23 नवंबर 2019

विचार आते हैं

विचार आते हैं
लिखते समय नहीं
बोझ ढोते वक़्त पीठ पर
सिर पर उठाते समय भार
परिश्रम करते समय
चांद उगता है व
पानी में झलमलाने लगता है
हृदय के पानी में

विचार आते हैं
लिखते समय नहीं
...पत्थर ढोते वक़्त
पीठ पर उठाते वक़्त बोझ
साँप मारते समय पिछवाड़े
बच्चों की नेकर फचीटते वक़्त

पत्थर पहाड़ बन जाते हैं
नक्शे बनते हैं भौगोलिक
पीठ कच्छप बन जाती है
समय पृथ्वी बन जाता है...

---गजानन माधव मुक्तिबोध

22 नवंबर 2019

'शायरी मैंने ईजाद की'

काग़ज़ मराकेशों ने ईजाद किया
हुरूफ़ फ़ोनेशनों ने
शायरी मैंने ईजाद की

क़ब्र खोदने वाले ने तंदूर ईजाद किया
तंदूर पर क़ब्ज़ा करने वालों ने रोटी की पर्ची बनाई
रोटी लेने वाले ने क़तार ईजाद की
और मिलकर गाना सीखा

रोटी की क़तार में जब चींटियाँ आ कर खड़ी हो गईं
तो फ़ाक़ा ईजाद हो गया
शहतूत बेचने वाले ने रेशम का कीड़ा ईजाद किया
शायरी ने रेशम से लड़कियों के लिए लिबास बनाया
रेशम में मलबूस लड़कियों के लिए कुटनियों ने महलसरा ईजाद की
जहाँ जाकर उन्होंने रेशम के कीड़े का पता बता दिया

फ़ासले ने घोड़े के चार पाँव ईजाद किए
तेज़ रफ़तारी ने रथ बनाया
और जब शिकस्त ईजाद हुई
तो मुझे तेज़ रफ़्तार रथ के आगे लिटा दिया गया

मगर उस वक़्त तक शायरी मुहब्बत को ईजाद कर चुकी थी
मुहब्बत ने दिल ईजाद किया
दिल ने ख़ेमा और कश्तियाँ बनाईं
और दूर-दराज़ के मक़ामात तय किए

ख़्वाजासरा ने मछली पकड़ने का कांटा ईजाद किया
और सोये हुए दिल में चुभोकर भाग गया
दिल में चुभे हुए कांटे की डोर थामने के लिए
नीलामी ईजाद हुई

और
जब्र ने आख़री बोली ईजाद की
मैंने सारी शायरी बेच कर आग ख़रीदी
और जब्र का हाथ ज़ला दिया
--- अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

15 नवंबर 2019

Mimesis

My daughter
wouldn't hurt a spider
That had nested
Between her bicycle handles
For two weeks
She waited
Until it left of its own accord

If you tear down the web I said
It will simply know
This isn’t a place to call home
And you’d get to go biking

She said that’s how others
Become refugees isn’t it?

--- Fady Joudah

14 नवंबर 2019

The Average Child

I don’t cause teachers trouble;
My grades have been okay.
I listen in my classes.
I’m in school every day.
My teachers think I’m average;
My parents think so too.
I wish I didn’t know that, though;
There’s lots I’d like to do.

I’d like to build a rocket;
I read a book on how.
Or start a stamp collection…
But no use trying now.

’Cause, since I found I’m average,
I’m smart enough you see
To know there’s nothing special
I should expect of me.

I’m part of that majority,
That hump part of the bell,
Who spends his life unnoticed
In an average kind of hell.

~ Mike Buscemi

9 नवंबर 2019

मैं यह कविता तुम्हें सौंपता हूं

मैं यह कविता तुम्हें सौंपता हूं
चूंकि मेरे पास देने को और कुछ नहीं
इसे एक गर्म कोट की तरह रखना
जब ठंड तुम्हें जकड़ने आए
या एक जोड़ी मोटे जुराबों की तरह
जिनके पार नहीं जा सकती है ठंड,

मैं तुम्हें प्यार करता हूं,

मेरे पास तुम्हें देने को और कुछ नहीं
इसलिए यह मक्के से भरा हुआ बर्तन लो
ठंड में तुम्हारे पेट को उष्ण रखने के लिए
तुम्हारे सिर के लिए स्कार्फ है यह,
जिसे तुम बांध सकती हो अपने केशों पर
अपने चेहरे के चारों तरफ लपेट सकती हो,

मैं तुमसे प्यार करता हूं,

रखो इसे, संभालो इसे जब तुम खो जाओगी
हो जाओगी दिशाहीन जीवन के वन में,
जब जीवन होगा गंभीर
अपने दराज के कोने में रखो इसे
जैसे हो यह कोई शरणस्थली या
घने जंगल के बीच एक झोंपड़ी
आना द्वार पर तुम और मैं दूंगा तुम्हें उत्तर, दूंगा दिशाज्ञान,
और तुम्हें सेंकने दूंगा जलती हुई आग,
आराम करो और स्वयं को समझो सुरक्षित,

मैं तुमसे प्यार करता हूं,

मेरे पास देने को इतना ही है
और इतना ही जीने के लिए चाहता है कोई
और अंतर तुम्हारा जीवित रहे
भले ही बाहर की दुनिया
न करे परवाह कि तुम जिंदा हो कि मर गई
रखना याद,

मैं तुम्हें प्यार करता हूं.

