I can be a Hindu
A Buddhist,
A Muslim
But the shadow
Shall never be severed from me,
The Kuladi is done,
The broom is gone,
But the shadow
Still stalks me,
I change my name,
My job,
My village,
My caste,
But the shadow will never leave me alone,
The language has changed,
The dress,
The gesture,
But the shadow
Plods resolutely on.
---Gandhvi Pravin
10 अप्रैल 2014
18 मार्च 2014
अच्छे बच्चे
कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैं
वे गेंद और ग़ुब्बारे नहीं मांगते
मिठाई नहीं मांगते ज़िद नहीं करते
और मचलते तो हैं ही नहीं
बड़ों का कहना मानते हैं
वे छोटों का भी कहना मानते हैं
इतने अच्छे होते हैं
इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हम
और मिलते ही
उन्हें ले आते हैं घर
अक्सर
तीस रुपये महीने और खाने पर।
---नरेश सक्सेना
वे गेंद और ग़ुब्बारे नहीं मांगते
मिठाई नहीं मांगते ज़िद नहीं करते
और मचलते तो हैं ही नहीं
बड़ों का कहना मानते हैं
वे छोटों का भी कहना मानते हैं
इतने अच्छे होते हैं
इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हम
और मिलते ही
उन्हें ले आते हैं घर
अक्सर
तीस रुपये महीने और खाने पर।
---नरेश सक्सेना
7 फ़रवरी 2014
हिज्र की पहली शाम
हिज्र की पहली शाम के साये दूर उफ़क़ तक छाये थे
हम जब उसके शहर से निकले सब रास्ते सँवलाये थे
जाने वो क्या सोच रहा था अपने दिल में सारी रात
प्यार की बातें करते करते उस के नैन भर आये थे
मेरे अन्दर चली थी आँधी ठीक उसी दिन पतझड़ की
जिस दिन अपने जूड़े में उसने कुछ फूल सजाये थे
उसने कितने प्यार से अपना कुफ़्र दिया नज़राने में
हम अपने ईमान का सौदा जिससे करने आये थे
कैसे जाती मेरे बदन से बीते लम्हों की ख़ुश्बू
ख़्वाबों की उस बस्ती में कुछ फूल मेरे हम-साये थे
कैसा प्यारा मंज़र था जब देख के अपने साथी को
पेड़ पे बैठी इक चिड़िया ने अपने पर फैलाये थे
रुख़्सत के दिन भीगी आँखों उसका वो कहना हाए "क़तील"
तुम को लौट ही जाना था तो इस नगरी क्यूँ आये थे |
--- क़तील शिफ़ाई
हम जब उसके शहर से निकले सब रास्ते सँवलाये थे
जाने वो क्या सोच रहा था अपने दिल में सारी रात
प्यार की बातें करते करते उस के नैन भर आये थे
मेरे अन्दर चली थी आँधी ठीक उसी दिन पतझड़ की
जिस दिन अपने जूड़े में उसने कुछ फूल सजाये थे
उसने कितने प्यार से अपना कुफ़्र दिया नज़राने में
हम अपने ईमान का सौदा जिससे करने आये थे
कैसे जाती मेरे बदन से बीते लम्हों की ख़ुश्बू
ख़्वाबों की उस बस्ती में कुछ फूल मेरे हम-साये थे
कैसा प्यारा मंज़र था जब देख के अपने साथी को
पेड़ पे बैठी इक चिड़िया ने अपने पर फैलाये थे
रुख़्सत के दिन भीगी आँखों उसका वो कहना हाए "क़तील"
तुम को लौट ही जाना था तो इस नगरी क्यूँ आये थे |
--- क़तील शिफ़ाई
30 जनवरी 2014
जब लगें ज़ख्म...
जब लगें ज़ख्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
है यही रस्म, तो यह रस्म उठा दी जाये
तिशनगी कुछ तो बुझे तिशना-लबान-ए-गम की
एक नदी दर्द की शहरों में बहा दी जाये
दिल का वोह हाल हुआ है गम-ए-दौरान के तले
जैसे एक लाश चट्टानों में दबा दी जाये
हमने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूँढ़ लिया है
क्या बुरा है जो यह अफवाह उड़ा दी जाये
हमको गुजरी हुई सदियाँ तो न पह्चानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाये
फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लावें
शर्त यह है कि इन्हें खूब हवा दी जाये
कम नहीं नशे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाये
हमसे पूछो कि ग़ज़ल क्या है, ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ्जों में कोई आग छुपा दी जाये
--- जानिसार अख्तर
है यही रस्म, तो यह रस्म उठा दी जाये
तिशनगी कुछ तो बुझे तिशना-लबान-ए-गम की
एक नदी दर्द की शहरों में बहा दी जाये
दिल का वोह हाल हुआ है गम-ए-दौरान के तले
जैसे एक लाश चट्टानों में दबा दी जाये
हमने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूँढ़ लिया है
क्या बुरा है जो यह अफवाह उड़ा दी जाये
हमको गुजरी हुई सदियाँ तो न पह्चानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाये
फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लावें
शर्त यह है कि इन्हें खूब हवा दी जाये
कम नहीं नशे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाये
हमसे पूछो कि ग़ज़ल क्या है, ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ्जों में कोई आग छुपा दी जाये
--- जानिसार अख्तर
25 जनवरी 2014
Grass
Pile the bodies high at Austerlitz and Waterloo.
