15 अगस्त 2011

जोश मलीहाबादी की एक नज़्म – आज के नाम

लोग हमसे रोज कहते हैं ये आदत छोडिये
ये तिजारत है खिलाफे-आदमियत छोडिये
इससे बदतर लत नहीं है कोई, ये लत छोडिये
रोज अखबारों में छपता है की रिश्वत छोडिये
भूल कर भी जो कोई लेता है रिश्वत, चोर है
आज कौमी पागलों में रात-दिन ये शोर है.

किसको समझाएं इसे खो दें तो फिर पाएंगे क्या?
हम अगर रिश्वत नहीं लेंगे तो फिर खायेंगे क्या?
क़ैद भी कर दें तो हमें रह पर लायेंगे क्या?
ये जूनूने -इश्क के अंदाज़ छूट जायेंगे क्या?
मुल्क भर को क़ैद कर दे किसके बस की बात है
खैर से सब हैं, कोई दो-चार-दस की बात है?

ये हवस, ये चोरबाजारी, ये महंगे, ये भाव
राइ की कीमत हो जब परबत तो क्यों न आये ताव
अपनी तनख्वाहों के नाले में पानी है आध पाव
और लाखों टन की भरी अपने जीवन की है नाव

जब तलक रिश्वत न लें हम, दाल गल सकती नहीं
नाव तनख्वाहों के पानी में तो चल सकती नहीं
ये है मिलवाला, वो बनिया, औ ये साहूकार है
ये है दूकानदार, वो हैं वैद, ये अत्तार है

वोह अगर है ठग, तो ये डाकू है, वो बटमार है
आज हर गर्दन में काली जीत का इक हार है
हैफ़! मुल्क-ओ-कॉम की खिदमतगुजारी के लिए
रह गए हैं इ हमीं ईमानदारी के लिए?

भूक के कानून में ईमानदारी जुर्म है
और बे-ईमानियों पर शर्मसारी जुर्म है
डाकुओं के दौर में परहेजगारी जुर्म है
जब हुकूमत खाम हो तो पुख्ताकारी जुर्म है

लोग अटकाते हैं क्यों रोड़े हमारे काम में
जिसको देखो, खैर से नंगा है वो हमाम में
………..

तोंद वालों की तो आईनादारी, वाहवाह
और हम भूकों के सर पर चांदमारी, वाहवाह
उनकी खातिर सुबह होते ही नहरी, वाहवाह
और हम चाटा करें ईमानदारी, वाहवाह
सेठजी तो खूब मोटर में हवा खाते फिरें
और हम सब जूतियाँ गलियों में चटकाते फिरें
………

आप हैं फज़ल-ए-खुदा-ए-पाक से कुर्सिनाशीं
इंतज़ाम-ए-सल्तनत है आपके ज़ेरे-नगीं
आसमां है आपका खादिम तो लौंडी है ज़मीं
आप खुद रिश्वर के ज़िम्मेदार हैं, फिदवी नहीं

बख्शते हैं आप दरिया, कश्तियाँ खेते हैं हम
आप देते हैं मवाके, रिश्वत लेते हैं हम
ठीक तो करते नहीं बुनियाद-ए-नाहमवार को
दे रहे हैं गालियाँ गिरती हुई दीवार को
…….

---जोश मलीहाबादी.
जोश मलीहाबादी की नज़्म ‘रिश्वत’ के कुछ टुकड़े, इस स्वाधीनता दिवस के नाम.
Taken from Kafila posted by Aditya Nigam;

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें