रक्तपात –
कहीं नहीं होगा
सिर्फ़, एक पत्ती टूटेगी!
एक कन्धा झुक जायेगा!
फड़कती भुजाओं और सिसकती हुई आँखों को
एक साथ लाल फीतों में लपेटकर
वे रख देंगे
काले दराज़ों के निश्चल एकान्त में
जहाँ रात में
संविधान की धाराएँ
नाराज़ आदमी की परछाईं को
देश के नक्शे में
बदल देती है
पूरे आकाश को
दो हिस्सों में काटती हुई
एक गूँगी परछाईं गुज़रेगी
दीवारों पर खड़खड़ाते रहेंगे
हवाई हमलों से सुरक्षा के इश्तहार
यातायात को
रास्ता देती हुई जलती रहेंगी
चौरस्तों की बस्तियाँ
सड़क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा
पीला अन्धकार
शहर की समूची
पशुता के खिलाफ़
गलियों में नंगी घूमती हुई
पागल औरत के 'गाभिन पेट' की तरह
सड़क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा पीला अन्धकार
और तुम
महसूसते रहोगे कि ज़रूरतों के
हर मोर्चे पर
तुम्हारा शक
एक की नींद और
दूसरे की नफ़रत से
लड़ रहा है
अपराधियों के झुण्ड में शरीक होकर
अपनी आवाज़ का चेहरा टटोलने के लिए
कविता में
अब कोई शब्द छोटा नहीं पड़ रहा है :
लेकिन तुम चुप रहोगे;
तुम चुप रहोगे और लज्जा के
उस गूंगेपन-से सहोगे –
यह जानकर कि तुम्हारी मातृभाषा
उस महरी की तरह है, जो
महाजन के साथ रात-भर
सोने के लिए
एक साड़ी पर राज़ी है
सिर कटे मुर्गे की तरह फड़कते हुए
जनतन्त्र में
सुबह –
सिर्फ़ चमकते हुए रंगों की चालबाज़ी है
और यह जानकर भी, तुम चुप रहोगे
या शायद, वापसी के लिए पहल करनेवाले –
आदमी की तलाश में
एक बार फिर
तुम लौट जाना चाहोगे मुर्दा इतिहास में
मगर तभी –
य़ादों पर पर्दा डालती हुई सबेरे की
फिरंगी हवा बहने लगेगी
अख़बारों की धूल और
वनस्पतियों के हरे मुहावरे
तुम्हें तसल्ली देंगे
और जलते हुए जनतन्त्र के सूर्योदय में
शरीक़ होने के लिए
तुम, चुपचाप, अपनी दिनचर्या का
पिछला दरवाज़ा खोलकर
बाहर आ जाओगे
जहाँ घास की नोक पर
थरथराती हुई ओस की एक बूंद
झड़ पड़ने के लिए
तुम्हारी सहमति का इन्तज़ार
कर रही है।
---धूमिल
Oct 19, 2012
Oct 15, 2012
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम लड़ो,
तुम लड़ो, तुम लड़ो
तुम लड़ो कि चहचहा उठें हवा के परिन्दे
तुम लड़ो कि आसमान चूम ले ज़मीन को
तुम लड़ो कि ज़िन्दगी महक उठे
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम उठो,
तुम उठो, तुम उठो
तुम उठो, उठो कि उठ पड़ें असंख्य हाथ
चल पड़ो कि चल पड़ें असंख्य पैर साथ
मुस्कुरा उठे क्षितिज पे भोर की किरन
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम बहो,
तुम बहो, तुम बहो
रुधिर प्रवाह की तरह बहो कि लालिमा
मिटा सके कलंक की सितम की कालिमा
बहो कि ख़ुशी कै़द कभी की न जा सके
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम जलो,
तुम जलो, तुम जलो
तुम जलो कि रौशनी के पंख फड़फड़ा उठें
कुचल दिये गये दिलों के तार झनझना उठें
सुषुप्त आत्मा जगे, गरज उठे
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम रचो,
तुम रचो, तुम रचो
तुम रचो हवा, पहाड़, रौशनी नयी
ज़िन्दगी नयी महान आत्मा नयी
सांस-सांस भर उठे अमिट सुगन्ध से
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
---शशि प्रकाश
तुम लड़ो, तुम लड़ो
तुम लड़ो कि चहचहा उठें हवा के परिन्दे
तुम लड़ो कि आसमान चूम ले ज़मीन को
तुम लड़ो कि ज़िन्दगी महक उठे
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम उठो,
तुम उठो, तुम उठो
तुम उठो, उठो कि उठ पड़ें असंख्य हाथ
चल पड़ो कि चल पड़ें असंख्य पैर साथ
मुस्कुरा उठे क्षितिज पे भोर की किरन
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम बहो,
तुम बहो, तुम बहो
रुधिर प्रवाह की तरह बहो कि लालिमा
मिटा सके कलंक की सितम की कालिमा
बहो कि ख़ुशी कै़द कभी की न जा सके
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम जलो,
तुम जलो, तुम जलो
तुम जलो कि रौशनी के पंख फड़फड़ा उठें
कुचल दिये गये दिलों के तार झनझना उठें
सुषुप्त आत्मा जगे, गरज उठे
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम रचो,
तुम रचो, तुम रचो
तुम रचो हवा, पहाड़, रौशनी नयी
ज़िन्दगी नयी महान आत्मा नयी
सांस-सांस भर उठे अमिट सुगन्ध से
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
---शशि प्रकाश
Oct 13, 2012
तहज़ीब यह नई है, इसको सलाम कहिए
तहज़ीब यह नई है, इसको सलाम कहिए
‘रावण’ जो सामने हो, उसको भी ‘राम’ कहिए
जो वो दिखा रहे हैं , देखें नज़र से उनकी
रातों को दिन समझिए, सुबहों को शाम कहिए
जादूगरी में उनको , अब है कमाल हासिल
उनको ही ‘राम’ कहिए, उनको ही ‘श्याम’ कहिए
मौजूद जब नहीं वो ख़ुद को खुदा समझिए
मौजूदगी में उनकी , ख़ुद को ग़ुलाम कहिए
उनका नसीब वो था, सब फल उन्होंने खाए
अपना नसीब यह है, गुठली को आम कहिए
जिन—जिन जगहों पे कोई, लीला उन्होंने की है
उन सब जगहों को चेलो, गंगा का धाम कहिए
बेकार उलझनों से गर चाहते हो बचना
वो जो बताएँ उसको अपना मुक़ाम कहिए
इस दौरे—बेबसी में गर कामयाब हैं वो
क़ुदरत का ही करिश्मा या इंतज़ाम कहिए
दस्तूर का निभाना बंदिश है मयक़दे की
जो हैं गिलास ख़ाली उनको भी जाम कहिए
बदबू हो तेज़ फिर भी, कहिए उसे न बदबू
‘अब हो गया शायद, हमको ज़ुकाम’ कहिए
यह मुल्क का मुक़द्दर, ये आज की सियासत
मुल्लाओं में हुई है, मुर्ग़ी हराम कहिए
‘द्विज’ सद्र बज़्म के हैं, वो जो कहें सो बेहतर
बासी ग़ज़ल को उनकी ताज़ा क़लाम कहिए.
---द्विजेन्द्र 'द्विज'
‘रावण’ जो सामने हो, उसको भी ‘राम’ कहिए
जो वो दिखा रहे हैं , देखें नज़र से उनकी
रातों को दिन समझिए, सुबहों को शाम कहिए
जादूगरी में उनको , अब है कमाल हासिल
उनको ही ‘राम’ कहिए, उनको ही ‘श्याम’ कहिए
मौजूद जब नहीं वो ख़ुद को खुदा समझिए
मौजूदगी में उनकी , ख़ुद को ग़ुलाम कहिए
उनका नसीब वो था, सब फल उन्होंने खाए
अपना नसीब यह है, गुठली को आम कहिए
जिन—जिन जगहों पे कोई, लीला उन्होंने की है
उन सब जगहों को चेलो, गंगा का धाम कहिए
बेकार उलझनों से गर चाहते हो बचना
वो जो बताएँ उसको अपना मुक़ाम कहिए
इस दौरे—बेबसी में गर कामयाब हैं वो
क़ुदरत का ही करिश्मा या इंतज़ाम कहिए
दस्तूर का निभाना बंदिश है मयक़दे की
जो हैं गिलास ख़ाली उनको भी जाम कहिए
बदबू हो तेज़ फिर भी, कहिए उसे न बदबू
‘अब हो गया शायद, हमको ज़ुकाम’ कहिए
यह मुल्क का मुक़द्दर, ये आज की सियासत
मुल्लाओं में हुई है, मुर्ग़ी हराम कहिए
‘द्विज’ सद्र बज़्म के हैं, वो जो कहें सो बेहतर
बासी ग़ज़ल को उनकी ताज़ा क़लाम कहिए.
---द्विजेन्द्र 'द्विज'
Oct 8, 2012
इस नदी की धार में
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।
निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
- दुष्यन्त कुमार (Dushyant Kumar)
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।
निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
- दुष्यन्त कुमार (Dushyant Kumar)
Oct 4, 2012
Hope is the thing with Feathers
"Hope" is the thing with feathers—
That perches in the soul—
And sings the tune without the words—
And never stops—at all—
And sweetest—in the Gale—is heard—
And sore must be the storm—
That could abash the little Bird
That kept so many warm—
I've heard it in the chillest land—
And on the strangest Sea—
Yet, never, in Extremity,
It asked a crumb—of Me.
---Emily Dickinson
That perches in the soul—
And sings the tune without the words—
And never stops—at all—
And sweetest—in the Gale—is heard—
And sore must be the storm—
That could abash the little Bird
That kept so many warm—
I've heard it in the chillest land—
And on the strangest Sea—
Yet, never, in Extremity,
It asked a crumb—of Me.
---Emily Dickinson
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