--- Jimmy Santiago Baca, अनुवादक: उपासना झा

12 अक्तूबर 2019

जो हुआ सो हुआ

उठ के कपड़े बदल
उठ के कपड़े बदल
घर से बाहर निकल
जो हुआ सो हुआ॥

जब तलक साँस है
भूख है प्यास है
ये ही इतिहास है
रख के कांधे पे हल
खेत की ओर चल
जो हुआ सो हुआ॥

खून से तर-ब-तर
कर के हर राहगुज़र
थक चुके जानवर
लड़कियों की तरह
फिर से चूल्हे में जल
जो हुआ सो हुआ॥

जो मरा क्यों मरा
जो जला क्यों जला
जो लुटा क्यों लुटा
मुद्दतों से हैं गुम
इन सवालों के हल
जो हुआ सो हुआ॥

मंदिरों में भजन
मस्ज़िदों में अज़ाँ
आदमी है कहाँ
आदमी के लिए
एक ताज़ा ग़ज़ल
जो हुआ सो हुआ।।

--- निदा फ़ाज़ली

8 अक्तूबर 2019

सावधानी

जो बहुत बोलता हो,
उसके साथ कम बोलो l
जो हमेशा चुप रहे,
उसके सामने हृदय मत खोलो l

--- रामधारी सिंह दिनकर

2 अक्तूबर 2019

ऐ शरीफ़ इंसानो

खून अपना हो या पराया हो
नस्ले आदम का खून है आखिर
जंग मशरिक में हो कि मगरिब में
अमने आलम का खून है आखिर

बम घरों पर गिरें के सरहद पर
रूहे तामीर जख्म खाती है
खेत अपने जलें कि औरों के
जीस्त फाकोंसे तिलमिलाती है

टैंक आगे बढ़ें के पीछे हटें
कोख धरती की बांझ होती है
फतह का जश्नहो कि हार का सोग
जिंदगी मीयतों पे रोती है

जंग तो खुद एक मसअला है
जंग क्या मसअलों का हल देगी
आग और खून आज बख्शेगी
भूख और ऐतजाज़ कल देगी

इस लिऐ ऐ शरीफ इन्सानो
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आंगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है

---साहिर लुधियानवी

30 सितंबर 2019

एक पूरी उम्र

यक़ीन मानिए
इस आदमख़ोर गाँव में
मुझे डर लगता है
बहुत डर लगता है
लगता है कि अभी बस अभी
ठकुराइसी मेड़ चीख़ेगी
मैं अधशौच ही
खेत से उठ आऊँगा
कि अभी बस अभी
हवेली घुड़केगी,
मैं बेगार में पकड़ा जाऊँगा
कि अभी बस अभी
महाजन आएगा
मेरी गाड़ी से भैंस
उधारी में खोल ले जाएगा
कि अभी बस अभी
बुलावा आएगा
खुलकर खाँसने के
अपराध में प्रधान
मुश्क बाँध मारेगा
लदवाएगा डकैती में
सीखचों के भीतर
उम्र भर सड़ाएगा

---मलखान सिंह

18 सितंबर 2019

कोसल में विचारों की कमी है!

महाराज बधाई हो!
महाराज की जय हो।
युद्ध नहीं हुआ
लौट गए शत्रु।

वैसे हमारी तैयारी पूरी थी!
चार अक्षौहिणी थीं सेनाएँ,
दस सहस्र अश्व,
लगभग इतने ही हाथी।

कोई कसर न थी!
युद्ध होता भी तो
नतीजा यही होता।

न उनके पास अस्त्र थे,
न अश्व,
न हाथी,
युद्ध हो भी कैसे सकता था?
निहत्थे थे वे।

उनमें से हरेक अकेला था
और हरेक यह कहता था
प्रत्येक अकेला होता है!

जो भी हो,
जय यह आपकी है!
बधाई हो!
राजसूय पूरा हुआ,
आप चक्रवर्ती हुए

वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गए हैं
जैसे कि यह :

कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,
कोसल में विचारों की कमी है!

