दर्द हल्का है साँस भारी है
जिए जाने की रस्म जारी है
आप के ब'अद हर घड़ी हम ने
आप के साथ ही गुज़ारी है
रात को चाँदनी तो ओढ़ा दो
दिन की चादर अभी उतारी है
शाख़ पर कोई क़हक़हा तो खिले
कैसी चुप सी चमन पे तारी है
कल का हर वाक़िआ तुम्हारा था
आज की दास्ताँ हमारी है
--- गुलज़ार
15 जून 2022
10 जून 2022
हिन्दू जाग गया है !
बड़ा शोर है
हिन्दू जाग गया है
हिन्दू जाग गया है
हिन्दू जाग गया है
पर कोई बता नहीं रहा
कौन सा हिन्दू जाग गया?
मोहम्मद गौरी को बुलाने वाला
जयचंद जाग गया
या
गाँधी का हत्यारा गोडसे जाग गया?
औरत को पूजने वाला
हिन्दू जाग गया
या
जुए में द्रौपदी को दांव पर लगाने वाला
हिन्दू जाग गया?
वर्णवाद का शिकार हिन्दू जाग गया
ब्राह्मणों का दरबान बना
राजपूत वाला हिन्दू जाग गया
ब्राह्मणों का कारोबार सम्भालने वाला
वैश्य हिन्दू जाग गया
या
शुद्र बना हिन्दू जाग गया?
स्वाभिमान,स्वावलंबन,रोजगार छोड़
एक एक दाने की भीख लेने वाला
हिन्दू जाग गया?
एक एक सांस को तरसता
घर घर मरघट में मरने वाला
हिन्दू जाग गया?
संविधान से बराबरी का अधिकार
लेने वाला हिन्दू जाग गया
या
संविधान सम्मत वोट से
मनुवादी सत्ता चुनकर
वर्णवाद में पिसने वाला
हिन्दू जाग गया?
बेचारे हिन्दू हिन्दू बोलकर
मरे जा रहे हैं
ये नाम इन्हें इस्लाम वालों ने दिया
मुसलमानों की दी
हिन्दू की पहचान पर गर्व कर रहे हैं
और हिन्दू नाम देने वाले
मुसलमान से नफ़रत कर रहे हैं
ये कौन से हिन्दू जाग गए है?
दरअसल हिन्दू नहीं जागे
भीड़ जाग गई है
अंधी भीड़
वर्णवाद की गुलामी से जिसे
संविधान ने आज़ादी दिलाई थी
वो भीड़ फिर से वर्णवाद को
सत्ता पर बिठाने के लिए जाग गई है
वो भीड़ जाग गई है
जो ब्राह्मणों के राज में
वर्णवाद में राजपूत
वैश्य और शुद्र बनकर
शोषित होना चाहती है
जो शोषण को भारत की संस्कृति मानती है
वो जो ब्राह्मणवाद की पालकी ढ़ोने को
मोक्ष मानती है
वो भीड़ जाग गई है
आर्य प्रसन्न हैं
मोदी संविधान को नेस्तनाबूद कर
ब्राह्मणों की सत्ता के दूत बने हैं
छोटी जाति के एक व्यक्ति के लिए
इससे बड़ी बात क्या हो सकती है
जिसे सदियों तक अछूत माना गया
वो गांधी,आंबेडकर और नेहरु के संविधान से
देश का प्रधानमन्त्री बन सकता है
वो हिन्दू जाग गया है
जो बराबरी नहीं
ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को
भारत की संस्कृति मानता है
और
संविधान सम्मत राज को गुलामी !
~ मंजुल भारद्वाज
हिन्दू जाग गया है
हिन्दू जाग गया है
हिन्दू जाग गया है
पर कोई बता नहीं रहा
कौन सा हिन्दू जाग गया?
मोहम्मद गौरी को बुलाने वाला
जयचंद जाग गया
या
गाँधी का हत्यारा गोडसे जाग गया?
औरत को पूजने वाला
हिन्दू जाग गया
या
जुए में द्रौपदी को दांव पर लगाने वाला
हिन्दू जाग गया?
वर्णवाद का शिकार हिन्दू जाग गया
ब्राह्मणों का दरबान बना
राजपूत वाला हिन्दू जाग गया
ब्राह्मणों का कारोबार सम्भालने वाला
वैश्य हिन्दू जाग गया
या
शुद्र बना हिन्दू जाग गया?
