1. बंजर जमीनों को शहर बनाने के बाद, हमें एहसास हुआ की गाँव अच्छा था - पिनाक मोढ़ा
2. ये अलग बात है कि ख़ामोश खड़े रहते हैं, फिर भी जो लोग बड़े हैं, वो बड़े रहते हैं ~राहत इंदौरी
3. पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला, मैं मोम हूँ उस ने मुझे छू कर नहीं देखा -बशीर बद्र
4. और क्या था बेचने के लिए, अपनी आँखों के ख़्वाब बेचे हैं। -जौन एलिया
5. फ़क़ीराना आए सदा कर चले, मियाँ ख़ुश रहो दुआ कर चले - मीर तकि मीर
6. बाग़बाँ दिल से वतन को ये दुआ देता है, मैं रहूँ या न रहूँ ये चमन आबाद रहे। - बृजनारायण चकबस्त
7. उठाओ हाथ कि दस्त-ए-दुआ बुलंद करें, हमारी उम्र का एक और दिन तमाम हुआ - अख़्तरुल ईमान
8. हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे, कहते हैं कि गालिब का है अन्दाज-ए-बयां और - मिर्ज़ा ग़ालिब
9. मैं इन दिनों हूँ ख़ुद से इतना बेख़बर, मैं बुझ चुका हूँ और मुझे पता नहीं -तहज़ीब हाफ़ी
10. वादा-ए-यार की बात न छेड़ो, ये धोखा भी खा रक्खा है. - नासिर काज़मी
11. कह दिया तू ने जो मा'सूम तो हम हैं मा'सूम, कह दिया तू ने गुनहगार गुनहगार हैं हम - फ़िराक़ गोरखपुरी
12. ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ, हम अपने शहर में होते तो घर चले जाते - उम्मीद फ़ाज़ली
13. कौन सीखा है सिर्फ बातों से सबको एक हादसा ज़रूरी है - जौन एलिया
14. रात ही रात में तमाम तय हुए उम्र के मक़ाम, हो गई ज़िंदगी की शाम अब मैं सहर को क्या करूं - हफ़ीज़ जालंधरी
15. फ़ारेहा क्या बहुत जरूरी है हर किसी शेरसाज़ को पढ़ना, मेरे ग़ुस्से के बाद भी तुमने नहीं छोड़ा मजाज़ को पढ़ना -जौन एलिया
16 जून 2025
12 जून 2025
Hummingbird
Not just how
it hung so still
in the quick of its wings,
all gem and temper
anchored in air;
not just the way
it moved from shelf
to shelf of air,
up down, here there,
without moving;
not just how it flicked
its tongue's thread
through each butter-yellow
foxglove flower
for its fix of sugar;
not just the vest's
electric emerald,
the scarf's scarlet,
not just the fury
of its berry-sized heart,
but also how the bird
would soon be found
in a tree nearby,
quiet as moss at the end
of a bare branch,
wings closed around
its sweetening being,
and then how light
might touch its throat
and make it glow,
as if it were the tip
of a cigarette
smouldering
on the lip of a world,
whose face,
in the lake's hush
and the stir of leaves,
might appear
for a moment
it hung so still
in the quick of its wings,
all gem and temper
anchored in air;
not just the way
it moved from shelf
to shelf of air,
up down, here there,
without moving;
not just how it flicked
its tongue's thread
through each butter-yellow
foxglove flower
for its fix of sugar;
not just the vest's
electric emerald,
the scarf's scarlet,
not just the fury
of its berry-sized heart,
but also how the bird
would soon be found
in a tree nearby,
quiet as moss at the end
of a bare branch,
wings closed around
its sweetening being,
and then how light
might touch its throat
and make it glow,
as if it were the tip
of a cigarette
smouldering
on the lip of a world,
whose face,
in the lake's hush
and the stir of leaves,
might appear
for a moment
8 जून 2025
न मोहब्बत न दोस्ती के लिए
न मोहब्बत न दोस्ती के लिए
वक्त रुकता नहीं किसी के लिए
दिल को अपने सज़ा न दे यूँ ही
इस ज़माने की बेरुखी के लिए
कल जवानी का हश्र क्या होगा
सोच ले आज दो घड़ी के लिए
हर कोई प्यार ढूंढता है यहाँ
अपनी तनहा सी ज़िन्दगी के लिए
वक्त के साथ साथ चलता रहे
यही बेहतर है आदमी के लिए
वक्त रुकता नहीं किसी के लिए
दिल को अपने सज़ा न दे यूँ ही
इस ज़माने की बेरुखी के लिए
कल जवानी का हश्र क्या होगा
सोच ले आज दो घड़ी के लिए
हर कोई प्यार ढूंढता है यहाँ
अपनी तनहा सी ज़िन्दगी के लिए
वक्त के साथ साथ चलता रहे
यही बेहतर है आदमी के लिए
--- सुदर्शन फ़ाकिर
3 जून 2025
Zhuravli (Cranes)
Sometimes I feel that all those fallen soldiers,
Who never left the bloody battle zones,
Have not been buried to decay and molder,
But turned into white cranes that softly groan.
And thus, until these days since those bygone times
They have been flying calling us with cries.
Isn’t it why we often hear those sad chimes
And calmly freeze, while looking in the skies?
A tired flock of cranes still flies – their wings flap.
Birds glide into the twilight, roaming free.
In their formation I can see a small gap –
It might be so, that space is meant for me.
The day shall come, when in the mist of ashen
My final rest among those cranes I’ll find,
From the skies calling – in a bird-like fashion –
All those of you, who I’ll have left behind.
Sometimes I feel that all those fallen soldiers,
Who never left the bloody battle zones,
Have not been buried to decay and molder,
But turned into white cranes that softly groan…
--- Rasul Gazmatov (English translation by an American poet, Leo Schwartzberg)
Who never left the bloody battle zones,
Have not been buried to decay and molder,
But turned into white cranes that softly groan.
And thus, until these days since those bygone times
They have been flying calling us with cries.
Isn’t it why we often hear those sad chimes
And calmly freeze, while looking in the skies?
A tired flock of cranes still flies – their wings flap.
Birds glide into the twilight, roaming free.
In their formation I can see a small gap –
It might be so, that space is meant for me.
The day shall come, when in the mist of ashen
My final rest among those cranes I’ll find,
From the skies calling – in a bird-like fashion –
All those of you, who I’ll have left behind.
