उस शहर में मत जाओ जहाँ तुम्हारा बचपन गुज़रा अब वो वैसा नहीं मिलेगा जिस घर में तुम किराएदार थे वहाँ कोई और होगा तुम उजबक की तरह खपरैल वाले उस घर के दरवाजे पर खड़े होगे और कोई तुम्हें पहचान नहीं पाएगा !
आसान है करना प्रधानमंत्री की आलोचना मुख्यमंत्री की करना उससे थोड़ा मुश्किल विधायक की आलोचना में ख़तरा ज़रूर है लेकिन ग्राम प्रधान के मामले में तो पिटाई होना तय है।
अमेज़न के वर्षा वनों की चिंता करना कूल है हिमालय के ग्लेशियरों पर बहस खड़ी करना थोड़ा मेहनत का काम बड़े पावर प्लांट का विरोध करना एक्टिविज्म तो है जिसमें पैसे भी बन सकते हैं लेकिन पास की नदी से रेत-बजरी भरते हुए ट्रैक्टर की शिकायत जानलेवा है।
स्थानीयता के सारे संघर्ष ख़तरनाक हैं भले ही वे कविता में हों या जीवन में।
श्री राम सेतुम् बन्ध्य सेतुम् बन्ध्य सेतुम् बन्ध्य रे ।
शिला भवति खलु, सन्तरणीय, शिला भवति खलु सन्तरणीय
राम कृपा चिर सन्स्मरणीय राम कृपा चिर सन्स्मरणीय ।
जय जय जय श्री राम जयति जय मन्त्रम् पाठय रे
जय जय जय श्री राम जयति जय मन्त्रम् पाठय रे ।
यत्र एकत तत्र सबलता भक्तिः यत्र तत्र सफलता
यत्र एकत तत्र सबलता भक्तिः यत्र तत्र सफलता
रामनाम अङ्किता धरित्रिम् धर्णसा सञ्योजय ।
सेतुम् बन्ध्य सेतुम् बन्ध्य सेतुम् बन्ध्य रे
सागार उरु निर्धारत कृत्व पादैहः ताडय रे
सेतुम् बन्ध्य सेतुम् बन्ध्य सेतुम् बन्ध्य रे
श्री राम सेतुम् बन्ध्य सेतुम् बन्ध्य सेतुम् बन्ध्य रे ॥
Translation (English):
Lets make a bridge! In the name of Sri Rama lets make a bridge! (Lets make a bridge) To cross the wide ocean on foot and settle on the other side! (Lets make a bridge) By smashing mountains and breaking rocks, without getting washed away or falling into the ocean. Let's keep the intention in mind not to take away the ocean's glory by doing so. With the blessings from the feet of Raghupati Sri Rama, pieces of wood and stone will stay firm. With his touch, rocks and trunks will stay firm in the ocean. Lets make a bridge! In the name of Sri Rama lets make a bridge! Now the rocks are firm are they not? Then lets cross the ocean! With the grace of Sri Rama, they will forever be remembered in history. Lets recite the mantra - "Victory to Sri Rama". Where there is unity there is strength, where there is devotion (to work) there is success. With the name of Sri Rama marked (on all the rocks), they will be supported and remain firm together. Lets make a bridge! In the name of Sri Rama lets make a bridge to cross the wide ocean on foot and settle on the other side!
Listen! Faiz, Do you know? The difference between your and my wait Is only A fixed time Just a few more days You knew that Like the gust of breeze Speechless cloud does not tell When I ask— “How many more seasons like this?” Who knows how many more seasons?
The walls around me, These four walls, Have been standing quietly, Raising their heads high, Bearing winds and storms, and the scorching sun. Why do they not speak? No! Maybe, they do speak.
When sand and plaster fall, They surely say something. But! The owner repairs them off silencing their words One day, Finally, the weary wall collapses, And at the same place, Another silent wall is built.
On the pitch-black night yesterday, There was a knock on the doors of prison Of the innocent breezes Of cries of our dear ones Even the lightning Was screaming for help Asking for our freedom Even the well-shaped branches Openly joined in the grief After failed attempts And losing control The delicate tears of rain Started to pour Struck against the earth’s crust, And the rhythm of the drops Turned it into A commotion of pleas. But— The deaf snakes Kept dancing With their poisonous hoods Laying their web of traps. And— The oppressed Stood with their hands raised On that pitch-black night…
एक दिन बंदरों ने हथिया ली सत्ता उंगलियों में सोने की अंगूठी ठूंस ली सफ़ेद कलफ़दार क़मीज़ें पहनीं सुगंधित हवाना सिगार का कश लगाया अपने पांव में डाले चमाचम काले जूते!
