May 31, 2019

छोटकू

पृथ्वी का जीवन पेड़ पौधों के बिना असंभव है
छोटकू ने अपनी पाठ्यपुस्तक में पढ़ा

पंडितों की कही हर बात पर शक करना चाहिए
कुछ दिन हुए - मैंने छोटकू को समझाया था

कैसे न समझाता?

भोले भाले बच्चों से कहते पंडित
कि लोकतंत्र 'लोक' के लिए 'तंत्र' है
कि वैज्ञानिकों ने जीवन को 'जीवंत' बनाया
कि हमें अपने देश भारत पर 'गर्व' है!

भाई रे, किसे है गर्व?
आये तो सामने!

कैसे न समझाता?

छोटकू ने पढ़ा
असंभव है पेड़ पौधों के बिना पृथ्वी का जीवन

छोटकू ने समझा
शक करना चाहिए पंडित वाणी पर

सो छोटकू ने इस बात पर भी शक किया!

'पेड़-पौधों' की जगह 'मनुष्य' होना चाहिए
मनुष्य के बिना पृथ्वी का जीवन असंभव है
कैसा रहेगा यह कहना?

छोटकू ने मेरा विचार जानना चाहा

कैसा रहेगा यह तो बाद की बात
पहले यह तो बता छोटकू कि 'पेड़-पौधों के बिना' क्यों नहीं
मनुष्य के ही बिना ही क्यों?

दुधिया धान के नवान्न चिउड़े (पोहे) की तरह
अपने धारोष्ण चिंतन को चबाता
गंभीर विचारक की मुद्रा में बोला छोटकू

मनुष्य ही न रहे तो पेड़ पौधों का क्या लाभ?
कौन उसकी शोभा देखेगा?
कौन खाएगा उसके फल, सूंघेगा फूल?
पेड़ों के फरनीचर कौन बनवाएगा?
किसके काम आएगा उसका बनाया ऑक्सीजन?
मनुष्य ही न रहे गुरुजी तो कौन करेगा खोज
कि पौधों में भी जीवन होता है!

वाह छोटे गुरुजी वाह
क्या धांसू डायलॉग मारा है तुमने
यही कहना चाहते हो न कि मनुष्य के लिए ही तो पेड़ पौधे होते हैं?

जी हां बिल्कुल... हां जी यही बात!

पेड़ पौधे तो पैदा हुए मनुष्य के लिए, ठीक बात!
लेकिन यह तो बता छोटेलाल

मनुष्य जनमा किसके लिए?
नेताओं के लिए कि समय समय पर वोट देता रहे?
बनियों के लिए कि उनके सामान बिकें ताबड़तोड़?
टीवी वालों के लिए?
वैज्ञानिकों के प्रयोग के लिए?
या धर्माधीशों के सामने सिर झुकाने के लिए?
मनुष्य जनमा किसके लिए?

कोई किसी के लिए पैदा होता भी है क्या दोस्त!
अपने हक़ की छोड़ अभी
धरती के हक़ में सोच!

तुम जो जनमे हो छोटू
समझ बूझ कर सोच विचार कर तो जनमे नहीं हो
लेकिन क्या कह सकोगे कि किसके लिए जनमे हो?

खिलखिला उठा दूधिया धान का नवान्न चिउड़ा
पितृभक्ति दिखानी शुरू की उसने औपचारिकतावश
मैं तो अपने पापा का बेटा हूं
पापा के लिए पैदा हुआ हूं

अब आप ही कहो भाई साहब
छोटकू की इस बात पर मैं भी न खिलखिलाऊं
तो क्या करूं?