Sometimes I feel that all those fallen soldiers,
Who never left the bloody battle zones,
Have not been buried to decay and molder,
But turned into white cranes that softly groan…
--- Rasul Gazmatov (English translation by an American poet, Leo Schwartzberg)
28 मई 2025
भले दिनों की बात थी
भले दिनों की बात थी
भली सी एक शक्ल थी
ना ये कि हुस्ने ताम हो
ना देखने में आम सी
ना ये कि वो चले तो कहकशां सी रहगुजर लगे
मगर वो साथ हो तो फिर भला भला सफ़र लगे
कोई भी रुत हो उसकी छब
फ़जा का रंग रूप थी
वो गर्मियों की छांव थी
वो सर्दियों की धूप थी
ना मुद्दतों जुदा रहे
ना साथ सुबहो शाम हो
ना रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद
ना ये कि इज्ने आम हो
ना ऐसी खुश लिबासियां
कि सादगी हया करे
ना इतनी बेतकल्लुफ़ी
की आईना हया करे
ना इखतिलात में वो रम
कि बदमजा हो ख्वाहिशें
ना इस कदर सुपुर्दगी
कि ज़िच करे नवाजिशें
ना आशिकी ज़ुनून की
कि ज़िन्दगी अजाब हो
ना इस कदर कठोरपन
कि दोस्ती खराब हो
कभी तो बात भी खफ़ी
कभी सुकूत भी सुखन
कभी तो किश्ते ज़ाफ़रां
कभी उदासियों का बन
सुना है एक उम्र है
मुआमलाते दिल की भी
विसाले-जाँफ़िजा तो क्या
फ़िराके-जाँ-गुसल की भी
सो एक रोज क्या हुआ
वफ़ा पे बहस छिड़ गई
मैं इश्क को अमर कहूं
वो मेरी ज़िद से चिढ़ गई
मैं इश्क का असीर था
वो इश्क को कफ़स कहे
कि उम्र भर के साथ को
वो बदतर अज़ हवस कहे
भली सी एक शक्ल थी
ना ये कि हुस्ने ताम हो
ना देखने में आम सी
ना ये कि वो चले तो कहकशां सी रहगुजर लगे
मगर वो साथ हो तो फिर भला भला सफ़र लगे
कोई भी रुत हो उसकी छब
फ़जा का रंग रूप थी
वो गर्मियों की छांव थी
वो सर्दियों की धूप थी
ना मुद्दतों जुदा रहे
ना साथ सुबहो शाम हो
ना रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद
ना ये कि इज्ने आम हो
ना ऐसी खुश लिबासियां
कि सादगी हया करे
ना इतनी बेतकल्लुफ़ी
की आईना हया करे
ना इखतिलात में वो रम
कि बदमजा हो ख्वाहिशें
ना इस कदर सुपुर्दगी
कि ज़िच करे नवाजिशें
ना आशिकी ज़ुनून की
कि ज़िन्दगी अजाब हो
ना इस कदर कठोरपन
कि दोस्ती खराब हो
कभी तो बात भी खफ़ी
कभी सुकूत भी सुखन
कभी तो किश्ते ज़ाफ़रां
कभी उदासियों का बन
सुना है एक उम्र है
मुआमलाते दिल की भी
विसाले-जाँफ़िजा तो क्या
फ़िराके-जाँ-गुसल की भी
सो एक रोज क्या हुआ
वफ़ा पे बहस छिड़ गई
मैं इश्क को अमर कहूं
वो मेरी ज़िद से चिढ़ गई
मैं इश्क का असीर था
वो इश्क को कफ़स कहे
कि उम्र भर के साथ को
वो बदतर अज़ हवस कहे
शजर हजर नहीं कि हम
हमेशा पा ब गिल रहें
ना ढोर हैं कि रस्सियां
गले में मुस्तकिल रहें
मोहब्बतें की वुसअतें
हमारे दस्तो पा में हैं
बस एक दर से निस्बतें
सगाने-बावफ़ा में हैं
मैं कोई पेन्टिंग नहीं
कि एक फ़्रेम में रहूं
वही जो मन का मीत हो
उसी के प्रेम में रहूं
तुम्हारी सोच जो भी हो
मैं उस मिजाज की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है
ये बात आज की नहीं
न उसको मुझपे मान था
न मुझको उसपे ज़ोम ही
जो अहद ही कोई ना हो
तो क्या गमे शिकस्तगी
सो अपना अपना रास्ता
हंसी खुशी बदल दिया
वो अपनी राह चल पड़ी
मैं अपनी राह चल दिया
भली सी एक शक्ल थी
भली सी उसकी दोस्ती
अब उसकी याद रात दिन
नहीं, मगर कभी कभी
हमेशा पा ब गिल रहें
ना ढोर हैं कि रस्सियां
गले में मुस्तकिल रहें
मोहब्बतें की वुसअतें
हमारे दस्तो पा में हैं
बस एक दर से निस्बतें
सगाने-बावफ़ा में हैं
मैं कोई पेन्टिंग नहीं
कि एक फ़्रेम में रहूं
वही जो मन का मीत हो
उसी के प्रेम में रहूं
तुम्हारी सोच जो भी हो
मैं उस मिजाज की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है
ये बात आज की नहीं
न उसको मुझपे मान था
न मुझको उसपे ज़ोम ही
जो अहद ही कोई ना हो
तो क्या गमे शिकस्तगी
सो अपना अपना रास्ता
हंसी खुशी बदल दिया
वो अपनी राह चल पड़ी
मैं अपनी राह चल दिया
भली सी एक शक्ल थी
भली सी उसकी दोस्ती
अब उसकी याद रात दिन
नहीं, मगर कभी कभी
--- अहमद फ़राज़
हुस्न ताम - पूरा शबाब, कहकशां - आकाशगंगा, इज्ने आम - सभी को इजाजत
हया - शर्म, इखतिलात - दोस्ती, रम - वहशत, खफ़ी - छिपी हुई, चुप्पी
किश्ते ज़ाफ़राँ - केसर की क्यारी, विसाले जाँफ़िजा - प्राणवर्धक मिलन,
फ़िराके जाँ गुसिल - प्राण घातक दूरी, असीर - कैदी, कफ़स - पिन्जरा, कैद खाना,
अज हवस - हवस से भी खराब, शजर - पेड, हजर - पत्थर, पा-ब-गिल - विवश
मुस्तकिल - लगातार, वुसअतें - लम्बाई, चौड़ाई, दस्तो-पा - हाथ, पैर, निस्बतें - संबन्ध
सगाने-बावफ़ा - वफ़ादार कुत्ते, ज़ोम - गुमान, अहद - वचन बद्धता, गमे शिकस्तगी - टूटने का गम
22 मई 2025
जंगल जंगल बात चली है (Jungle Book) (Old Doordarshan Serial Title Song)
जंगल जंगल बात चली है
पता चला है..
जंगल जंगल बात चली है।
पता चला है..