हमें पता ही न चला, क्योंकि हम दूसरे कामों में व्यस्त थे कोई अरस्तू पढ़ता रहा, तो कोई आकंठ प्यार में डूबा हुआ था शासकों के भाषण ऊटपटांग होने लगे गपड़-सपड़, लेकिन हमने कभी इन्हें ध्यान से सुना ही नहीं हमें संगीत ज़्यादा पसंद था युद्ध अधिक वहशी होने लगे जेलख़ाने पहले से और गंदे हो गये तब जाकर लगा कि शासन सचमुच बंदरों के हाथ में है!
You tell me to live each day as if it were my last. This is in the kitchen where before coffee I complain of the day ahead—that obstacle race of minutes and hours, grocery stores and doctors.
But why the last? I ask. Why not live each day as if it were the first— all raw astonishment, Eve rubbing her eyes awake that first morning, the sun coming up like an ingénue in the east?
You grind the coffee with the small roar of a mind trying to clear itself. I set the table, glance out the window where dew has baptized every living surface.
Sometimes I feel that all those fallen soldiers, Who never left the bloody battle zones, Have not been buried to decay and molder, But turned into white cranes that softly groan.
And thus, until these days since those bygone times They have been flying calling us with cries. Isn’t it why we often hear those sad chimes And calmly freeze, while looking in the skies?
A tired flock of cranes still flies – their wings flap. Birds glide into the twilight, roaming free. In their formation I can see a small gap – It might be so, that space is meant for me.
The day shall come, when in the mist of ashen My final rest among those cranes I’ll find, From the skies calling – in a bird-like fashion – All those of you, who I’ll have left behind.
Sometimes I feel that all those fallen soldiers, Who never left the bloody battle zones, Have not been buried to decay and molder, But turned into white cranes that softly groan…
सारस
कभी-कभी लगता है मुझको वे सैनिक रक्तिम युद्ध-भूमि से लौट न जो आए नहीं मरे वे वहाँ बने मानो सारस उड़े गगन में, श्वेत पंख सब फैलाए।
उन्हीं दिनों से, बीते हुए जमाने से उड़े गगन में, गूँजे उनकी आवाजें क्या न इसी कारण ही अक्सर चुप रहकर भारी मन से हम नीले नभ को ताकें ?
आज, शाम के घिरते हुए अँधेरे में देखूँ धुँध-कुहासे में सारस उड़ते, अपना दल-सा एक बनाए उसी तरह जैसे जब थे मानव, भू पर डग भरते।
वे उड़ते हैं, लंबी मंजिल तय करते और पुकारें जैसे नाम किसी के वे, शायद इनकी ही पुकार से इसीलिए शब्द हमारी भाषा के मिलते-जुलते ?
उड़ते जाते हैं सारस-दल थके-थके धुँध-कुहासे में भी, जब दिन ढलता है, उस तिकोण में उनके जरा जगह खाली वह तो मेरे लिए, मुझे यह लगता है।
वह दिन आएगा, मैं सारस-दल के संग हल्के नील अँधेरे में उड़ जाऊँगा, उन्हें सारसों की ही भाँति पुकारूँगा छोड़ जिन्हें मैं इस धरती पर जाऊँगा।
--- Rasul Gazmatov (English translation by an American poet, Leo Schwartzberg)
