28 मई 2011

3 Poems from संग्रह: उजाले अपनी यादों के

1.
अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जायेगा
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझे चाहेगा

तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा
मगर वो आँखें हमारी कहाँ से लायेगा

ना जाने कब तेरे दिल पर नई सी दस्तक हो
मकान ख़ाली हुआ है तो कोई आयेगा

मैं अपनी राह में दीवार बन के बैठा हूँ
अगर वो आया तो किस रास्ते से आयेगा

तुम्हारे साथ ये मौसम फ़रिश्तों जैसा है
तुम्हारे बाद ये मौसम बहुत सतायेगा

2.
जब सहर चुप हो, हँसा लो हमको
जब अन्धेरा हो, जला लो हमको

हम हक़ीक़त हैं, नज़र आते हैं
दास्तानों में छुपा लो हमको

ख़ून का काम रवाँ रहना है
जिस जगह चाहे बहा लो हमको

दिन न पा जाए कहीं शब का राज़
सुबह से पहले उठा लो हमको

दूर हो जाएंगे सूरज की तरह
हम न कहते थे, उछालो हमको

हम ज़माने के सताये हैं बहोत
अपने सीने से लगा लो हमको

वक़्त के होंट हमें छू लेंगे
अनकहे बोल हैं गा लो हमको

3.
गज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखायेंगे
रोयेंगे बहुत, लेकिन आँसू नहीं आयेंगे

कह देना समन्दर से, हम ओस के मोती हैं
दरिया की तरह तुझ से मिलने नहीं आयेंगे

वो धूप के छप्पर हों या छाँव की दीवारें
अब जो भी उठायेंगे, मिलजुल के उठायेंगे

जब कोई साथ न दे, आवाज़ हमें देना
हम फूल सही लेकिन पत्थर भी उठायेंगे.

---बशीर बद्र

जिन्दगी आयी बनारस का जहाँ नाम आया

मेरे होते भी अगर उनको न आराम आया
जिन्दगी फिर मेरा जीना मेरे किस काम आया

सिर्फ सहबा ही नहीं रात हुई है बदनाम
आप की मस्त निगाहों पे भी इल्जाम आया

तेरे बचने की घड़ी गर्दिशे अय्याम आया
मुझसे हुशियार मेरे हाथ में अब जाम आया

फिर वो सूरज की कड़ी धूप कभी सह न सका
जिसको जुल्फों की घनी छाँव में आराम आया

आज हर फूल को मैं देख रहा था ऐसे
मेरे महबूब का खत जैसे मेरे नाम आया

मौजे गंगा की तरह झूम उठी बज्म नजीर
जिन्दगी आयी बनारस का जहाँ नाम आया

- नजीर बनारसी

21 मई 2011

बदला न अपने आप को जो थे वही रहे

बदला न अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे.

दुनिया न जीत पाओ तो हारो न ख़ुद को तुम
थोड़ी बहुत तो ज़हन में नाराज़गी रहे.

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी क़रीब रहे दूर ही रहे.

गुज़रो जो बाग़ से तो दुआ माँगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे |

---निदा फ़ाज़ली

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे

हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे

लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ
कत्ल होने का हौसला है मुझे

दिल धडकता नहीं सुलगता है
वो जो ख्वाहिश थी, आबला है मुझे

कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे.

--- Ahmed Faraz

13 मई 2011

कोई उम्मीद बर नहीं आती

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

मौत का एक दिन मु'अय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती

जानता हूँ सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़हद
पर तबीयत इधर नहीं आती

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती

क्यों न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती

दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता
बू-ए-चारागर नहीं आती

हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती

काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुमको मगर नहीं आती.

---ग़ालिब

Freedom

The Arab Revolt 2011

The story begins
with a song—
it’s stubborn,
breaks air
into history;
for a minute
it’s quiet
to allow everyone in,
and then it raises
to celebrate voices,
clears its throat,
says:
We will bury the smoke that blinds us,
plant our soul on every page,
we will divide our pain into towers
and fill our hands with rain,
we will arrive on time every day
to chase you away,
we will no longer be afraid
of what makes us shiver under the sun,
we will leave our names in every teahouse,
our messages at the bottom of every cup.

Light will no longer be illegal
nor will hope—
even the guards will count
the scars on their tongue
and prepare to heal,
even the children will keep
homeland in the mirror
and prepare to see,
even the women will turn
the fire inside the door
off, and prepare to live.

We will never whisper again.
There is evidence, there is evidence,
that now we can hear
the sounds that lift freedom
across a continent,
and say, Salaam to you,
welcome to my country.

--- Nathalie Handal (May 2011)

Listen to Nathalie Handal read "Freedom"

2 मई 2011

मेरा कलम नहीं तजवीज़...

मेरा कलम नहीं तजवीज़1 उस मुबल्लिस की
जो बन्दिगी का भी हरदम हिसाब रखता है
मेरा कलम नहीं मीज़ान2 ऍसे आदिल3 की
जो अपने चेहरे पर दोहरा नकाब रखता है
मेरा कलम तो अमानत है मेरे लोगों की
मेरा कलम तो अदालत मेरे ज़मीर की है
इसीलिए तो जो लिखा शफा-ए-जां से लिखा
ज़बीं4 तो लोच कमान का जुबां तीर की है
मैं कट गिरूँ कि सलामत रहूँ यक़ीन है मुझे
कि ये हिसार5-ए-सितम कोई तो गिराएगा

1. सम्मति, राय, 2.तराजू, 3.न्याय करने वाला, 4. मस्तक, 5. गढ़, किला

--अहमद फ़राज़