अरे चड्डी पहन के फूल खिला है
फूल खिला है
अरे चड्डी पहन के फूल खिला हैं
फूल खिला है
जंगल जंगल पता चला है,
चड्डी पहन के फूल खिला है
जंगल जंगल पता चला है,
चड्डी पहन के फूल खिला है
एक परिंदा है शर्मिंदा,
था वो नंगा
भाई इससे तो अंडे के अंदर,
था वो चंगा
सोच रहा है
बाहर आखिर क्यों निकला है
अरे चड्डी पहन के फूल खिला है
फूल खिला है
---गुलज़ार
17 मई 2025
अछूत की शिकायत (भोजपुरी कविता)
हमनी के रात-दिन दुखवा भोगत बानी,
हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइब।
हमनी के दुख भगवनओं न देखताजे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइब।
पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधरम होके रंगरेज बनि जाइब।
हाय राम! धरम न छोड़त बनत बाजे,
बे-धरम होके कैसे मुंखवा दिखाइब।।
खम्भवा के फारि पहलाद के बंचवले जां
ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले।
धोती जुरजोधना कै भैया छोरत रहै,
परगट होकै तहां कपड़ा बढ़वले।
मरले रवनवां कै पलले भभिखना के,
कानी अंगुरी पै धर के पथरा उठवले।
कहंवा सुतल बाटे सुनत न वारे अब,
डोम जानि हमनी के छुए डेरइले।।
हमनी के राति दिन मेहनत करीले जां,
दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।
ठकुरे के सुख सेत घर में सुतल बानी,
हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि।
हाकिमे के लसकरि उतरल बानी,
जेत उहओ बेगरिया में पकरल जाइबि।
मुंह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानी,
ई कुलि खबर सरकार के सुनाइबि।।
बमने के लेखे हम भिखिया न मांगव जां,
ठकुरे के लेखे नहिं लडरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम मारब जां,
अहिरा के लेखे नहिं गइया चोराइबि।
भंटऊ के लेखे न कबित्त हम जोरबा जां,
पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइब।
अपने पसिनवा के पैसा कमाइब जां,
घर भर मिलि जुलि बांटि चोंटि खाइब।।
हड़वा मसुइया के देहियां है हमनी कै;
ओकारै कै देहियां बमनऊ के बानी।
ओकरा के घरे घरे पुजवा होखत बाजे
सगरै इलकवा भइलैं जजमानी।
हमनी के इतरा के निगिचे न जाइलेजां,
पांके में से भरि-भरि पिअतानी पानी।
पनहीं से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमनी के एतनी काही के हलकानी।।
--- कवि हीरा डोम ( सितम्बर 1914 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित)
हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइब।
हमनी के दुख भगवनओं न देखताजे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइब।
पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधरम होके रंगरेज बनि जाइब।
हाय राम! धरम न छोड़त बनत बाजे,
बे-धरम होके कैसे मुंखवा दिखाइब।।
खम्भवा के फारि पहलाद के बंचवले जां
ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले।
धोती जुरजोधना कै भैया छोरत रहै,
परगट होकै तहां कपड़ा बढ़वले।
मरले रवनवां कै पलले भभिखना के,
कानी अंगुरी पै धर के पथरा उठवले।
कहंवा सुतल बाटे सुनत न वारे अब,
डोम जानि हमनी के छुए डेरइले।।
हमनी के राति दिन मेहनत करीले जां,
दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।
ठकुरे के सुख सेत घर में सुतल बानी,
हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि।
हाकिमे के लसकरि उतरल बानी,
जेत उहओ बेगरिया में पकरल जाइबि।
मुंह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानी,
ई कुलि खबर सरकार के सुनाइबि।।
बमने के लेखे हम भिखिया न मांगव जां,
ठकुरे के लेखे नहिं लडरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम मारब जां,
अहिरा के लेखे नहिं गइया चोराइबि।
भंटऊ के लेखे न कबित्त हम जोरबा जां,
पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइब।
अपने पसिनवा के पैसा कमाइब जां,
घर भर मिलि जुलि बांटि चोंटि खाइब।।
हड़वा मसुइया के देहियां है हमनी कै;
ओकारै कै देहियां बमनऊ के बानी।
ओकरा के घरे घरे पुजवा होखत बाजे
सगरै इलकवा भइलैं जजमानी।
हमनी के इतरा के निगिचे न जाइलेजां,
पांके में से भरि-भरि पिअतानी पानी।
पनहीं से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमनी के एतनी काही के हलकानी।।
--- कवि हीरा डोम ( सितम्बर 1914 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित)
11 मई 2025
'भारत'
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए
बाक़ी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते है
इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में है
जो आज भी वृक्षों की परछाइओं से
वक़्त मापते है
उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते है
उनके लिए ज़िन्दगी एक परम्परा है
और मौत के अर्थ है मुक्ति
जब भी कोई समूचे भारत की
'राष्ट्रीय एकता' की बात करता है
तो मेरा दिल चाहता है --
उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ
उसे बताऊँ
के भारत के अर्थ
किसी दुष्यन्त से सम्बन्धित नहीं
वरन खेत में दायर है
जहाँ अन्न उगता है
जहाँ सेंध लगती है
--- पाश
जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए
बाक़ी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते है
इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में है
जो आज भी वृक्षों की परछाइओं से
वक़्त मापते है
उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते है
उनके लिए ज़िन्दगी एक परम्परा है
और मौत के अर्थ है मुक्ति
जब भी कोई समूचे भारत की
'राष्ट्रीय एकता' की बात करता है
तो मेरा दिल चाहता है --
उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ
उसे बताऊँ
के भारत के अर्थ
किसी दुष्यन्त से सम्बन्धित नहीं
वरन खेत में दायर है
जहाँ अन्न उगता है
जहाँ सेंध लगती है
--- पाश
6 मई 2025
A poem from the anthology 'The country without a post office'
Yes, I remember it,
the day I’ll die, I broadcast the crimson,
so long of that sky, its spread air,
its rushing dyes, and a piece of earth
bleeding, apart from the shore, as we went
on the day I’ll die, past the guards, and he,
two yards he rowed me into the sunset,
past all pain. On everyone’s lips was news
of my death but only that beloved couplet,
broken, on his:
“If there is a paradise on earth,
It is this, it is this, it is this.”
(for Vidur Wazir)
the day I’ll die, I broadcast the crimson,
so long of that sky, its spread air,
its rushing dyes, and a piece of earth
bleeding, apart from the shore, as we went
on the day I’ll die, past the guards, and he,
two yards he rowed me into the sunset,
past all pain. On everyone’s lips was news
of my death but only that beloved couplet,
broken, on his:
“If there is a paradise on earth,
It is this, it is this, it is this.”