हमनी के रात-दिन दुखवा भोगत बानी, हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइब। हमनी के दुख भगवनओं न देखताजे, हमनी के कबले कलेसवा उठाइब। पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां, बेधरम होके रंगरेज बनि जाइब। हाय राम! धरम न छोड़त बनत बाजे, बे-धरम होके कैसे मुंखवा दिखाइब।।
खम्भवा के फारि पहलाद के बंचवले जां ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले। धोती जुरजोधना कै भैया छोरत रहै, परगट होकै तहां कपड़ा बढ़वले। मरले रवनवां कै पलले भभिखना के, कानी अंगुरी पै धर के पथरा उठवले। कहंवा सुतल बाटे सुनत न वारे अब, डोम जानि हमनी के छुए डेरइले।।
हमनी के राति दिन मेहनत करीले जां, दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि। ठकुरे के सुख सेत घर में सुतल बानी, हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि। हाकिमे के लसकरि उतरल बानी, जेत उहओ बेगरिया में पकरल जाइबि। मुंह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानी, ई कुलि खबर सरकार के सुनाइबि।।
बमने के लेखे हम भिखिया न मांगव जां, ठकुरे के लेखे नहिं लडरि चलाइबि। सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम मारब जां, अहिरा के लेखे नहिं गइया चोराइबि। भंटऊ के लेखे न कबित्त हम जोरबा जां, पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइब। अपने पसिनवा के पैसा कमाइब जां, घर भर मिलि जुलि बांटि चोंटि खाइब।।
हड़वा मसुइया के देहियां है हमनी कै; ओकारै कै देहियां बमनऊ के बानी। ओकरा के घरे घरे पुजवा होखत बाजे सगरै इलकवा भइलैं जजमानी। हमनी के इतरा के निगिचे न जाइलेजां, पांके में से भरि-भरि पिअतानी पानी। पनहीं से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं, हमनी के एतनी काही के हलकानी।।
--- कवि हीरा डोम ( सितम्बर 1914 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित)
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए बाक़ी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते है इस शब्द के अर्थ खेतों के उन बेटों में है जो आज भी वृक्षों की परछाइओं से वक़्त मापते है उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं और वह भूख लगने पर अपने अंग भी चबा सकते है उनके लिए ज़िन्दगी एक परम्परा है और मौत के अर्थ है मुक्ति जब भी कोई समूचे भारत की 'राष्ट्रीय एकता' की बात करता है तो मेरा दिल चाहता है -- उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ उसे बताऊँ के भारत के अर्थ किसी दुष्यन्त से सम्बन्धित नहीं वरन खेत में दायर है जहाँ अन्न उगता है जहाँ सेंध लगती है
ना नर में कोई राम बचा, नारी में ना कोई सीता है ! ना धरा बचाने के खातिर, विष कोई शंकर पीता है !!
ना श्रीकृष्ण सा धर्म-अधर्म का, किसी में ज्ञान बचा है! ना हरिश्चंद्र सा सत्य, किसी के अंदर रचा बसा है !!
न गौतम बुद्ध सा धैर्य बचा, न नानक जी सा परम त्याग ! बस नाच रही है नर के भीतर प्रतिशोध की कुटिल आग !!
फिर बोलो की उस स्वर्णिम युग का, क्या अंश बाकि तुम में ! कि किसकी धुनी में रम कर फुले नहीं समाते हो, तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…
तुम भीष्म पितामह की भांति, अपने ही जिद पर अड़े रहे ! तुम शकुनि के षणयंत्रो से, घृणित रहे, तुम दंग रहे, तुम कर्ण के जैसे भी होकर, दुर्योधन दल के संग रहे !!
एक दुर्योधन फिर, सत्ता के लिए युद्ध में जाता है ! कुछ धर्मांधो के अन्दर फिर थोड़ा धर्म जगाता है !!
