर इन सबको हम यकबार बैठे हैं ।।
नजीबों का अजब कुछ हाल है इस दौर में यारो ।
जहाँ पूछो यही कहते हैं, "हम बेकार बैठे हैं" ।।
भला गर्दिश फ़लक की चैन देती है किसे इंशा !
ग़़नीमत है कि हम सूरत यहाँ दो-चार बैठे हैं ।
~ "इंशा" अल्लाह खां
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