(for Vidur Wazir)
--- Agha Shahid Ali
30 अप्रैल 2025
Gullak (गुल्लक) Theme Song
कभी अक्कड़ थी, कभी बक्कड़ थी
कभी टेढ़ी थी, कभी मेढ़ी थी
कभी अक्कड़ थी, कभी बक्कड़ थी
कभी टेढ़ी थी, कभी मेढ़ी थी
थोड़ी अकड़ी थी, थोड़ी जकड़ी थी
पर लपक के हमने पकड़ी थी
थोड़ी गीली थी, थोड़ी dry थी
कभी low सी थी, कभी high थी
घुल जाए तो इलायची
घिस जाती तो अदरक थी
छँटे कोहरे सी, बासी तहरी सी
बातों की दातुन से चलती
Unlimited WiFi थी
Slowly, slowly भगाई थी
हम सब के हिस्से आई थी
हम सब ने गले लगाई थी
एक चम्मच थी, पर too much थी
कभी टेढ़ी थी, कभी मेढ़ी थी
कभी अक्कड़ थी, कभी बक्कड़ थी
कभी टेढ़ी थी, कभी मेढ़ी थी
थोड़ी अकड़ी थी, थोड़ी जकड़ी थी
पर लपक के हमने पकड़ी थी
थोड़ी गीली थी, थोड़ी dry थी
कभी low सी थी, कभी high थी
घुल जाए तो इलायची
घिस जाती तो अदरक थी
ये ज़िंदगी यादों की गुल्लक सी
गुल्लक सी गुल्लक सी
ये ज़िंदगी यादों की गुल्लक सी
गुल्लक सी गुल्लक सी
बाबू-लल्ला, हल्ला-गुल्ला
चैं-चैं, पौं-पौं हो गईल ईह मुहल्ला
बाबू-लल्ला, हल्ला-गुल्ला
चैं-चैं, पौं-पौं हो गईल ईह मुहल्ला
हाँ, ऊनी गेंदों सी, फटी जेबों सी
छँटे कोहरे सी, बासी तहरी सी
ऊनी गेंदों सी, फटी जेबों सी
गुल्लक सी गुल्लक सी
ये ज़िंदगी यादों की गुल्लक सी
गुल्लक सी गुल्लक सी
बाबू-लल्ला, हल्ला-गुल्ला
चैं-चैं, पौं-पौं हो गईल ईह मुहल्ला
बाबू-लल्ला, हल्ला-गुल्ला
चैं-चैं, पौं-पौं हो गईल ईह मुहल्ला
हाँ, ऊनी गेंदों सी, फटी जेबों सी
छँटे कोहरे सी, बासी तहरी सी
ऊनी गेंदों सी, फटी जेबों सी
छँटे कोहरे सी, बासी तहरी सी
बातों की दातुन से चलती
Unlimited WiFi थी
फ़ुरसत का petrol पड़ा के
Slowly, slowly भगाई थी
हम सब के हिस्से आई थी
हम सब ने गले लगाई थी
एक चम्मच थी, पर too much थी
ये ज़िंदगी यादों की गुल्लक सी
गुल्लक सी, गुल्लक सी
ये ज़िंदगी यादों की गुल्लक सी
ज़िंदगी गुल्लक सी
गुल्लक सी, गुल्लक सी
ये ज़िंदगी यादों की गुल्लक सी
ज़िंदगी गुल्लक सी
25 अप्रैल 2025
ना नर में कोई राम बचा
ना नर में कोई राम बचा,
नारी में ना कोई सीता है !
ना धरा बचाने के खातिर,
विष कोई शंकर पीता है !!
ना श्रीकृष्ण सा धर्म-अधर्म का,
किसी में ज्ञान बचा है!
ना हरिश्चंद्र सा सत्य,
किसी के अंदर रचा बसा है !!
न गौतम बुद्ध सा धैर्य बचा,
न नानक जी सा परम त्याग !
बस नाच रही है नर के भीतर
प्रतिशोध की कुटिल आग !!
फिर बोलो की उस स्वर्णिम युग का,
क्या अंश बाकि तुम में !
कि किसकी धुनी में रम कर फुले नहीं समाते हो,
तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…
तुम भीष्म पितामह की भांति,
अपने ही जिद पर अड़े रहे !
तुम शकुनि के षणयंत्रो से, घृणित रहे, तुम दंग रहे,
तुम कर्ण के जैसे भी होकर, दुर्योधन दल के संग रहे !!
एक दुर्योधन फिर,
सत्ता के लिए युद्ध में जाता है !
कुछ धर्मांधो के अन्दर फिर
थोड़ा धर्म जगाता है !!
फिर धर्म की चिलम में नफ़रत की
चिंगारी से आग लगाकर!
चरस की धुँआ फुक-फुक कर, मतवाले होते जाते है,
तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…
--- शुभम शाम
नारी में ना कोई सीता है !
ना धरा बचाने के खातिर,
विष कोई शंकर पीता है !!
ना श्रीकृष्ण सा धर्म-अधर्म का,
किसी में ज्ञान बचा है!
ना हरिश्चंद्र सा सत्य,
किसी के अंदर रचा बसा है !!
न गौतम बुद्ध सा धैर्य बचा,
न नानक जी सा परम त्याग !
बस नाच रही है नर के भीतर
प्रतिशोध की कुटिल आग !!
फिर बोलो की उस स्वर्णिम युग का,
क्या अंश बाकि तुम में !
कि किसकी धुनी में रम कर फुले नहीं समाते हो,
तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…
तुम भीष्म पितामह की भांति,
अपने ही जिद पर अड़े रहे !
तुम शकुनि के षणयंत्रो से, घृणित रहे, तुम दंग रहे,
तुम कर्ण के जैसे भी होकर, दुर्योधन दल के संग रहे !!
एक दुर्योधन फिर,
सत्ता के लिए युद्ध में जाता है !
कुछ धर्मांधो के अन्दर फिर
थोड़ा धर्म जगाता है !!
फिर धर्म की चिलम में नफ़रत की
चिंगारी से आग लगाकर!
चरस की धुँआ फुक-फुक कर, मतवाले होते जाते है,
तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…
--- शुभम शाम
20 अप्रैल 2025
15 बेहतरीन शेर - 15 !!!