--- श्रीकांत वर्मा

15 सितंबर 2019

कितना चौड़ा पाट नदी का

कितना चौड़ा पाट नदी का,
कितनी भारी शाम,
कितने खोए–खोए से हम,
कितना तट निष्काम,
कितनी बहकी–बहकी सी
दूरागत–वंशी–टेर,
कितनी टूटी–टूटी सी
नभ पर विहगों की फेर,
कितनी सहमी–सहमी–सी
जल पर तट–तरु–अभिलाषा,
कितनी चुप–चुप गयी रोशनी,
छिप छिप आई रात,
कितनी सिहर–सिहर कर
अधरों से फूटी दो बात,
चार नयन मुस्काए, खोए,
भीगे, फिर पथराए,
कितनी बड़ी विवशता,
जीवन की, कितनी कह पाए!

~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

14 सितंबर 2019

सरकारी हिन्दी

डिल्लू बापू पंडित थे
बिना वैसी पढ़ाई के
जीवन में एक ही श्लोक
उन्होंने जाना
वह भी आधा
उसका भी वे
अशुद्ध उच्चारण करते थे
यानी ‘त्वमेव माता चपिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश चसखा त्वमेव’
इसके बाद वे कहते
कि आगे तो आप जानते ही हैं
गोया जो सब जानते हों
उसे जानने और जनाने में
कौन-सी अक़्लमंदी है ?
इसलिए इसी अल्प-पाठ के सहारे
उन्होंने सारे अनुष्ठान कराये
एक दिन किसी ने उनसे कहा:
बापू, संस्कृत में भूख को
क्षुधा कहते हैं
डिल्लू बापू पंडित थे
तो वैद्य भी उन्हें होना ही था
नाड़ी देखने के लिए वे
रोगी की पूरी कलाई को
अपने हाथ में कसकर थामते
आँखें बन्द कर
मुँह ऊपर को उठाये रहते
फिर थोड़ा रुककर
रोग के लक्षण जानने के सिलसिले में
जो पहला प्रश्न वे करते
वह भाषा में
संस्कृत के प्रयोग का
एक विरल उदाहरण है
यानी ‘पुत्तू ! क्षुधा की भूख
लगती है क्या ?’
बाद में यही
सरकारी हिन्दी हो गयी

---पंकज चतुर्वेदी

8 सितंबर 2019

Preface

"चुटकुलों, भँड़ैती, विद्रूप से मज़ेदार बनी
कविता अब भी ख़ुश करना जानती है।
तब उसकी श्रेष्ठता को बहुत सराहा जाता है।
किन्तु जहाँ ज़िंदगी दाँव पर लगी हो ऐसी संगीन लड़ाइयाँ
गद्य में लड़ी जाती हैं। ऐसा हमेशा नहीं था।

और हमारा पछतावा अनक़ुबूला रह गया है।
उपन्यास और निबन्ध काम आते हैं, लेकिन टिकेंगे नहीं।
एक साफ़ छन्द ज़्यादा वज़न सँभाल सकता है
जटिल गद्य के एक समूचे मालगाड़ी के डिब्बे की बनिस्बत।"

--चेस्वाव मिवोश ('प्राक्कथन' शीर्षक कविता से)

{अनुवाद : विष्णु खरे}

"First, plain speech in the mother tongue.
Hearing it, you should be able to see
Apple trees, a river, the bend of a road,
As if in a flash of summer lightning.

And it should contain more than images.
It has been lured by singsong,
A daydream, melody. Defenseless,
It was bypassed by the sharp, dry world.

You often ask yourself why you feel shame
Whenever you look through a book of poetry.
As if the author, for reasons unclear to you,
Addressed the worse side of your nature,
Pushing aside thought, cheating thought.

Poetry, seasoned with satire, clowning,
Jokes, still knows how to please.
Then its excellence is much admired.
But serious combat, where life is at stake,
Is fought in prose. It was not always so.

And our regret has remained unconfessed.
Novels and essays serve but will not last.
One clear stanza can take more weight
Than a whole wagon of elaborate prose."

--Czeslaw Milosz {from 'Preface'}

5 सितंबर 2019

दस्तूर

दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से

ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो

चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो
इस खुले झूट को ज़ेहन की लूट को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ

अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ
चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूँ
तुम नहीं चारागर कोई माने मगर
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
---हबीब जालिब

4 सितंबर 2019

तैयार रहे…...

तैयार रहे…...

हिंसक भीड़ के हाथों,
पीटे जाने के लिए.
बार-बार,
बहानों से घेरे जाने के लिए,
असहमतियों के चलते,
मारे जाने के लिए,
तैयार रहें.

तैयार रहें
क्योंकि
धर्म,संस्कृति,सभ्यता पर,
चढांई जाती है,
धार.

तैयार रहे कि
आबादी के बिना भी,
बनाए जा सकतेे है देश.

शिक्षा-अध्यापकों के बिना,
महज टैंक खड़े करके भी,
बनाए जा सकते है विश्वविद्यालय.

