समय होगा, हम अचानक बीत जाएँगे :
अनर्गल ज़िंदगी ढोते किसी दिन हम
एक आशय तक पहुँच सहसा बहुत थक जाएँगे।
मृत्यु होगी खड़ी सम्मुख राह रोके,
हम जगेंगे यह विविधता, स्वप्न, खो के,
और चलते भीड़ में कंधे रगड़ कर हम
अचानक जा रहे होंगे कहीं सदियों अलग होके।
प्रकृति औ' पाखंड के ये घने लिपटे
बँटे, ऐंठे तार—
जिनसे कहीं गहरा, कहीं सच्चा,
मैं समझता—प्यार,
मेरी अमरता की नहीं देंगे ये दुहाई,
छीन लेगा इन्हें हमसे देह-सा संसार।
राख-सी साँझ, बुझे दिन की घिर जाएगी :
वही रोज़ संसृति का अपव्यय दुहराएगी।
--- कुँवर नारायण
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