1. क़रार दिल को सदा जिस के नाम से आया, वो आया भी तो किसी और काम से आया - ज़माल एहसानी
2. किस सलीक़े से मता-ए-होश हम खोते रहे, गर्द चेहरे पर जमी थी आइना धोते रहे - असर फ़ैज़ाबादी
3. वो इंतिक़ाम की आतिश थी मेरे सीने में, मिला न कोई तो ख़ुद को पछाड़ आया हूँ - जमाल एहसानी
4. तितलियाँ यूँ ही नहीं बैठ रही हैं तुम पर, बारहा तुमको भी फूलों में गिना जाता है - नासिर खान नासिर
5. जो देखता हूँ वही बोलने का आदी हूँ, मैं अपने शहर का सब से बड़ा फ़सादी हूँ - अज्ञात
6. सेंक देता था जो जाड़े में ग़रीबों के बदन, आज उस सूरज को इक दीवार उठ कर खा गई - नज़ीर बनारसी
7. उस शहर में कितने चेहरे थे कुछ याद नहीं सब भूल गए, इक शख़्स किताबों जैसा था वो शख़्स ज़बानी याद हुआ - नोशी गिलानी
8. हमारी बेबसी शहरों की दीवारों पे चिपकी है, हमें ढूँडेगी कल दुनिया पुराने इश्तिहारों में ~ अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
9. मैं दोस्ती में हर एक बढ़ता हाथ चूमता हूँ, बस शर्त ये हैं कि बन्दा नमक हराम न हो - राकिब मुख़्तार
10. अब नहीं कोई बात ख़तरे की, अब सभी को सभी से ख़तरा है। - जौन एलिया
11. नुक्स निकालते हैं लोग कुछ इस कदर हम में , जैसे उन्हें खुदा चाहिए था और हम इंसान मिल गए। - अज्ञात
12. उम्मीदें इंसान से लगा कर शिकवा खुदा से करते हो, तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो... - अज्ञात
13. रियाज़ मौत है इस शर्त से हमें मंज़ूर, ज़मीं सताये ना मरने पे आसमान की तरह - रियाज़ ख़ैराबादी
14. ऐ दिल! न अक़ीदा है दवा पर, न दुआ पर कम-बख़्त तुझे छोड़ दिया हम ने ख़ुदा पर...!!! - सफ़ी औरंगाबादी
15. ज़ाहिद का दिल न ख़ातिर-ए-मय-ख़्वार तोड़िए, सौ बार तौबा कीजिए, सौ बार तोड़िए...!!! - जिगर मुरादाबादी
2. किस सलीक़े से मता-ए-होश हम खोते रहे, गर्द चेहरे पर जमी थी आइना धोते रहे - असर फ़ैज़ाबादी
3. वो इंतिक़ाम की आतिश थी मेरे सीने में, मिला न कोई तो ख़ुद को पछाड़ आया हूँ - जमाल एहसानी
4. तितलियाँ यूँ ही नहीं बैठ रही हैं तुम पर, बारहा तुमको भी फूलों में गिना जाता है - नासिर खान नासिर
5. जो देखता हूँ वही बोलने का आदी हूँ, मैं अपने शहर का सब से बड़ा फ़सादी हूँ - अज्ञात
6. सेंक देता था जो जाड़े में ग़रीबों के बदन, आज उस सूरज को इक दीवार उठ कर खा गई - नज़ीर बनारसी
7. उस शहर में कितने चेहरे थे कुछ याद नहीं सब भूल गए, इक शख़्स किताबों जैसा था वो शख़्स ज़बानी याद हुआ - नोशी गिलानी
8. हमारी बेबसी शहरों की दीवारों पे चिपकी है, हमें ढूँडेगी कल दुनिया पुराने इश्तिहारों में ~ अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
9. मैं दोस्ती में हर एक बढ़ता हाथ चूमता हूँ, बस शर्त ये हैं कि बन्दा नमक हराम न हो - राकिब मुख़्तार
10. अब नहीं कोई बात ख़तरे की, अब सभी को सभी से ख़तरा है। - जौन एलिया
11. नुक्स निकालते हैं लोग कुछ इस कदर हम में , जैसे उन्हें खुदा चाहिए था और हम इंसान मिल गए। - अज्ञात
12. उम्मीदें इंसान से लगा कर शिकवा खुदा से करते हो, तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो... - अज्ञात
13. रियाज़ मौत है इस शर्त से हमें मंज़ूर, ज़मीं सताये ना मरने पे आसमान की तरह - रियाज़ ख़ैराबादी
14. ऐ दिल! न अक़ीदा है दवा पर, न दुआ पर कम-बख़्त तुझे छोड़ दिया हम ने ख़ुदा पर...!!! - सफ़ी औरंगाबादी
15. ज़ाहिद का दिल न ख़ातिर-ए-मय-ख़्वार तोड़िए, सौ बार तौबा कीजिए, सौ बार तोड़िए...!!! - जिगर मुरादाबादी
15 अप्रैल 2025
एक कविता पढ़ रहा था
एक कविता पढ़ रहा था
लम्बी न थी
शब्दों को सोचता हुआ
मन जाने कहाँ-कहाँ की
यात्राएँ करता रहा
आँख उठाकर देखा :
पहर बीत चला था
एक कविता और इतना समय?
अरे भोले!
एक उम्र गँवा दी थी कवि ने
इन शब्दों तक
पहुँचने के लिए
लम्बी न थी
शब्दों को सोचता हुआ
मन जाने कहाँ-कहाँ की
यात्राएँ करता रहा
आँख उठाकर देखा :
पहर बीत चला था
एक कविता और इतना समय?
अरे भोले!
एक उम्र गँवा दी थी कवि ने
इन शब्दों तक
पहुँचने के लिए
---पंकज चतुर्वेदी
9 अप्रैल 2025
प्रासादों के कनकाभ शिखर
“प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
कंचन पर कभी न सोता है.
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में.
होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
मानव होता निज तप क्षीण,
सत्ता किरीट मणिमय आसन,
करते मनुष्य का तेज हरण.
नर वैभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है.
चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
नर भले बने सुमधुर कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
आताप अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नही कहला सकता,
विघ्नों को नही हिला सकता.
उड़ते जो झंझावतों में,
पीते जो वारि प्रपातो में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं.”
--- रामधारी सिंह 'दिनकर'
महलों में गरुड़ ना होता है,
कंचन पर कभी न सोता है.
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में.
होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
मानव होता निज तप क्षीण,
सत्ता किरीट मणिमय आसन,
करते मनुष्य का तेज हरण.
नर वैभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है.
चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
नर भले बने सुमधुर कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
आताप अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नही कहला सकता,
विघ्नों को नही हिला सकता.
उड़ते जो झंझावतों में,
पीते जो वारि प्रपातो में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं.”
1 अप्रैल 2025
आराम करो
एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ -- सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
- गोपालप्रसाद व्यास
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ -- सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
- गोपालप्रसाद व्यास
25 मार्च 2025
15 बेहतरीन शेर - 14 !!!
1-तमाम उम्र ख़ुशी की तलाश में गुज़री, तमाम उम्र तरसते रहे ख़ुशी के लिए - अबुल मुजाहिद ज़ाहिद
2- पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है, जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है - मीर तक़ी मीर
3- नए दौर के नए ख़्वाब हैं नए मौसमों के गुलाब हैं, ये मोहब्बतों के चराग़ हैं इन्हें नफ़रतों की हवा न दे- बशीर बद्र
4-जो लोग मौत को ज़ालिम क़रार देते हैं, ख़ुदा मिलाए उन्हें ज़िंदगी के मारों से - नज़ीर सिद्दीक़ी
5- चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है, हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम - सरशार सैलानी
6- ये कोई क़त्ल थोड़ी है कि बात आई-गई हो, मैं और अपना नज़र-अंदाज़ होना भूल जाऊँ? - जव्वाद शेख़
7- अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल, हम वो नहीं कि जिन को ज़माना बना गया - जिगर मुरादाबादी
8- मैंने गिनती सिखाई थी जिसको, वो पहाड़ा पढ़ा रहा है मुझे। ~ फ़हमी बदायूँनी
9- मिले खाक में नौजवां कैसे कैसे, ज़मीं खा गई आसमां कैसे कैसे - प्रेम धवन
10- उस की बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सिर पर , ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ...!!! - अकबर इलाहाबादी
2- पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है, जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है - मीर तक़ी मीर
4-जो लोग मौत को ज़ालिम क़रार देते हैं, ख़ुदा मिलाए उन्हें ज़िंदगी के मारों से - नज़ीर सिद्दीक़ी
5- चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है, हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम - सरशार सैलानी
6- ये कोई क़त्ल थोड़ी है कि बात आई-गई हो, मैं और अपना नज़र-अंदाज़ होना भूल जाऊँ? - जव्वाद शेख़
7- अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल, हम वो नहीं कि जिन को ज़माना बना गया - जिगर मुरादाबादी
8- मैंने गिनती सिखाई थी जिसको, वो पहाड़ा पढ़ा रहा है मुझे। ~ फ़हमी बदायूँनी
9- मिले खाक में नौजवां कैसे कैसे, ज़मीं खा गई आसमां कैसे कैसे - प्रेम धवन
10- उस की बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सिर पर , ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ...!!! - अकबर इलाहाबादी
11- साहिल के सुकूँ से किसे इंकार है लेकिन, तूफ़ान से लड़ने में मज़ा और ही कुछ है - आल-ए-अहमद सुरूर
12- लोग कहते हैं बदलता है ज़माना सब को, मर्द वो हैं जो ज़माने को बदल देते हैं - अकबर इलाहाबादी
13-देख ज़िंदाँ से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार, रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख - मजरूह सुल्तानपुरी
14- इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के - मिर्ज़ा ग़ालिब
15- सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें, आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत - बशीर बद्र
20 मार्च 2025
The Language School
I
The charges might as well be read out
in Chinese, Bantu or Dravidian
or not be read at all – they drift, they loop
like light that cannot turn a corner
or soundwaves that bend in and out
of some fidelity to the original. To whom
do they cling? Another dumbstruck boy
who does not speak the English they speak
or even hear it – all nape and haircut, sat
folded up in a Jesuit clasp
with hands in his armpits, perusing
with a sort of thick-lipped composure
the platypus-nose of his left trainer, as if it had
evolved out of kilter with the rest.