फिर धर्म की चिलम में नफ़रत की चिंगारी से आग लगाकर! चरस की धुँआ फुक-फुक कर, मतवाले होते जाते है, तुम स्वयं को श्रेष्ठ बताते हो…
एक कविता पढ़ रहा था लम्बी न थी शब्दों को सोचता हुआ मन जाने कहाँ-कहाँ की यात्राएँ करता रहा आँख उठाकर देखा : पहर बीत चला था एक कविता और इतना समय? अरे भोले! एक उम्र गँवा दी थी कवि ने इन शब्दों तक पहुँचने के लिए
एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो। क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो। संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।" हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो। इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है। आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है। आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है। आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है। इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो। ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो। अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो। करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में। जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में। तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूर्ख कहलाने में। जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ। जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ। दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ। जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ। मेरी गीता में लिखा हुआ -- सच्चे योगी जो होते हैं, वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है। वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है। जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है, तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है। मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है। भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ। मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ। मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं। छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं। मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो। यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
वे देवता को पसंद नहीं लेकिन आश्चर्य इस पर नहीं आश्चर्य तो ये है कि कविगण भी लिखते नहीं कविता कपास के फूल पर प्रेमीजन भेंट में देते नहीं उसे कभी एक-दूसरे को जबकि वह है कि नंगा होने से बचाता है सबको और सुतर गया मौसम तो भूख और प्यास से भी बचाता है वह
ईश्वर को तो ठंड लगती नहीं वैसे नंगा होना भी वहां उतना ही सहज है उतना ही दिव्य इसलिए इतना यह है कि ठंड के विरुद्ध आदमी ने ही खोजा होगा पृथ्वी पर पहला कपास का फूल
पर पहला झिंगोला कब पहना उसने पहले तागे से पहली सुई की कब हुई थी भेंट यह भूल गई है हमारी भाषा जैसे अपनी कमीज़ पहनकर भूल जाते हैं हम अपने दर्ज़ी का नाम
पर क्या कभी सोचा है आपने वह जो आपकी कमीज़ है किसी खेत में खिला एक कपास का फूल है जिसे पहन रखा है आपने
जब फ़ुर्सत मिले तो कृपया एक बार इस पर सोचें ज़रूर कि इस पूरी कहानी में सूत से सुई तक सब कुछ है पर वह कहां गया जो इसका शीर्षक था
--- केदारनाथ सिंह कविता संग्रह: सृष्टि पर पहरा प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
Think of what you'll miss; the voices of children; apples, dark wine on a table; the smell of the spring before you're ready. Stay. It doesn't get better, it gets truer. Winter. Albums. Madness. Your grief in you like a cello in its locked, black case.
The lemon-scent of someone who has gone. Breathe. Just breathe and be here. In my darkest night, in the storm before morning, I heard a voice that told me it was listening. Friend, I would sit with you and listen. As long as you have breath you could be song. As long as you have breath you could be song.
ज़िंदगी संवार दूं इक नई बहार दूं दुनिया ही बदल दूं मैं तो प्यारा सा चमत्कार हूं मैं किसी का सपना हूं जो आज बन चुका हूं सच अब ये मेरा सपना है कि सब के सपने सच मैं करूं आसमान को छू लूं तितली बन उड़ूं (हां... हेलीकॉप्टर) अन अन अन...
Bellchimes jangle, freakish wind Whistles icy out of desert lands over the mountains. Janus, Lord of winter and beginnings, riven and shaken, with two faces, watcher at the gates of winds and cities, god of the wakeful: keep me from coldhanded envy, and petty anger. Open my soul to the vast dark places. Say to me, say again nothing is taken, only given.
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना पत्थर को गुहर दीवार को दर कर्गस को हुमा क्या लिखना
इक हश्र बपा है घर में दम घुटता है गुम्बद-ए-बे-दर में इक शख़्स के हाथों मुद्दत से रुस्वा है वतन दुनिया-भर में ऐ दीदा-वरो इस ज़िल्लत को क़िस्मत का लिखा क्या लिखना ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
ये अहल-ए-हश्म ये दारा-ओ-जम सब नक़्श बर-आब हैं ऐ हमदम मिट जाएँगे सब पर्वर्दा-ए-शब ऐ अहल-ए-वफ़ा रह जाएँगे हम हो जाँ का ज़ियाँ पर क़ातिल को मासूम-अदा क्या लिखना ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
लोगों पे ही हम ने जाँ वारी की हम ने ही उन्ही की ग़म-ख़्वारी होते हैं तो हों ये हाथ क़लम शाएर न बनेंगे दरबारी इब्लीस-नुमा इंसानों की ऐ दोस्त सना क्या लिखना ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
हक़ बात पे कोड़े और ज़िंदाँ बातिल के शिकंजे में है ये जाँ इंसाँ हैं कि सहमे बैठे हैं खूँ-ख़्वार दरिंदे हैं रक़्साँ इस ज़ुल्म-ओ-सितम को लुत्फ़-ओ-करम इस दुख को दवा क्या लिखना ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
हर शाम यहाँ शाम-ए-वीराँ आसेब-ज़दा रस्ते गलियाँ जिस शहर की धुन में निकले थे वो शहर दिल-ए-बर्बाद कहाँ सहरा को चमन बन कर गुलशन बादल को रिदा क्या लिखना ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
ऐ मेरे वतन के फ़नकारो ज़ुल्मत पे न अपना फ़न वारो ये महल-सराओं के बासी क़ातिल हैं सभी अपने यारो विर्से में हमें ये ग़म है मिला इस ग़म को नया क्या लिखना ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना