May 7, 2020

अकाल

फूटकर चलते फिरते छेद
भूमि की पर्त गयी है सूख
औरतें बाँधे हुए उरोज
पोटली के अन्दर है भूख
आसमानी चट्टानी बोझ
ढो रही है पत्थर की पीठ।

लाल मिट्टी लकड़ी ललछौर
दाँत मटमैले इकटक दीठ
कटोरे के पेंदे में भात
गोद में लेकर बैठा बाप
फ़र्श पर रखकर अपना पुत्र
खा रहा है उसको चुपचाप।

पीटकर कृष्णा के तटबन्ध
लौटकर पानी जाता डूब
रात होते उठती है धुन्ध
ऊपरी आमदनी की ऊब।

जोड़कर हाथ काढ़कर ख़ीस
खड़ा है बूढ़ा रामगुलाम
सामने आकर के हो गये
प्रतिष्ठित पंडित राजाराम।

मारते वही जिलाते वही
वही दुर्भिक्ष वही अनुदान
विधायक वही, वही जनसभा
सचिव वह, वही पुलिस कप्तान।

दया से देख रहे हैं दृश्य
गुसलखा़ने की खिड़की खोल
मुक्ति के दिन भी ऐसी भूल !
रह गया कुछ कम ईसपगोल!
(1967)---रघुवीर सहाय

May 5, 2020

Outwitted

HE DREW a circle that shut me out—
Heretic, rebel, a thing to flout.
But Love and I had the wit to win:
We drew a circle that took him in!

---Edwin Markham

May 1, 2020

पिछड़ा आदमी

जब सब बोलते थे
वह चुप रहता था,
जब सब चलते थे
वह पीछे हो जाता था,
जब सब खाने पर टूटते थे
वह अलग बैठा टूँगता रहता था,
जब सब निढाल हो सो जाते थे
वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था
लेकिन जब गोली चली
तब सबसे पहले
वही मारा गया

---सर्वेश्वरदयाल_सक्सेना

Apr 28, 2020

जावेद अख्तर के नाम

1)
जादू, बयान तुम्हारा, और पुकार सुनी है
तुम ‘एकला’ नहीं, हमने वो ललकार सुनी है

बोली लगी थी कल, कि सिंहासन बिकाऊ थे
नीलाम होती कल, सर-ए-बाज़ार सुनी थी

तुम ने भी खून-ए-दिल में डुबोई हैं उंगलियां
हमने क़लम की पहले भी झंकार सुनी है

2)
जो बात कहते डरते हैं सब, तू वो बात लिख
इतनी अंधेरी थी ना कभी पहले रात, लिख

जिनसे क़सीदे लिखे थे, वो फेंक दे क़लम
फिर खून-ए-दिल से सच्चे कलाम की सिफ़त लिख

जो रोज़नामचे में कहीं पाती नहीं जगह
जो रोज़ हर जगह की है, वो वारदात लिख

जितने भी तंग दायरे हैं सारे तोड़ दे
अब आ खुली फिज़ाओं में, अब कायनात लिख

जो वाक़यात हो गए उनका तो जिक्र है
लेकिन जो होने चाहिए, वो वाक़यात लिख

इस जगह में जो देखनी है तुझ को फिर बहार
तू डाल-डाल दे सदा, तू पात-पात लिख

--- गुलज़ार

Apr 23, 2020

And yet the books

And yet the books will be there on the shelves, separate beings,
That appeared once, still wet
As shining chestnuts under a tree in autumn,
And, touched, coddled, began to live
In spite of fires on the horizon, castles blown up,
Tribes on the march, planets in motion.
“We are, ” they said, even as their pages
Were being torn out, or a buzzing flame
Licked away their letters. So much more durable
Than we are, whose frail warmth
Cools down with memory, disperses, perishes.
I imagine the earth when I am no more:
Nothing happens, no loss, it’s still a strange pageant,
Women’s dresses, dewy lilacs, a song in the valley.
Yet the books will be there on the shelves, well born,
Derived from people, but also from radiance, heights.

--- Czeslaw Milosz