II
No is the blank, the zero, the lumpy zilch,
the bijou fuck-all the question solicits
and wishes-for: the litany, the plural of no.
It is the answer the question anticipates
before asking itself, surrounding no.
Do you have anything to say in your own defence?
The hiatus, the answer-in-minus scans
the many milliseconds of a second
that hang like a threat, scaring it
way up into the corner of articulation
where it ceases to exist.
Without fuss, or noise, or anything,
without changing expression or looking up
the only yes there is nods to a no.
--- Tim Liardet
The charges might as well be read out
in Chinese, Bantu or Dravidian
or not be read at all – they drift, they loop
like light that cannot turn a corner
or soundwaves that bend in and out
of some fidelity to the original. To whom
do they cling? Another dumbstruck boy
who does not speak the English they speak
or even hear it – all nape and haircut, sat
folded up in a Jesuit clasp
with hands in his armpits, perusing
with a sort of thick-lipped composure
the platypus-nose of his left trainer, as if it had
evolved out of kilter with the rest.
II
No is the blank, the zero, the lumpy zilch,
the bijou fuck-all the question solicits
and wishes-for: the litany, the plural of no.
It is the answer the question anticipates
before asking itself, surrounding no.
Do you have anything to say in your own defence?
The hiatus, the answer-in-minus scans
the many milliseconds of a second
that hang like a threat, scaring it
way up into the corner of articulation
where it ceases to exist.
Without fuss, or noise, or anything,
without changing expression or looking up
the only yes there is nods to a no.
--- Tim Liardet
10 मार्च 2025
कपास के फूल
वे देवता को पसंद नहीं
लेकिन आश्चर्य इस पर नहीं
आश्चर्य तो ये है कि कविगण भी
लिखते नहीं कविता कपास के फूल पर
प्रेमीजन भेंट में देते नहीं उसे
कभी एक-दूसरे को
जबकि वह है कि नंगा होने से
बचाता है सबको
और सुतर गया मौसम
तो भूख और प्यास से भी
बचाता है वह
ईश्वर को तो ठंड लगती नहीं
वैसे नंगा होना भी
वहां उतना ही सहज है
उतना ही दिव्य
इसलिए इतना यह है कि ठंड के विरुद्ध
आदमी ने ही खोजा होगा
पृथ्वी पर पहला कपास का फूल
पर पहला झिंगोला
कब पहना उसने
पहले तागे से पहली सुई की
कब हुई थी भेंट
यह भूल गई है हमारी भाषा
जैसे अपनी कमीज़ पहनकर
भूल जाते हैं हम
अपने दर्ज़ी का नाम
पर क्या कभी सोचा है आपने
वह जो आपकी कमीज़ है
किसी खेत में खिला
एक कपास का फूल है
जिसे पहन रखा है आपने
जब फ़ुर्सत मिले
तो कृपया एक बार इस पर सोचें ज़रूर
कि इस पूरी कहानी में सूत से सुई तक
सब कुछ है
पर वह कहां गया
जो इसका शीर्षक था
लेकिन आश्चर्य इस पर नहीं
आश्चर्य तो ये है कि कविगण भी
लिखते नहीं कविता कपास के फूल पर
प्रेमीजन भेंट में देते नहीं उसे
कभी एक-दूसरे को
जबकि वह है कि नंगा होने से
बचाता है सबको
और सुतर गया मौसम
तो भूख और प्यास से भी
बचाता है वह
ईश्वर को तो ठंड लगती नहीं
वैसे नंगा होना भी
वहां उतना ही सहज है
उतना ही दिव्य
इसलिए इतना यह है कि ठंड के विरुद्ध
आदमी ने ही खोजा होगा
पृथ्वी पर पहला कपास का फूल
पर पहला झिंगोला
कब पहना उसने
पहले तागे से पहली सुई की
कब हुई थी भेंट
यह भूल गई है हमारी भाषा
जैसे अपनी कमीज़ पहनकर
भूल जाते हैं हम
अपने दर्ज़ी का नाम
पर क्या कभी सोचा है आपने
वह जो आपकी कमीज़ है
किसी खेत में खिला
एक कपास का फूल है
जिसे पहन रखा है आपने
जब फ़ुर्सत मिले
तो कृपया एक बार इस पर सोचें ज़रूर
कि इस पूरी कहानी में सूत से सुई तक
सब कुछ है
पर वह कहां गया
जो इसका शीर्षक था
1 मार्च 2025
For You Who Are About to Give Up
Think of what you'll miss;
the voices of children;
apples, dark wine on a table;
the smell of the spring before you're ready.
Stay.
It doesn't get better, it gets truer.
Winter. Albums. Madness.
Your grief in you like a cello
in its locked, black case.
The lemon-scent of someone who has gone.
Breathe.
Just breathe and be here.
In my darkest night, in the storm before morning,
I heard a voice
that told me it was listening.
Friend, I would sit with you
and listen.
As long as you have breath
you could be song.
As long as you have breath you could be song.
--- Joseph Fasano
the voices of children;
apples, dark wine on a table;
the smell of the spring before you're ready.
Stay.
It doesn't get better, it gets truer.
Winter. Albums. Madness.
Your grief in you like a cello
in its locked, black case.
The lemon-scent of someone who has gone.
Breathe.
Just breathe and be here.
In my darkest night, in the storm before morning,
I heard a voice
that told me it was listening.
Friend, I would sit with you
and listen.
As long as you have breath
you could be song.
As long as you have breath you could be song.