Shovel them under and let me work—
I am the grass; I cover all.
And pile them high at Gettysburg
And pile them high at Ypres and Verdun.
Shovel them under and let me work.
Two years, ten years, and passengers ask the conductor:
What place is this?
Where are we now?
I am the grass.
Let me work.
---Carl Sandberg
Shovel them under and let me work—
I am the grass; I cover all.
And pile them high at Gettysburg
And pile them high at Ypres and Verdun.
Shovel them under and let me work.
Two years, ten years, and passengers ask the conductor:
What place is this?
Where are we now?
I am the grass.
Let me work.
---Carl Sandberg
24 जनवरी 2014
घास
मैं दीवारों की संध में
उगती हूं
जहां दीवारों का जोड़ होता है
वहां जहां वे एक दूसरे से मिलती हैं
जहां वे पक्की कर दी जाती हैं
वहीं मैं प्रवेश करती हूं
हवा के द्वारा बिखेरा गया
कोई अंधा बीज
धैर्यपूर्वक पूरे इत्मीनान से
मैं खामोशियों की दरारों में
फैलती जाती हूं
मैं प्रतीक्षा करती हूं दीवारों के ढहने की
और उनके धरती पर लौट आने की
और तब
मैं सारे नामों और चेहरों को
ढांक लूंगी ।
---Tadeusz Rozewicz ,1962
उगती हूं
जहां दीवारों का जोड़ होता है
वहां जहां वे एक दूसरे से मिलती हैं
जहां वे पक्की कर दी जाती हैं
वहीं मैं प्रवेश करती हूं
हवा के द्वारा बिखेरा गया
कोई अंधा बीज
धैर्यपूर्वक पूरे इत्मीनान से
मैं खामोशियों की दरारों में
फैलती जाती हूं
मैं प्रतीक्षा करती हूं दीवारों के ढहने की
और उनके धरती पर लौट आने की
और तब
मैं सारे नामों और चेहरों को
ढांक लूंगी ।
---Tadeusz Rozewicz ,1962
18 जनवरी 2014
ज़मीन तेरी कशिश
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफताब के साथ
तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ
[saraab=mirage]
बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम रात बसर की किसी गुलाब के
फिजा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुजरने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख्वाब के साथ
ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ
--- शहरयार
कि आज धूप नहीं निकली आफताब के साथ
तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ
[saraab=mirage]
बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम रात बसर की किसी गुलाब के
फिजा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुजरने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख्वाब के साथ
ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ
--- शहरयार
17 जनवरी 2014
Maut
अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूं तो चलूं
अपने ग़मख़ाने में एक धूम मचा लूं तो चलूं
और एक जाम-ए-मए तल्ख़ चढ़ा लूं तो चलूं
अभी चलता हूं ज़रा ख़ुद को संभालूं तो चलूं
जाने कब पी थी अभी तक है मए-ग़म का ख़ुमार
धुंधला धुंधला सा नज़र आता है जहाने बेदार
आंधियां चल्ती हैं दुनिया हुई जाती है ग़ुबार
आंख तो मल लूं, ज़रा होश में आ लूं तो चलूं
वो मेरा सहर वो एजाज़ कहां है लाना
मेरी खोई हुई आवाज़ कहां है लाना
मेरा टूटा हुआ साज़ कहां है लाना
एक ज़रा गीत भी इस साज़ पे गा लूं तो चलूं
मैं थका हारा था इतने में जो आए बादल
किसी मतवाले ने चुपके से बढ़ा दी बोतल
उफ़ वह रंगीं पुर-असरार ख़यालों के महल
ऐसे दो चार महल और बना लूं तो चलूं