उसी तरह जैसे,
अफवाहों, मिथकीय परिकल्पनाओं,
श्रद्धा और भावनाओं पर,
बिजूके की तरह ,
खड़ा किया जा सकता है,
कलफ लगा इतिहास.

तैयार रहो,
कि लोक को मिटा कर भी,
खड़ा किया जा सकता है तन्त्र.

तैयार रहो कि ,
एक दशक पहले तक,
जिनसे बचते चलते थे तुम.
आज उन्होंने तुम्हें भी समेट लिया है.

इसलिए,
पंखनुचे फड़फडा़ते परिन्दों की तरह,
अर्थ विहीन शब्दों से कामचलाने के लिए,
तैयार रहें.

अब इंसान ही नही,
संस्थाओं, संकल्पनाओं और
संस्कृतियों की हत्याएं भी मुमकिन हैं.
इसलिए अलग-अलग मौकों पर,
अलग-अलग बहानों से,
मारे जाने के लिए,
तैयार रहें.

तैयार रहें
कि अगली माबलिंचिंग,
किसी सड़क,गली या कस्बे में नही,
किसी सदन में भी मुमकिन है,
जहां पूरे के पूरे देश को ,
पीट-पीट कर बेदम किया जा सकता है.

आप बस अच्छे नागरिक बने,
सवाल ना करें और,
तैयार रहें...

---Ashrut Parmanand

2 सितंबर 2019

अंत्येष्टि से पूर्व

अंत्येष्टि से पूर्व
हे देव,
मुझे बिजलियाँ, अँधेरे और साँप
डरा देते हैं
मुझे घने जंगल की नागरिकता दो
मेरे भय को मित्रता करनी होगी जंगल से
रहना होगा साहसी!

हे देव,
मैंने एक जगह रुक वर्षों आराम किया
मुझे वायु बना दो
मैं कृषकपुत्रों की गीली बनियानों
और रोमछिद्रों में
समर्पित करूँ स्वयं को!

हे देव,
मैं अपने माता-पिता की सेवा न कर सकी
मुझे सुशीतल ओस बना दो
मैं गिरूँ वृद्धाश्रम के आँगन की घास पर
वे रखें मुझ पर पाँव और
मैं उन्हें स्वस्थ रखूँ

हे देव,
मैं कभी सावन में झूली नहीं
मुझे झूले की मज़बूत गाँठ बना दो
मैं उन सभी स्त्रियों और बच्चों को सुरक्षित रखूँ
जो पटके पर खिलखिलाते हुए बैठें
और तृप्त हो उतरें!

हे देव,
कुछ लोगों ने छला है मुझे
मुझे वटवृक्ष बना दो
सैकड़ों पक्षी मेरे भरोसे भरें भोर में उड़ान और
रात भर करें मुझमें विश्राम
मैं उन्हें विश्वसनीय और सुरक्षित नींद दूँ!

हे देव,
मेरा सब्र है एक संपन्न नवजात शिशु
वह प्रतिपल देखभाल माँगता है
मुझे एक हज़ार आठ मनकों वाली
रुद्राक्ष की माला बना दो
मेरे सब्र को होना होगा अनगढ़!

हे देव,
मुझे पत्रों की प्रतीक्षा रहती है
मुझे घाटी के प्रहरियों की
प्रेमिकाओं का दूत बना दो
उन्हें भी होता होगा संदेशों का मोह
मैं दिलासा दे उन्हें व्योम कर सकूँ!

हे देव,
मैंने प्रश्नों के बीज बोए
वे कभी फूल बन न खिल सकें
मुझे भूरी संदली मिट्टी बना दो
मैं तप कर और भीग कर रचूँ
अनेकों खलिहान!

हे देव,
मैं धरती और सितारों के बीच
बेहद बौनी लगती हूँ
मुझे पहाड़ बना दो
मैं बादल के फाहों पर आकृतियाँ बना
उन्हें मनचाहा आकार दूँ!

हे देव,
मैं अपनी पकड़ से फिसल कर
नहीं रच पाती कोई दंतकथा
मुझे काँटेदार रास्ता बना दो
मेरे तलवों को दरकार है अनुभव
टीस और मवाद और ठहराव के!

हे देव,
चिकने फ़र्श पर मेरे पैर फिसलते हैं
मुझे छिले हुए पंजे दो
मेरे पंजों की छाप
सबको चौराहों का संकेत दे
और बताए रास्ता!

हे देव,
मेरे आँसू घुटने पर बहने को तत्पर रहते हैं
मुझे मरुस्थल बना दो
सूखी धरा और उसकी वीरानियों को
यह हक़ है कि
मेरे आँसुओं को वे दास बना लें!

हे देव,
प्रेम मेरी नब्ज़ पकड़
मेरी तरंगें नापता है
मुझे बोधिसत्व का ज़ख़ीरा बना दो
त्याग मेरा कर्म हो
मुझे अस्वीकार का अधिकार चाहिए!

हे देव,
मेरे कुछ सपने अधूरे रह गए हैं
मुझे संभव और असंभव के बीच की दूरी बना दो
मैं पथिकों का बल बनूँ
उनकी राह की
बनूँ जीवन-कथा!

हे देव,
मैंने अब तक
पुलों पर सफ़र किया है
शहर के पुल बेहद कमज़ोर हैं
मुझे तैराक बना दो कि
मैं हर शहरी बच्चे को तैरना सिखा सकूँ!

हे देव,
मेरे बहुत से दिवस बाँझ रहे हैं
मुझे गर्भवती बना दो
मेरी कोख से जन्मे कोई इस्पात
जो ढले और गले केवल संरक्षण करने को
सभ्यताओं को जोड़े रखे!

हे देव,
मैं अपनी
कविताओं की किताब न छपवा सकी
मुझे स्याही बना दो
मैं समस्त कवियों की लेखनी में जा घुलूँ
और रचूँ इतिहास!

--- जोशना बैनर्जी आडवानी

23 अगस्त 2019

उपचार

बेवफ़ा प्रेमिका से तुम्हारे टूटे हुए दिल का उपचार
तुम करो तीन प्रक्रियाओं से आबद्ध
पहला कि उसे जाने दो
दूसरा कि करो स्वीकार कि तुम्हारी जगह किसी और को लाएगी
अपने बिस्तर पर सजाएगी
और तीसरा कि करो कल्पना वास्तविक
कि वह रही नहीं
वह मर गई पिछले वर्ष सितंबर में
हो एक सड़क हादसे का शिकार

--- Shayak Alok

21 अगस्त 2019

Poetry and prose

Sometimes I am caught
between poetry and prose, like two lovers
I can't decide between.

Prose says to me, let's build
something long and lasting.
Poetry takes me by the hand,
and whispers, come with me,
let's get lost for awhile.

--- Lang Leav

19 अगस्त 2019

औरतें हैं हम

औरतें हैं हम
खाना नहीं हैं
मेज़ पर धरा हुआ
छिलो, हड्डियाँ निकालो
भर लो अपना पेट
कूड़ा नहीं है कूड़ेदान में समा जाने के लिए

औरतें हैं हम
गुड़ियाँ नहीं
जिनसे खेलो, उतार दो कपड़े
तैयार करो, क़ैद करो
एक पालने में और सजा दो
एक शेल्फ पर

औरतें हैं हम
ज़मीन नहीं हैं जिसे खोदोगे ताम्बे
रत्न और स्वर्ण के लिए
उगाओ और परती छोड़ दो
फसल के बाद

गीली मिट्टी सा उसे
रौंदो या बना दो
एक गोद कंकालों के लिए

औरतें हैं हम
मनुष्य भी
रोबोट या चिथड़े नहीं
न ही बर्तन न शौचालय
सपना नहीं हैं जिसका मन नहीं कोई
तसवीर नहीं हैं भागो तुम जिसके पीछे
उड़ते बादल पर बैठकर

औरतें हैं हम
धात्रियाँ संतानों की
दुनिया के वारिसों की
हम जानती हैं करना अंतर
आकारों में दिन और रात में
अलग कर सकती हैं हम
इंद्रधनुष के रंग

हम जानती हैं सम्भालना
एक ढहती हुई आत्मा को
जानती हैं प्यार करना
एक सोचने वाले दिल को
हम जानती हैं भिड़ जाना
और सीधा करना टेढों को
बागबानी करते हुए
सँवारना दुनिया को ।

--- Marra Lanot (हिंदी अनुवाद : Su Jata)

15 अगस्त 2019

जन गण मन अधिनायक जय हे !

जन गण मन अधिनायक जय हे !

जय हे हरित क्रांति निर्माता
जय गेहूँ हथियार प्रदाता
जय हे भारत भाग्य विधाता
अंग्रेजी के गायक जय हे !
जन गण मन अधिनायक जय हे !

जय समाजवादी रंगवाली
जय हे शांतिसंधि विकराली
जय हे टैंक महाबलशाली
प्रभुता के परिचायक जय हे !
जन गण मन अधिनायक जय हे !