--- Joseph Fasano
22 फ़रवरी 2025
डोरेमोन थीम सॉन्ग (Doraemon Theme Song) - हिंदी
ज़िंदगी संवार दूं
इक नई बहार दूं
दुनिया ही बदल दूं मैं तो
प्यारा सा चमत्कार हूं
मैं किसी का सपना हूं
जो आज बन चुका हूं सच
अब ये मेरा सपना है कि
सब के सपने सच मैं करूं
आसमान को छू लूं
तितली बन उड़ूं
(हां... हेलीकॉप्टर)
अन अन अन...
मैं हूं इक उड़ता रोबो
डोरेमोन
अन अन अन...
मैं हूं इक उड़ता रोबो
डोरेमोन
इक नई बहार दूं
दुनिया ही बदल दूं मैं तो
प्यारा सा चमत्कार हूं
मैं किसी का सपना हूं
जो आज बन चुका हूं सच
अब ये मेरा सपना है कि
सब के सपने सच मैं करूं
आसमान को छू लूं
तितली बन उड़ूं
(हां... हेलीकॉप्टर)
अन अन अन...
मैं हूं इक उड़ता रोबो
डोरेमोन
अन अन अन...
मैं हूं इक उड़ता रोबो
डोरेमोन
14 फ़रवरी 2025
परीक्षाओं में असफल हुए पुरुष
परीक्षाओं में असफल हुए पुरुष
अक्सर प्रेम में भी असफल हो जाते हैं
विवाह की पहली रस्म
पुरुष की आय पूछना होती है
दूसरी पुरुष की आयु
तीसरी पुरुष का आवास
और चौथी, पुरुष का गोत्र
परीक्षाओं में असफल पुरुष
अक्सर गँवा बैठते हैं
आय, आयु, और आवास
परीक्षाएँ देते-देते
असफल पुरुष का
कोई गोत्र नहीं होता
न ही कोई प्रेम कहानी
असफलता उसका अस्तित्व होती है
परीक्षा उसका जीवन
शर्म, उसके हिस्से आये ढाई अक्षर
- अभिषेक शुक्ला
अक्सर प्रेम में भी असफल हो जाते हैं
विवाह की पहली रस्म
पुरुष की आय पूछना होती है
दूसरी पुरुष की आयु
तीसरी पुरुष का आवास
और चौथी, पुरुष का गोत्र
परीक्षाओं में असफल पुरुष
अक्सर गँवा बैठते हैं
आय, आयु, और आवास
परीक्षाएँ देते-देते
असफल पुरुष का
कोई गोत्र नहीं होता
न ही कोई प्रेम कहानी
असफलता उसका अस्तित्व होती है
परीक्षा उसका जीवन
शर्म, उसके हिस्से आये ढाई अक्षर
- अभिषेक शुक्ला
7 फ़रवरी 2025
फ़िरंगी का जो मैं दरबान होता
फ़िरंगी का जो मैं दरबान होता तो
जीना किस क़दर आसान होता
मेरे बच्चे भी अमरीका में पढ़ते
मैं हर गर्मी में इंग्लिस्तान होता
मेरी इंग्लिश बला की चुस्त होती
बला से जो न उर्दू दान होता
झुका के सर को हो जाता जो ‘सर’ मैं
तो लीडर भी अज़ीमुश्शान होता
ज़मीनें मेरी हर सूबें में होतीं
मैं वल्लाह सदर-ए पाकिस्तान होता
जीना किस क़दर आसान होता
मेरे बच्चे भी अमरीका में पढ़ते
मैं हर गर्मी में इंग्लिस्तान होता
मेरी इंग्लिश बला की चुस्त होती
बला से जो न उर्दू दान होता
झुका के सर को हो जाता जो ‘सर’ मैं
तो लीडर भी अज़ीमुश्शान होता
ज़मीनें मेरी हर सूबें में होतीं
मैं वल्लाह सदर-ए पाकिस्तान होता
--- हबीब जालिब
31 जनवरी 2025
January Night Prayer
Bellchimes jangle, freakish wind
Whistles icy out of desert lands
over the mountains. Janus, Lord
of winter and beginnings, riven
and shaken, with two faces,
watcher at the gates of winds and cities,
god of the wakeful:
keep me from coldhanded envy,
and petty anger. Open
my soul to the vast
dark places. Say to me, say again
nothing is taken, only given.
--- Ursula K. Le Guin
Whistles icy out of desert lands
over the mountains. Janus, Lord
of winter and beginnings, riven
and shaken, with two faces,
watcher at the gates of winds and cities,
god of the wakeful:
keep me from coldhanded envy,
and petty anger. Open
my soul to the vast
dark places. Say to me, say again
nothing is taken, only given.
--- Ursula K. Le Guin
26 जनवरी 2025
तुमने इतिहास पढ़ा
तुमने इतिहास पढ़ा
तुमने सीखा
बर्बरता के खिलाफ़ गूंज करना,
विद्रोह करना
तुमने संविधान पढ़ा
तुमने सीखा- अपने हक़ की मांग करना
तुमने सीखा- अपने अधिकारों हेतु लड़ना
तुमने पढ़ा साहित्य
तुमने सीख लिया दुनिया से प्रेम करना
तुम्हारा किताबें पढ़ना ही
दुनिया की सबसे महान क्रांति है।
--- अभिषेक पटेल 'नभ'
तुमने सीखा
बर्बरता के खिलाफ़ गूंज करना,
विद्रोह करना
तुमने संविधान पढ़ा
तुमने सीखा- अपने हक़ की मांग करना
तुमने सीखा- अपने अधिकारों हेतु लड़ना
तुमने पढ़ा साहित्य
तुमने सीख लिया दुनिया से प्रेम करना
तुम्हारा किताबें पढ़ना ही
दुनिया की सबसे महान क्रांति है।
17 जनवरी 2025
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
पत्थर को गुहर दीवार को दर कर्गस को हुमा क्या लिखना
पत्थर को गुहर दीवार को दर कर्गस को हुमा क्या लिखना
इक हश्र बपा है घर में दम घुटता है गुम्बद-ए-बे-दर में
इक शख़्स के हाथों मुद्दत से रुस्वा है वतन दुनिया-भर में
ऐ दीदा-वरो इस ज़िल्लत को क़िस्मत का लिखा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
ये अहल-ए-हश्म ये दारा-ओ-जम सब नक़्श बर-आब हैं ऐ हमदम
मिट जाएँगे सब पर्वर्दा-ए-शब ऐ अहल-ए-वफ़ा रह जाएँगे हम
हो जाँ का ज़ियाँ पर क़ातिल को मासूम-अदा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
लोगों पे ही हम ने जाँ वारी की हम ने ही उन्ही की ग़म-ख़्वारी
होते हैं तो हों ये हाथ क़लम शाएर न बनेंगे दरबारी
इब्लीस-नुमा इंसानों की ऐ दोस्त सना क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
हक़ बात पे कोड़े और ज़िंदाँ बातिल के शिकंजे में है ये जाँ
इंसाँ हैं कि सहमे बैठे हैं खूँ-ख़्वार दरिंदे हैं रक़्साँ