--- तारानंद वियोगी ( 𝑇𝑟𝑎𝑛𝑠𝑙𝑎𝑡𝑒𝑑 𝑏𝑦 Avinash Das)

May 30, 2019

भोलू और गोलू

जैसा कि चलन चला आया है
भोलू चुराता है परायी दौलत और गोलू विरोध नहीं करता
इसका मतलब है कि भोलू और गोलू रिश्तेदार हैं
या एक ही जाति के हैं
या एक ही संप्रदाय के
या एक ही पार्टी के

यह चलन चला आया है

जैसा कि सामने दिख रहा है
यह चलन भी खूब है कि राजनेता चुरा ले जाते हैं देश
दलाल अर्थव्यवस्था चुरा ले जाते हैं
नानाविध हीरोइनें चुरा ले जाती हैं स्त्री की औक़ात
धर्म के रक्षक धर्म चुरा ले जाते हैं
कोई चीनी चुराता है कोई तेल
कोई तेल और चीनी वाली धरती के सपने चुरा ले जाता है

लेकिन, भोलू और गोलू चुप रहते हैं

क्यों नहीं कहा जा सकता
कि अपने इस प्रजातंत्र में ऐसा चलन है कि दवाइयां तहख़ानों में क़ैद हैं
और रोग तय करते हैं आदमी का भविष्य

यह चलन भी देखिए
भोलू गोलू चुप रहते हैं
तो मतलब है कि वे भी चोरों से कमीशन खाते हैं
या खाने की ललक रखते हैं
या चाहते हैं कि यह ललक पैदा हो उनमें

यही एकतरफा निर्णय क्यों
कि झेल लें वे थोड़ा तनाव
तो शुरू हो विद्रोह
या चुप हैं भोलू गोलू
तो समझो तूफान आने वाला है
यही एकतरफा निर्णय क्यों?

कवि जिसे बता रहे हैं अनर्थ महाअनर्थ
भोलू गोलू उसी में ढूंढ रहे हैं अपना भविष्य

आप मुझे बताइए
यह जो चलन है
भोलू गोलू का चुप रहना
भारतीय दंड संहिता की किस धारा के अंतर्गत जुर्म है?
या संविधान के किस विधान के अनुसार यह है राष्ट्रसेवा
जिसके लिए मिलना चाहिए उन्हें पुरस्कार!
आप मुझे बताइए!!

--- तारानंद वियोगी ( Translated by Avinash Das)

May 23, 2019

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था'

"हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था

इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया

मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ

मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था

हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे"

~ विनोद कुमार शुक्ल

देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता

यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है।

देश कागज पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां, पर्वत, शहर, गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है।

इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।

जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अंधा है
जो शासन
चल रहा हो बंदूक की नली से
हत्यारों का धंधा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है।

याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।

ऐसा खून बहकर
धरती में जज्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है।
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे खून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो-
तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।

आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार।

---सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

May 19, 2019

मतदान केंद्र पर झपकी

अबकी वोट देने पहुंचा
तो अचानक पता चला
मतदाता सूची में
मेरा नाम ही नहीं है
किसी से पूछूं कि मेरे भीतर से
आवाज़ आई -
उज़बक की तरह ताकते क्या हो
न सही मतदाता सूची में
उस विशाल सूची में तो हो ही
जिसमें वे सारे नाम हैं
जो छूट जाते हैं बाहर

बाहर निकला
तो निगाह पड़ी सामने खड़े पेड़ पर
सोचा - वह भी तो नागरिक है इसी मिट्टी का
और देखो न मरजीवे को
खड़ा है कैसा मस्त मलंग!

मैं पेड़ के पास गया
और उसकी छांह में बैठे-बैठे
आ गई झपकी
देखा - पेड़ के नेतृत्व में चले जा रहे हैं
बहुत पेड़ और लोग...
जिसमें शामिल हैं-
बड़
पाकड़
गूलर
गंभार
मसान काली का दमकता सिन्दूर
चला जा रहा था आगे-आगे
कि सहसा एक पत्ती के गिरने का
धमाका हुआ
और टूट गई नींद
मैंने देखा
अब मेरी जेब में मेरा अनदिया वोट है
एक नागरिक का अन्तिम हथियार

मैंने ख़ुद से कहा
अब घर चलो केदार
और खोजो इस व्यर्थ में
नया कोई अर्थ

--- केदारनाथ सिंह