12 नवंबर 2009

नज़्म की चोरी

एक नज़्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने
यहीं पड़ी थी बालकनी में
गोल तिपाही के ऊपर थी
व्हिस्की वाले ग्लास के नीचे रखी थी
नज़्म के हल्के हल्के सिप मैं
घोल रहा था होठों में
शायद कोई फोन आया था
अन्दर जाकर लौटा तो फिर नज़्म वहां से गायब थी
अब्र के ऊपर नीचे देखा
सूट शफ़क़ की ज़ेब टटोली
झांक के देखा पार उफ़क़ के
कहीं नज़र ना आयी वो नज़्म मुझे
आधी रात आवाज़ सुनी तो उठ के देखा
टांग पे टांग रख के आकाश में
चांद तरन्नुम में पढ़ पढ़ के
दुनिया भर को अपनी कह के
नज़्म सुनाने बैठा था
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गुलज़ार

देह की गोलाईयों तक आ गये |

तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये
थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये

यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का
थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये

वक्त का पहिया किसे कुचले कहां कब क्या पता
थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये

देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं
जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये

देश के संदर्भ मे तुम बोल लेते खूब हो
बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये

प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले
घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये

कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को
तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये

सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा
देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गये
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चंद्रसेन विराट

अजनबी शहर

अजनबी शहर के/में अजनबी रास्ते , मेरी तन्हाईयों पे मुस्कुराते रहे ।
मैं बहुत देर तक यूं ही चलता रहा, तुम बहुत देर तक याद आते रहे ।।

ज़ख्म मिलता रहा, ज़हर पीते रहे, रोज़ मरते रहे रोज़ जीते रहे,
जिंदगी भी हमें आज़माती रही, और हम भी उसे आज़माते रहे ।।

ज़ख्म जब भी कोई ज़हनो दिल पे लगा, तो जिंदगी की तरफ़ एक दरीचा खुला
हम भी किसी साज़ की तरह हैं, चोट खाते रहे और गुनगुनाते रहे ।।

कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहुत थक गया, इसलिये सुन के भी अनसुनी कर गया,
इतनी यादों के भटके हुए कारवां, दिल के जख्मों के दर खटखटाते रहे ।।

सख्त हालात के तेज़ तूफानों, गिर गया था हमारा जुनूने वफ़ा
हम चिराग़े-तमन्ना़ जलाते रहे, वो चिराग़े-तमन्ना बुझाते रहे ।।

--- डॉ. राही मासूम रजा़

अशोक खोसला की आवाज़ में सुनिए राही साहब की वो ग़ज़ल, जिसमें अपने शहर को छोड़कर किसी अजनबी शहर में गये एक नौजवान के अहसासात को बयां किया गया है ।

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो ।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो ।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फ़ैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव ! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा , गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है ।
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राही मासूम रज़ा (मैं एक फ़ेरीवाला से)

9 नवंबर 2009

A thousand desires such as these

A thousand desires such as these
A thousand moments to set this night on fire
Reach out and you can touch them
You can touch them with your silences
You can reach them with your lust
Rivers mountains rain
Rain against a torrid hill’s cape
A thousand
A thousand desires such as these

I loved rain as a child
As a lost young man
Empty landscapes
Bleached by a tired sun
And then
And then suddenly it came
Like a dark unknown woman
Her eyes scorched my silences
Her body wrapped itself around me
Like a summer without end

Pause me, hold me, reach me,
Where no man has gone
Crossing the seven seas
With the wings of fire
I fly towards nowhere
And you
Rivers mountains rain
Rain against a scorched landscape of pain

A thousand desires such as these
A thousand moments to set this night on fire
Reach out and you can touch them
You can touch them with your silences
You can reach them with your lust
Rivers mountains rain
Rain against a torrid hill’s cape
A thousand
A thousand desires such as these

- From the Hazaaron Khwaishein Aisi Soundtrack

6 नवंबर 2009

Unknown Poem

If I lose the light of the sun,
I will write by candlelight, moonlight, no light
If I lose paper and ink,
I will write in blood on forgotten walls
I will write always
I will capture nights all over the world and bring them to you.

--Dino Corvino, Italian Poet

30 अक्टूबर 2009

A Patriotic Tamil Song

Our eyebrows are lowered, our eyes closed, lips parched, teeth clenched
We walk with our back bent.

We whom you rule over, lock us up in cages, flay us with staves.
Let the skin of our backs fester!

One day our eyebrows will arch. Our closed eyes will open again.
Our puckered lips will throb and our clenched teeth grind.
Rule over us until then. Flaunt your power over us.

It is taken from the movie 'Kannathil Muthamittal' directed by Maniratnam having the background of plight of tamil people in Srilanka.