स्वाभिमान,स्वावलंबन,रोजगार छोड़
एक एक दाने की भीख लेने वाला
हिन्दू जाग गया?
एक एक सांस को तरसता
घर घर मरघट में मरने वाला
हिन्दू जाग गया?
संविधान से बराबरी का अधिकार
लेने वाला हिन्दू जाग गया
या
संविधान सम्मत वोट से
मनुवादी सत्ता चुनकर
वर्णवाद में पिसने वाला
हिन्दू जाग गया?
बेचारे हिन्दू हिन्दू बोलकर
मरे जा रहे हैं
ये नाम इन्हें इस्लाम वालों ने दिया
मुसलमानों की दी
हिन्दू की पहचान पर गर्व कर रहे हैं
और हिन्दू नाम देने वाले
मुसलमान से नफ़रत कर रहे हैं
ये कौन से हिन्दू जाग गए है?
दरअसल हिन्दू नहीं जागे
भीड़ जाग गई है
अंधी भीड़
वर्णवाद की गुलामी से जिसे
संविधान ने आज़ादी दिलाई थी
वो भीड़ फिर से वर्णवाद को
सत्ता पर बिठाने के लिए जाग गई है
वो भीड़ जाग गई है
जो ब्राह्मणों के राज में
वर्णवाद में राजपूत
वैश्य और शुद्र बनकर
शोषित होना चाहती है
जो शोषण को भारत की संस्कृति मानती है
वो जो ब्राह्मणवाद की पालकी ढ़ोने को
मोक्ष मानती है
वो भीड़ जाग गई है
आर्य प्रसन्न हैं
मोदी संविधान को नेस्तनाबूद कर
ब्राह्मणों की सत्ता के दूत बने हैं
छोटी जाति के एक व्यक्ति के लिए
इससे बड़ी बात क्या हो सकती है
जिसे सदियों तक अछूत माना गया
वो गांधी,आंबेडकर और नेहरु के संविधान से
देश का प्रधानमन्त्री बन सकता है
वो हिन्दू जाग गया है
जो बराबरी नहीं
ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को
भारत की संस्कृति मानता है
और
संविधान सम्मत राज को गुलामी !
~ मंजुल भारद्वाज
4 जून 2022
“Everything is the colonizer's Fault”
We already have poets
who speak truth to power,
in various reputed literary magazines.
We already have our political heirs
who know how to stay relevant in the media.
We already have journalists
who are friends with people in high places,
in case they write something against them in the future.
We already have newspaper editors
who know how to beat politicians at golf.
We already have people in uniform
who know how to change their nationality
as they return home.
We already have government employees
who are oblivious to politics
in the first week of every month.
What we need, God
—if you are still up there?—is
some typical, rich,
handsome, high caste Kashmiri dictator
who empathizes with our material zest!
Someone who understands
our helpless need to be religious and
speaks Arabic like poetry.
--- Mubashir Karim
who speak truth to power,
in various reputed literary magazines.
We already have our political heirs
who know how to stay relevant in the media.
We already have journalists
who are friends with people in high places,
in case they write something against them in the future.
We already have newspaper editors
who know how to beat politicians at golf.
We already have people in uniform
who know how to change their nationality
as they return home.
We already have government employees
who are oblivious to politics
in the first week of every month.
What we need, God
—if you are still up there?—is
some typical, rich,
handsome, high caste Kashmiri dictator
who empathizes with our material zest!
Someone who understands
our helpless need to be religious and
speaks Arabic like poetry.