जय हे जमींदार पूँजीपति
जय दलाल शोषण में सन्मति
जय हे लोकतंत्र की दुर्गति
भ्रष्टाचार विधायक जय हे !
जन गण मन अधिनायक जय हे

जय पाखंड और बर्बरता
जय तानाशाही सुंदरता
जय हे दमन भूख निर्भरता
सकल अमंगलदायक जय हे !
जन गण मन अधिनायक जय हे

--- गोरख पाण्डेय

10 अगस्त 2019

जिहाल-ए-मिस्कीं

जिहाल-ए-मिस्कीं मुकों बा-रंजिश, बहार-ए-हिजरा बेचारा दिल है,
सुनाई देती हैं जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।

वो आके पेहलू में ऐसे बैठे, के शाम रंगीन हो गयी हैं,
ज़रा ज़रा सी खिली तबियत, ज़रा सी ग़मगीन हो गयी हैं।

कभी कभी शाम ऐसे ढलती है जैसे घूंघट उतर रहा है,
तुम्हारे सीने से उठता धुवा हमारे दिल से गुज़र रहा है।

ये शर्म है या हया है, क्या है, नज़र उठाते ही झुक गयी है,
तुम्हारी पलकों से गिरती शबनम हमारी आंखों में रुक् गयी है।

--- गुलज़ार

9 अगस्त 2019

सुनो ब्राह्मण

हमारे पसीने से बू आती है, तुम्हें।
तुम, हमारे साथ आओ
चमड़ा पकाएंगे दोनों मिल-बैठकर।
शाम को थककर पसर जाओ धरती पर
सूँघो खुद को
बेटों को, बेटियों को
तभी जान पाओगे तुम
जीवन की गंध को
बलवती होती है जो
देह की गंध से।

---मलखान सिंह

5 अगस्त 2019

राजे-महाराजे

राजे-महाराजे,
अब मुकुट पहन कर नहीं आते,
होती है उन्होंने जम्हूरियत की पोशाक पहनी,
बताने तुम्हे क्या गलत है और क्या सही,
तुम उनसे सवाल नहीं पूछते,
क्यूंकि राजाओं से सवाल नहीं पूछे जाते.

राजे,
अब तलवार लेकर नहीं आते,
वो आते हैं हाथों में संविधान ले कर,
जो पहले करता है उनके चुने जाने का मार्ग तय,
फिर उसे ही काट कर छाँट कर,
खुद के लिए उसे और मज़बूत हैं बनाते,
हम उनके बगलों में रखी छुरियां नहीं देख पाते,

राजे,
अब सेना नहीं इकट्ठा करते,
वो जुटाते हैं एक बिना वर्दी की गुमनाम भीड़,
सर्वव्यापी सर्वशक्तिशाली फिर भी धुंए सी अर्थहीन,
जिसके अट्टहासों या कीबोर्ड की खुट खुट से
कुछ उठती आवाजें हो जाती हैं शांत में विलीन,
तो कभी चलतीं हैं सड़कों पर करती न्याय
उन स्रोतों को हमेशा के लिए मिटाते.

राजे,
अब पैगाम या सन्देश ढोल से नहीं भिजवाते,
बुलेट प्रूफ खेमे से वो देते हैं राष्ट्र के नाम सन्देश,
रख रखे हैं उन्होंने कुछ सन्देश वाहक,
जो उनकी ज़ेबों से झाँक कर गला फाड़ कर,
या जनता को नाग नागिन के डांस में रख उलझा,
कर देते हैं समस्या का दहन उसके ज़िन्दा रहते,

राजे ,
न कभी गए थे वो और न कहीं हैं वो जाते,
भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है,
और जहाँ प्रजा है वहां तो होंगे ही राजे,
तुम्हे आज़ादी का एहसास कराते.
इसलिए प्रजा की सरकार में,
प्रजा के लिए प्रजा द्वारा,
अब चुने जाते हैं राजे.

---अभय मिश्र

आग़ा शाहिद अली की कविताएं

मैदानों के मौसम

कश्मीर में, जहां साल में
चार चिन्हित अलग-अलग मौसम होते हैं
अम्मी अपने लखनऊ के मैदानी इलाके में बीते बचपन की बात करती हैं
और उस मौसम की भी,
मानसून,
जब कृष्ण की बांसुरी
जमुना के किनारों पर सुनाई देती है.
वह बनारस के ठुमरी गायकों के पुराने रिकार्ड्स बजाया करती थीं—
सिद्धेश्वरी और रसूलन,
उनकी आवाजों में चाह होती,
जब भी बादल जमा होते,
उस अदृश्य, नीले भगवान के लिए. बिछोह
संभव नहीं है जब बारिशें आती हैं,
उनके हर गीत में यह होता था.
जब बच्चे दौड़ते थे गलियों में
अपनी अपनी उष्णता को भिंगोते हुए,
प्रेमियों के बीच
चिट्ठियां बदल ली जाती थीं.
हीर-रांझा और दूसरे कई किस्से,
उनका प्रेम, कुफ़्र.
और फिर सारी रात जलते हुए खुशबू की तरह
होता जवाब का इंतजार. अम्मी
हीर का दर्द गुनगुनाती थीं
पर मुझसे कभी नहीं कहा
कि क्या उन्होंने भी जैस्मिन की अगरबत्तियां
जलाईं जो, खाक होते हुए,
राख की छोटी मुलायम चोटियां
बनाती जाती हैं. मैं कल्पना करता था कि
हर चोटी उमस भरी हवा पर
लद जाती है.
अम्मी बस इतना कहती थीं :
मानसून कभी पहाड़ों को फांद कर
कश्मीर नहीं आता.