मेरी आंखों में अभी तक है मोहब्बत का ग़ुरूर
मेरे होंटों को अभी तक है सदाक़त का ग़ुरूर
मेरे माथे पे अभी तक है शराफ़त का ग़ुरूर
ऐसे वहमों से ख़ुद को निकालूं तो चलूं
--- मुईन अह्सन जज़्बी
अपने ग़मख़ाने में एक धूम मचा लूं तो चलूं
और एक जाम-ए-मए तल्ख़ चढ़ा लूं तो चलूं
अभी चलता हूं ज़रा ख़ुद को संभालूं तो चलूं
जाने कब पी थी अभी तक है मए-ग़म का ख़ुमार
धुंधला धुंधला सा नज़र आता है जहाने बेदार
आंधियां चल्ती हैं दुनिया हुई जाती है ग़ुबार
आंख तो मल लूं, ज़रा होश में आ लूं तो चलूं
वो मेरा सहर वो एजाज़ कहां है लाना
मेरी खोई हुई आवाज़ कहां है लाना
मेरा टूटा हुआ साज़ कहां है लाना
एक ज़रा गीत भी इस साज़ पे गा लूं तो चलूं
मैं थका हारा था इतने में जो आए बादल
किसी मतवाले ने चुपके से बढ़ा दी बोतल
उफ़ वह रंगीं पुर-असरार ख़यालों के महल
ऐसे दो चार महल और बना लूं तो चलूं
मेरी आंखों में अभी तक है मोहब्बत का ग़ुरूर
मेरे होंटों को अभी तक है सदाक़त का ग़ुरूर
मेरे माथे पे अभी तक है शराफ़त का ग़ुरूर
ऐसे वहमों से ख़ुद को निकालूं तो चलूं
--- मुईन अह्सन जज़्बी
16 जनवरी 2014
खेत में दबाये गये दाने की तरह
तुम्हे जानना चाहिए कि हम
मिट कर फिर पैदा हो जायेंगे
हमारे गले जो घोंट दिए गए हैं
फिर से उन्हीं गीतों को गायेंगे
जिनकी भनक से
तुम्हें चक्कर आ जाता है !
तुम सोते से चौंक कर चिल्लाओगे
कौन गाता है?
इन गीतों को तो हमने
दफना दिया था!
तुम्हें जानना चाहिए कि
लाशें दफनाई जा कर सड़ जातीं हैं
मगर गीत मिट्टी में दबाओ
तो फिर फूटते हैं
खेत में दबाये गए दाने की तरह !
--- भवानी प्रसाद मिश्र .
मिट कर फिर पैदा हो जायेंगे
हमारे गले जो घोंट दिए गए हैं
फिर से उन्हीं गीतों को गायेंगे
जिनकी भनक से
तुम्हें चक्कर आ जाता है !
तुम सोते से चौंक कर चिल्लाओगे
कौन गाता है?
इन गीतों को तो हमने
दफना दिया था!
तुम्हें जानना चाहिए कि
लाशें दफनाई जा कर सड़ जातीं हैं
मगर गीत मिट्टी में दबाओ
तो फिर फूटते हैं
खेत में दबाये गए दाने की तरह !
--- भवानी प्रसाद मिश्र .
14 जनवरी 2014
सम्पाती
तुम्हें मैं दोष नहीं देता हूँ
सारा कसूर अपने सिर पर लेता हूँ
यह मेरा ही कसूर था
कि सूर्य के घोड़ों से होड़ लेने को
मैं आकाश में उड़ा
जटायु मुझसे ज्यादा उड़ा
वह आधे रास्ते से ही लौट आया
लेकिन मैं अपने अहंकार में
उड़ता ही गया
सारा कसूर अपने सिर पर लेता हूँ
यह मेरा ही कसूर था
कि सूर्य के घोड़ों से होड़ लेने को
मैं आकाश में उड़ा
जटायु मुझसे ज्यादा उड़ा
वह आधे रास्ते से ही लौट आया
लेकिन मैं अपने अहंकार में
उड़ता ही गया
और जैसे ही सूर्य के पास पहुंचा,
मेरे पंख जल गए।
मैंने पानी माँगा
पर दूर आकाश में
पानी कौन देता है?
सूर्या के मारे हुए को
अपनी शरण में
कौन लेता है?
अब तो सब छोड़ कर
तुम्हारे चरणों पर पड़ा हूँ
मंदिर के बाहर पड़े पौधर के समान
तुम्हारे आँगन में धरा हूँ।
तुम्हें मैं कोई दोष नहीं देता स्वामी!
--- रामधारी सिंह दिनकर
“आमि आपण दोषे दुःख पाई वासना-अनुगामी”
मेरे पंख जल गए।
मैंने पानी माँगा
पर दूर आकाश में
पानी कौन देता है?
सूर्या के मारे हुए को
अपनी शरण में
कौन लेता है?
अब तो सब छोड़ कर
तुम्हारे चरणों पर पड़ा हूँ
मंदिर के बाहर पड़े पौधर के समान
तुम्हारे आँगन में धरा हूँ।
तुम्हें मैं कोई दोष नहीं देता स्वामी!
--- रामधारी सिंह दिनकर
“आमि आपण दोषे दुःख पाई वासना-अनुगामी”
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