--- Mubashir Karim
26 मई 2022
महारथी
झूठ आज से नहीं
अनन्त काल से
रथ पर सवार है
और सच चल रहा है
पाँव-पाँव
नदी पहाड़ काँटे और फूल
और धूल
और ऊबड़-खाबड़ रास्ते
सब सच ने जाने हैं
झूठ तो
समान एक आसमान में उड़ता है
और उतर जाता है
जहाँ चाहता है
क्रमश: बदली है
झूठ ने सवारियाँ
आज तो वह सुपरसॉनिक पर है
और सच आज भी
पाँव-पाँव चल रहा है
इतना ही हो सकता है किसी-दिन
कि देखें हम
सच सुस्ता रहा है
थोड़ी देर छाँव में
और
सुपरसॉनिक किसी झँझट में पड़कर
जल रहा है
--- भवानीप्रसाद मिश्र
अनन्त काल से
रथ पर सवार है
और सच चल रहा है
पाँव-पाँव
नदी पहाड़ काँटे और फूल
और धूल
और ऊबड़-खाबड़ रास्ते
सब सच ने जाने हैं
झूठ तो
समान एक आसमान में उड़ता है
और उतर जाता है
जहाँ चाहता है
क्रमश: बदली है
झूठ ने सवारियाँ
आज तो वह सुपरसॉनिक पर है
और सच आज भी
पाँव-पाँव चल रहा है
इतना ही हो सकता है किसी-दिन
कि देखें हम
सच सुस्ता रहा है
थोड़ी देर छाँव में
और
सुपरसॉनिक किसी झँझट में पड़कर
जल रहा है
--- भवानीप्रसाद मिश्र
21 मई 2022
बेरोजगार
यह सवाल उसे शर्मिंदा कर देता है
कि क्या कर रहा है वह आजकल
वह डकैती नहींडालता
वह तस्करी नहीं करता
वह हत्याएँ नहीं करता
वह फ़रेबी वादे नहीं करता
वह देश नहीं चलाता
फिर भी यह सवाल उसे शर्मिंदा कर देता है
कि क्या कर रहा है वह आजकल
--- देवी प्रसाद मिश्र
कि क्या कर रहा है वह आजकल
वह डकैती नहींडालता
वह तस्करी नहीं करता
वह हत्याएँ नहीं करता
वह फ़रेबी वादे नहीं करता
वह देश नहीं चलाता
फिर भी यह सवाल उसे शर्मिंदा कर देता है
कि क्या कर रहा है वह आजकल
--- देवी प्रसाद मिश्र
14 मई 2022
“Yet to die. Unalone still.”
Yet to die. Unalone still.
For now your pauper-friend is with you.
Together you delight in the grandeur of the plains,
And the dark, the cold, the storms of snow.
Live quiet and consoled
In gaudy poverty, in powerful destitution.
Blessed are those days and nights.
The work of this sweet voice is without sin.
Misery is he whom, like a shadow,
A dog’s barking frightens, the wind cuts down.
Poor is he who, half-alive himself
Begs his shade for pittance.
--- Osip Mandelstam (Translated by John High and Matvei Yankelevich)
For now your pauper-friend is with you.
Together you delight in the grandeur of the plains,
And the dark, the cold, the storms of snow.
Live quiet and consoled
In gaudy poverty, in powerful destitution.
Blessed are those days and nights.
The work of this sweet voice is without sin.
Misery is he whom, like a shadow,
A dog’s barking frightens, the wind cuts down.
Poor is he who, half-alive himself
Begs his shade for pittance.
--- Osip Mandelstam (Translated by John High and Matvei Yankelevich)
7 मई 2022
Irani Restaurant Instructions
Please
Do not spit
Do not sit more
Pay promptly, time is valuable
Do not write letter
without order refreshment
Do not comb,
hair is spoiling floor
Do not make mischiefs in cabin
our waiter is reporting
Come again
All are welcome whatever caste
If not satisfied tell us
otherwise tell others
GOD IS GREAT
--- Nissim Ezekiel
Do not spit
Do not sit more
Pay promptly, time is valuable
Do not write letter
without order refreshment
Do not comb,
hair is spoiling floor
Do not make mischiefs in cabin
our waiter is reporting
Come again
All are welcome whatever caste
If not satisfied tell us
otherwise tell others
GOD IS GREAT
--- Nissim Ezekiel
1 मई 2022
मज़दूरों का गीत
मेहनत से ये माना चूर हैं हम
आराम से कोसों दूर हैं हम
पर लड़ने पर मजबूर हैं हम
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
गो आफ़त ओ ग़म के मारे हैं
हम ख़ाक नहीं हैं तारे हैं
इस जग के राज-दुलारे हैं
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
बनने की तमन्ना रखते हैं
मिटने का कलेजा रखते हैं
सरकश हैं सर ऊँचा रखते हैं
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
हर चन्द कि हैं अदबार में हम
कहते हैं खुले बाज़ार में हम
हैं सब से बड़े संसार में हम
मज़दूर में हम मज़दूर हैं हम
जिस सम्त बढ़ा देते हैं क़दम
झुक जाते हैं शाहों के परचम
सावन्त हैं हम बलवन्त हैं हम
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
गो जान पे लाखों बार बनी
कर गुज़रे मगर जो जी में ठनी
हम दिल के खरे बातों के धनी
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
हम क्या हैं कभी दिखला देंगे
हम नज़्म-ए-कुहन को ढा देंगे
हम अर्ज़-ओ-समा को हिला देंगे
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
हम जिस्म में ताक़त रखते हैं
सीनों में हरारत रखते हैं
हम अज़्म-ए-बग़ावत रखते हैं
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
जिस रोज़ बग़ावत कर देंगे
दुनिया में क़यामत कर देंगे
ख़्वाबों को हक़ीक़त कर देंगे
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
हम क़ब्ज़ा करेंगे दफ़्तर पर
हम वार करेंगे क़ैसर पर
हम टूट पड़ेंगे लश्कर पर
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
---मजाज़ लखनवी
आराम से कोसों दूर हैं हम
पर लड़ने पर मजबूर हैं हम
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
गो आफ़त ओ ग़म के मारे हैं
हम ख़ाक नहीं हैं तारे हैं
इस जग के राज-दुलारे हैं
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
बनने की तमन्ना रखते हैं
मिटने का कलेजा रखते हैं
सरकश हैं सर ऊँचा रखते हैं
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
हर चन्द कि हैं अदबार में हम
कहते हैं खुले बाज़ार में हम
हैं सब से बड़े संसार में हम
मज़दूर में हम मज़दूर हैं हम
जिस सम्त बढ़ा देते हैं क़दम
झुक जाते हैं शाहों के परचम
सावन्त हैं हम बलवन्त हैं हम
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
गो जान पे लाखों बार बनी
कर गुज़रे मगर जो जी में ठनी
हम दिल के खरे बातों के धनी
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
हम क्या हैं कभी दिखला देंगे
हम नज़्म-ए-कुहन को ढा देंगे
हम अर्ज़-ओ-समा को हिला देंगे
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
हम जिस्म में ताक़त रखते हैं
सीनों में हरारत रखते हैं
हम अज़्म-ए-बग़ावत रखते हैं
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
जिस रोज़ बग़ावत कर देंगे
दुनिया में क़यामत कर देंगे
ख़्वाबों को हक़ीक़त कर देंगे
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
हम क़ब्ज़ा करेंगे दफ़्तर पर
हम वार करेंगे क़ैसर पर
हम टूट पड़ेंगे लश्कर पर
मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम
---मजाज़ लखनवी
23 अप्रैल 2022
स्कूल चले हम (School chale hum)
ओहो हो ओहो हो हो हो…
सवेरे सवेरे, यारों से मिलने, बन ठन के निकले हम
सवेरे सवेरे, यारों से मिलने, घर से दूर चले हम
रोके से ना रुके हम , मर्ज़ी से चलें हम
बादल सा गरजें हम , सावन सा बरसे हम
सूरज सा चमके हम - स्कूल चलें हम
ओहो..हो ओहो..हो हो..हो हो
इसके दरवाज़े से दुनिया के राज़ खुलते है
कोई आगे चलता है हम पीछे चलते है
दीवारों पे किस्मत अपनी लिखी जाती है
इस से हमको जीने की वजह मिलती जाती है
सवेरे सवेरे, यारों से मिलने, बन ठन के निकले हम
सवेरे सवेरे, यारों से मिलने, घर से दूर चले हम
रोके से ना रुके हम , मर्ज़ी से चलें हम
बादल सा गरजें हम , सावन सा बरसे हम
सूरज सा चमके हम - स्कूल चलें हम
ओहो..हो ओहो..हो हो..हो हो
इसके दरवाज़े से दुनिया के राज़ खुलते है
कोई आगे चलता है हम पीछे चलते है
दीवारों पे किस्मत अपनी लिखी जाती है
इस से हमको जीने की वजह मिलती जाती है
रोके से ना रुके हम , मर्ज़ी से चलें हम
बादल सा गरजें हम , सावन सा बरसें हम
सूरज सा चमके हम - स्कूल चलें हम
स्कूल चलें हम, हो..हो.. हो
बादल सा गरजें हम , सावन सा बरसें हम
सूरज सा चमके हम - स्कूल चलें हम
स्कूल चलें हम, हो..हो.. हो
ओहो..हो ओहो..हो हो..हो हो
रोके से ना रुके हम , मर्ज़ी से चलें हम
बादल सा गरजें हम , सावन सा बरसें हम
स्कूल चलें हम
रोके से ना रुके हम , मर्ज़ी से चलें हम
बादल सा गरजें हम , सावन सा बरसें हम
स्कूल चलें हम
---महबूब
21 अप्रैल 2022
चुप्पियाँ
चुप्पियाँ बढ़ती जा रही हैं
उन सारी जगहों पर
जहाँ बोलना जरूरी था
बढ़ती जा रही हैं वे
जैसे बढ़ते बाल
जैसे बढ़ते हैं नाख़ून
और आश्चर्य कि किसी को वह गड़ती तक नहीं..