चांदनी चौक, दिल्ली

इस गर्मी के चौराहे को निगल जाओ
और फिर मानसून का इंतजार करो.
बारिश की सूइयां
जीभ पर पिघल जाती हैं. थोड़ी दूर
और जाओगे? सूखे की एक याद
जकड़ती है तुमको : तुम्हें याद आता है
भूखे शब्दों का स्वाद
और तुमने नमक के अक्षर चबाए थे.
क्या तुम इस शहर को पाक कर सकते हो
जो कटी हुई जीभ पर खून की तरह जज्ब होता है?

कश्मीर से आया ख़त

कश्मीर सिमट जाता है मेरे मेलबॉक्स में.
चार गुने छह का सुलझा हुआ मेरा घर.
मुझे साफ चीजों से प्यार था हमेशा. अब
मेरे हाथों में है आधा इंच हिमालय.
ये घर है. और ये सबसे करीब
जहां मैं हूं अपने घर से. जब मैं लौटूंगा,
ये रंग इतने बेहतरीन नहीं होंगे,
झेलम का पानी इतना साफ,
इतना गहरा नीला. मेरी मुहब्बत
इतनी जाहिर.
और मेरी याद धुंधली होगी थोड़ी
उसमे एक बड़ा नेगेटिव,
काला और सफेद, अभी भी पूरा रौशन नहीं.

---आग़ा शाहिद अली
अनुवाद और प्रस्तुति : अंचित

4 अगस्त 2019

धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो

धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो

वो सितारा है चमकने दो यूँ ही आँखों में
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो

पत्थरों में भी ज़ुबाँ होती है दिल होते हैं
अपने घर की दर-ओ-दीवार सजा कर देखो

फ़ासला नज़रों का धोखा भी तो हो सकता है
वो मिले या न मिले हाथ बढा़ कर देखो

--- निदा फ़ाज़ली

2 अगस्त 2019

एक ट्रक आयेगा

कभी वे चाँद पर
जाने की बात करते हैं
कभी बाघों के
दर्शन के लिए
अभयारण्य की सैर

सिर्फ़ हत्या
और बलात्कार पर
कुछ नहीं कहते

वह तो आये दिन का
कारोबार है
उस पर क्या कहना ?

एक ट्रक आयेगा
इंसाफ़ की उम्मीदों को
कुचलता चला जायेगा

आप इस ट्रक पर बैठ सकें
तो चाँद की
सैर कर सकते हैं
अभयारण्य की भी

---पंकज चतुर्वेदी

30 जुलाई 2019

बहिष्कार

आइए, इस नये वर्ष में
बहिष्कार करें
ब्राह्मणवाद, सामन्तवाद और
पूँजीवाद का,
इससे जन्मे जातिवाद और
फ़ासीवाद का।
बहिष्कार करें उस राजनीति का
जो निभा रही है पुष्यमित्र की भूमिका।
बहिष्कार करें उस चिन्तन का
जिसके मूल में हिन्दुत्व का पुनरोत्थान
शिवाजी और पेशवा शासन की
स्थापना का लक्ष्य है,
जिनमें अछूतों को कमर में बाँधकर झाड़ू
गले में लटकाकर हांड़ी
चलने की राज्याज्ञा थी।
बहिष्कार करें उस साहित्य का
जो जन्मा है पुराणों के मिथकों से
जो विरोधी है लोकतन्त्र का
समर्थक है रामलला के राज्य का
जो स्वर्ग था द्विजों का
जिसमें शूद्र-अछूतों के विकास
के रास्ते सख़्ती से बन्द थे
बहिष्कार करें उन आलोचकों का
जो समाजवाद के कैप्सूल में
भर रहे हैं ब्राह्मणवाद
जो नववाद की आड़ में
स्थापित कर रहे हैं सामन्ती मूल्य
जो सिद्ध कर रहे हैं
पथ-भ्रष्टक तुलसीदास को पथ-प्रदर्शक
रूढ़िवादी निराला को प्रगतिवाद का जनक
जिन्हें इस देश का पूँजीवाद
बाँट रहा है पुरस्कार
ताकि वे इसी तरह करते रहें / सत्य का संहार
बहिष्कार करें उस पत्रकारिता का
जो बहुत सूक्ष्म साज़िश के तहत
साम्प्रदायिकता और धर्म-सापेक्षता
की बनी हुई है संवाहिका
उगल रही है कुछ वर्गों के ख़िलाफ़ ज़हर
ढा रही है भारत की एकता पर क़हर
आइए, इसे नये वर्ष में स्वीकार करें
स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता को
न केवल चिन्तन में / न केवल लेखन में
बल्कि व्यवहार में, आचरण में, संस्कार में
मनुष्य और देश के विकास के लिए
विघटन के समूल नाश के लिए।

---कंवल भारती

25 जुलाई 2019

Oranges

The first time I walked
With a girl, I was twelve,
Cold, and weighted down
With two oranges in my jacket.