इस ज़ुल्म-ओ-सितम को लुत्फ़-ओ-करम इस दुख को दवा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
हर शाम यहाँ शाम-ए-वीराँ आसेब-ज़दा रस्ते गलियाँ
जिस शहर की धुन में निकले थे वो शहर दिल-ए-बर्बाद कहाँ
सहरा को चमन बन कर गुलशन बादल को रिदा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
ऐ मेरे वतन के फ़नकारो ज़ुल्मत पे न अपना फ़न वारो
ये महल-सराओं के बासी क़ातिल हैं सभी अपने यारो
विर्से में हमें ये ग़म है मिला इस ग़म को नया क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
--- हबीब जालिब
इक शख़्स के हाथों मुद्दत से रुस्वा है वतन दुनिया-भर में
ऐ दीदा-वरो इस ज़िल्लत को क़िस्मत का लिखा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
ये अहल-ए-हश्म ये दारा-ओ-जम सब नक़्श बर-आब हैं ऐ हमदम
मिट जाएँगे सब पर्वर्दा-ए-शब ऐ अहल-ए-वफ़ा रह जाएँगे हम
हो जाँ का ज़ियाँ पर क़ातिल को मासूम-अदा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
लोगों पे ही हम ने जाँ वारी की हम ने ही उन्ही की ग़म-ख़्वारी
होते हैं तो हों ये हाथ क़लम शाएर न बनेंगे दरबारी
इब्लीस-नुमा इंसानों की ऐ दोस्त सना क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
हक़ बात पे कोड़े और ज़िंदाँ बातिल के शिकंजे में है ये जाँ
इंसाँ हैं कि सहमे बैठे हैं खूँ-ख़्वार दरिंदे हैं रक़्साँ
इस ज़ुल्म-ओ-सितम को लुत्फ़-ओ-करम इस दुख को दवा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
हर शाम यहाँ शाम-ए-वीराँ आसेब-ज़दा रस्ते गलियाँ
जिस शहर की धुन में निकले थे वो शहर दिल-ए-बर्बाद कहाँ
सहरा को चमन बन कर गुलशन बादल को रिदा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
ऐ मेरे वतन के फ़नकारो ज़ुल्मत पे न अपना फ़न वारो
ये महल-सराओं के बासी क़ातिल हैं सभी अपने यारो
विर्से में हमें ये ग़म है मिला इस ग़म को नया क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
--- हबीब जालिब
7 जनवरी 2025
यह हौसला कैसे झुके
यह हौसला कैसे झुके,
यह आरज़ू कैसे रुके..
मंजिल मुश्किल तो क्या,
धुधंला साहिल तो क्या,
तन्हा ये दिल तो क्या
राह पे कांटे बिखरे अगर,
उसपे तो फिर भी चलना ही है,
शाम छुपाले सूरज मगर,
रात को एक दिन ढलना ही है,
रुत ये टल जाएगी,
हिम्मत रंग लाएगी,
सुबह फिर आएगी
यह हौसला कैसे झुके,
यह आरज़ू कैसे रुके..
होगी हमे तो रहमत अदा,
धूप कटेगी साए तले,
अपनी खुदा से है ये दुआ,
मंजिल लगाले हमको गले
जुर्रत सो बार रहे,
ऊंचा इकरार रहे,
जिंदा हर प्यार रहे
यह हौसला कैसे झुके,
यह आरज़ू कैसे रुके..
--- मीर अली हुसेन
यह आरज़ू कैसे रुके..
मंजिल मुश्किल तो क्या,
धुधंला साहिल तो क्या,
तन्हा ये दिल तो क्या
राह पे कांटे बिखरे अगर,
उसपे तो फिर भी चलना ही है,
शाम छुपाले सूरज मगर,
रात को एक दिन ढलना ही है,
रुत ये टल जाएगी,
हिम्मत रंग लाएगी,
सुबह फिर आएगी
यह हौसला कैसे झुके,
यह आरज़ू कैसे रुके..
होगी हमे तो रहमत अदा,
धूप कटेगी साए तले,
अपनी खुदा से है ये दुआ,
मंजिल लगाले हमको गले
जुर्रत सो बार रहे,
ऊंचा इकरार रहे,
जिंदा हर प्यार रहे
यह हौसला कैसे झुके,
यह आरज़ू कैसे रुके..
--- मीर अली हुसेन
1 जनवरी 2025
15 बेहतरीन शेर - 13 !!!
1. तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर, सरफ़रोशी की तमन्ना है तो सर पैदा कर - अमीर मीनाई
2. जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर, ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की - जमील मज़हरी
3. 'हफ़ीज़' अपनी बोली मोहब्बत की बोली, न उर्दू न हिन्दी न हिन्दोस्तानी - हफ़ीज़ जालंधरी
2. जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर, ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की - जमील मज़हरी
3. 'हफ़ीज़' अपनी बोली मोहब्बत की बोली, न उर्दू न हिन्दी न हिन्दोस्तानी - हफ़ीज़ जालंधरी
4. आबाद अगर न दिल हो तो बरबाद कीजिए, गुलशन न बन सके तो बयाबाँ बनाइए - जिगर मुरादाबादी
5. फूल कर ले निबाह काँटों से, आदमी ही न आदमी से मिले - ख़ुमार बाराबंकवी
6. एक ही मसला ताउम्र मेरा हल न हुआ, नींद पूरी न हुई, ख़्वाब मुकम्मल न हुआ ...!!! - मुनव्वर हाशमी
7. बड़े घरों में रही है बहुत ज़माने तक, ख़ुशी का जी नहीं लगता ग़रीबख़ाने में...!!! - (नोमान शौक़)
8. इस सफ़र में नींद ऐसी खो गयी, हम न सोये रात थक कर सो गयी...!!! - राही मासूम रज़ा
9. जब तलक दूर है तू तेरी परस्तिश कर लें, हम जिसे छू न सकें उसको खुदा कहते हैं - अहमद फ़राज़
10. 'दुनिया से निराली है नज़ीर अपनी कहानी, अंगारों से बच निकला हूँ, फूलों से जला हूँ' ~ नज़ीर बनारसी
11. 'हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया, हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही' ~ दुष्यन्त कुमार
12.आदमी खुद को कभी यूं ही सजा देता है, रौशनी के लिए शोलों को हवा देता है। - गोपालदास 'नीरज'
13. मिरी निगाह में कुछ और ढूँडने वाले, तिरी निगाह में कुछ और ढूँडता हूँ मैं - -महमूद ख़िज़ाँ
14. तेरे बिछड़ने पर लिख रहा हूँ मैं ताज़ा ग़ज़लें, ये तेरा ग़म है जो मुझको मशहूर कर रहा है! - तहज़ीब हाफ़ी
15. और फिर एक दिन बैठे बैठे मुझे अपनी दुनिया बुरी लग गई, जिसको आबाद करते हुए मेरे मां-बाप की ज़िंदगी लग गई - तहज़ीब हाफी
सदस्यता लें
संदेश (Atom)