4 मई 2010

Concert in the Garden

Concert in the Garden

It rained.
The hour is an enormous eye.
Inside it we come and go like reflections.
The river of music
enters my blood.
If I say body, it answers wind.
If I say earth, it answers where?

The world, a double blossom, opens:
sadness of having come,
joy of being here.

I walk lost in my own center.


by Octavio Paz
from The Collected Poems 1957-1987;
Carcanet Press Limited


Concierto en el Jardín

Llovío.
La hora es un ojo inmenso.
En ella andamos como reflejos.
El río de la música
entra en mi sangre.
Si digo: cuerpo, contesta: viento.
Si digo: tierra, contesta: ¿dónde?

Se abre, flor doble, el mundo:
tristeza de haber venido,
alegría de estar aquí.

Ando perdido en mi propio centro.

Octavio Paz

1 मई 2010

कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया

कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया ।
बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया ॥

हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को ।
क्या हुआ आज, यह किस बात पे रोना आया ?

किस लिए जीते हैं हम, किसके लिए जीते हैं ?
बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया ॥

कौन रोता है किसी और की ख़ातिर, ऐ दोस्त !
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया ॥

--- Sahir ludhianvi

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम

रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम

होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम

बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम

भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम

हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम |

--- Firaq Gorakhpuri

I Don't Wield Weapons:

I Don't Wield Weapons:
Mother
When I came out of your
womb no sword was gifted
nor gun
nor bomb;
you endowed me only a life.
Now
should I protest in regret
Condemning you
Pulling you out of the
grave!

--- Thoudam Netrajit Singh

Khwaab Martay Naheen

ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें कि जो
रेज़ा-रेज़ा[1] हुए तो बिखर जाएँगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जाएँगे
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब तो रोशनी हैं नवा हैं[2] हवा हैं
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़खों से भी फुकते नहीं
रोशनी और नवा के अलम
मक़्तलों[3] में पहुँचकर भी झुकते नहीं
ख़्वाब तो हर्फ़[4] हैं
ख़्वाब तो नूर[5] हैं
ख़्वाब सुक़रात [6] हैं
ख़्वाब मंसूर[7]हैं.

--- अहमद फ़राज़

1-↑ कण-कण
2-↑ आवाज़
3-↑ वधस्थल
4-↑ अक्षर
5-↑ प्रकाश
6-↑ जिन्हें सच कहने के लिए ज़ह्र का प्याला पीना पड़ा था
7- ↑ एक वली(महात्मा) जिन्होंने ‘अनलहक़’ (मैं ईश्वर हूँ) कहा था और इस अपराध के लिए उनकी गर्दन काट डाली गई थी

(Dreams Do Not Die)
Dreams are not heart, nor eyes or breath
Which shattered, will scatter (or)
Die with the death of the body.

Dreams do not die.
But dreams are light, voice, wind,
Which cannot be stopped by mountains black,
Which do not perish in the hells of cruelty,
Ensigns of light and voice and wind,
Bow not, even in abattoirs.

But dreams are letters,
But dreams are illumination,
Dreams are Socrates,
Dreams - Divine Victory!'

29 अप्रैल 2010

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी,
यही हुई है राय जवाहरलाल की
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की
यही हुई है राय जवाहरलाल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !

आओ शाही बैण्ड बजायें,
आओ बन्दनवार सजायें,
खुशियों में डूबे उतरायें,
आओ तुमको सैर करायें--
उटकमंड की, शिमला-नैनीताल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !

तुम मुस्कान लुटाती आओ,
तुम वरदान लुटाती जाओ,
आओ जी चांदी के पथ पर,
आओ जी कंचन के रथ पर,
नज़र बिछी है, एक-एक दिक्पाल की
छ्टा दिखाओ गति की लय की ताल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !

सैनिक तुम्हें सलामी देंगे
लोग-बाग बलि-बलि जायेंगे
दॄग-दॄग में खुशियां छ्लकेंगी
ओसों में दूबें झलकेंगी
प्रणति मिलेगी नये राष्ट्र के भाल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !

बेबस-बेसुध, सूखे-रुखडे़,
हम ठहरे तिनकों के टुकडे़,
टहनी हो तुम भारी-भरकम डाल की
खोज खबर तो लो अपने भक्तों के खास महाल की !
लो कपूर की लपट
आरती लो सोने की थाल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !

भूखी भारत-माता के सूखे हाथों को चूम लो
प्रेसिडेन्ट की लंच-डिनर में स्वाद बदल लो, झूम लो
पद्म-भूषणों, भारत-रत्नों से उनके उद्गार लो
पार्लमेण्ट के प्रतिनिधियों से आदर लो, सत्कार लो
मिनिस्टरों से शेकहैण्ड लो, जनता से जयकार लो
दायें-बायें खडे हज़ारी आफ़िसरों से प्यार लो
धनकुबेर उत्सुक दीखेंगे उनके ज़रा दुलार लो
होंठों को कम्पित कर लो, रह-रह के कनखी मार लो
बिजली की यह दीपमालिका फिर-फिर इसे निहार लो

यह तो नयी नयी दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो
एक बात कह दूं मलका, थोडी-सी लाज उधार लो
बापू को मत छेडो, अपने पुरखों से उपहार लो
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की !
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की
यही हुई है राय जवाहरलाल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !

--- नागार्जुन

27 अप्रैल 2010

दिल मिले या न मिले हाथ मिलाए रहिए

बात कम कीजिए, ज़हानत को छुपाते रहिये
अजनबी शहर है यह, दोस्त बनाते रहिये

दुश्मनी लाख सही, ख़त्म न कीजिए रिश्ता
दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिये

ये तो चेहरे का फ़क़त अक्स है तस्वीर नहीं
इस पे कुछ रंग अभी और चढाते रहिये

गम है आवारा अकेले मैं भटक जाता है
जिस जगह रहिये वहां मिलते मिलाते रहिये

जाने कब चाँद बिखर जाए घने जंगल मैं
अपने घर के दर-ओ-दीवार सजाते रहिये

--- निदा फ़ाज़ली