December. Frost cracking
Beneath my steps, my breath
Before me, then gone,
As I walked toward
Her house, the one whose
Porch light burned yellow
Night and day, in any weather.

A dog barked at me, until
She came out pulling
At her gloves, face bright
With rouge. I smiled,
Touched her shoulder, and led
Her down the street, across
A used car lot and a line
Of newly planted trees,
Until we were breathing
Before a drugstore. We
Entered, the tiny bell
Bringing a saleslady
Down a narrow aisle of goods.

I turned to the candies
Tiered like bleachers,
And asked what she wanted -
Light in her eyes, a smile
Starting at the corners
Of her mouth. I fingered
A nickle in my pocket,
And when she lifted a chocolate
That cost a dime,
I didn’t say anything.

I took the nickle from
My pocket, then an orange,
And set them quietly on
The counter. When I looked up,
The lady’s eyes met mine,
And held them, knowing
Very well what it was all
About.

Outside,
A few cars hissing past,
Fog hanging like old
Coats between the trees.
I took my girl’s hand
In mine for two blocks,
Then released it to let
Her unwrap the chocolate.
I peeled my orange
That was so bright against
The gray of December
That, from some distance,
Someone might have thought
I was making a fire in my hands.

--- Gary Soto

20 जुलाई 2019

आत्मा परमात्मा की व्यंजना है

आत्मा परमात्मा की व्यंजना है
क्या पता ये सत्य है या कल्पना है

देश को क्या देखते हो पोस्टर में
आदमी देखो मुकम्मल आइना है

क्या गिरेगा पेड़ वो इन आन्धियो से
जिसकी जड़ में गाँव भार की प्रार्थना है

उसके सपनों को शरण मत दीजिएगा
इनको आखिर बाढ़ में ही डूबना है

इन अन्धेरो को अभी रखना नज़र में
क्योंकि इनमें सूर्य की सम्भावना है

--- अश्वघोष

17 जुलाई 2019

कचहरी न जाना

भले डांट घर में तू बीबी की खाना

भले जैसे -तैसे गिरस्ती चलाना
भले जा के जंगल में धूनी रमाना
मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना
कचहरी न जाना
कचहरी न जाना

कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है
कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है
अहलमद से भी कोरी यारी नहीं है
तिवारी था पहले तिवारी नहीं है

कचहरी की महिमा निराली है बेटे
कचहरी वकीलों की थाली है बेटे
पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे
यहाँ पैरवी अब दलाली है बेटे

कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे
यही जिन्दगी उनको देती है बेटे
खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं
सिपाही दरोगा चरण चुमतें है

कचहरी में सच की बड़ी दुर्दशा है
भला आदमी किस तरह से फंसा है
यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे
यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे

कचहरी का मारा कचहरी में भागे
कचहरी में सोये कचहरी में जागे
मर जी रहा है गवाही में ऐसे
है तांबे का हंडा सुराही में जैसे

लगाते-बुझाते सिखाते मिलेंगे
हथेली पे सरसों उगाते मिलेंगे
कचहरी तो बेवा का तन देखती है
कहाँ से खुलेगा बटन देखती है

कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है
उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है
है बासी मुहं घर से बुलाती कचहरी
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी

मुकदमें की फाइल दबाती कचहरी
हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी
कचहरी का पानी जहर से भरा है
कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है

मुकदमा बहुत पैसा खाता है बेटे
मेरे जैसा कैसे निभाता है बेटे
दलालों नें घेरा सुझाया -बुझाया
वकीलों नें हाकिम से सटकर दिखाया

धनुष हो गया हूँ मैं टूटा नहीं हूँ
मैं मुट्ठी हूँ केवल अंगूंठा नहीं हूँ
नहीं कर सका मैं मुकदमें का सौदा
जहाँ था करौदा वहीं है करौदा

कचहरी का पानी कचहरी का दाना
तुम्हे लग न जाये तू बचना बचाना
भले और कोई मुसीबत बुलाना
कचहरी की नौबत कभी घर न लाना

कभी भूल कर भी न आँखें उठाना
न आँखें उठाना न गर्दन फसाना
जहाँ पांडवों को नरक है कचहरी
वहीं कौरवों को सरग है कचहरी ||

--- कैलाश गौतम