~ केदारनाथ सिंह
उन सारी जगहों पर
जहाँ बोलना जरूरी था
बढ़ती जा रही हैं वे
जैसे बढ़ते बाल
जैसे बढ़ते हैं नाख़ून
और आश्चर्य कि किसी को वह गड़ती तक नहीं..
~ केदारनाथ सिंह
15 अप्रैल 2022
'Civil Service Romance'
The Letter
- Kaiser Hamidul Haq
Subject: Improvement of Bilateral Ties
Dear Miss:
With due respect and humble submission
I beg to welcome you to neighboring section.
I am coming the other day.
early for change
in view of new Boss
and you are also coming up the same stairway.
Power is failing as per schedule
and the lift will not move.
Not even down.
Five floors is no joke for fair sex
but still you are climbing and smiling.
I am sweating but you are glowing.
and becoming very beautiful.
Hitherto also you are pretty
needless to say. This is the face
I am saying to myself
to expedite launching of vessels.
Fair Helen, I am mentally drafting
make me immortal crew member.
You are joining as lower division assistant.
but you are Upper Division lady to me.
I was lower division initially
and rose by dint of good performance
I will teach sweet lady to follow suit
I am thinking at once: how to do
the buttering of boss.
Dear Miss:
With due respect and humble submission
I beg to welcome you to neighboring section.
I am coming the other day.
early for change
in view of new Boss
and you are also coming up the same stairway.
Power is failing as per schedule
and the lift will not move.
Not even down.
Five floors is no joke for fair sex
but still you are climbing and smiling.
I am sweating but you are glowing.
and becoming very beautiful.
Hitherto also you are pretty
needless to say. This is the face
I am saying to myself
to expedite launching of vessels.
Fair Helen, I am mentally drafting
make me immortal crew member.
You are joining as lower division assistant.
but you are Upper Division lady to me.
I was lower division initially
and rose by dint of good performance
I will teach sweet lady to follow suit
I am thinking at once: how to do
the buttering of boss.
- Kaiser Hamidul Haq
9 अप्रैल 2022
College Days ( 대학 시절)
Trashed books piled underneath wooden chairs.
A forest of cottonwoods was deep and beautiful,
But even the leaves were used as weapons in it
Determined youths arrived at this beautiful forest
Then passed through it with their eyes closed.
On the top of stone steps
I read Plato, and I heard gunshots each time.
When magnolias bloomed, friends dispersed to jail or army.
A poet in the year below me confessed of being an informant.
There was a professor I admired but he never spoke.
After a few winters I was left alone,
And then it was graduation. I was scared to leave school.
--- Gi Hyeong-do (Source: Published collection of poems The Black Leaf in My Mouth (입 속의 검은 잎) and translated by Jack Saebyok Jung)
A forest of cottonwoods was deep and beautiful,
But even the leaves were used as weapons in it
Determined youths arrived at this beautiful forest
Then passed through it with their eyes closed.
On the top of stone steps
I read Plato, and I heard gunshots each time.
When magnolias bloomed, friends dispersed to jail or army.
A poet in the year below me confessed of being an informant.
There was a professor I admired but he never spoke.
After a few winters I was left alone,
And then it was graduation. I was scared to leave school.
--- Gi Hyeong-do (Source: Published collection of poems The Black Leaf in My Mouth (입 속의 검은 잎) and translated by Jack Saebyok Jung)
8 अप्रैल 2022
To Paint The Portrait Of A Bird
First paint a cage
With an open door
Then paint
Something pretty
Something simple
Something beautiful
Something useful
For the bird
Then place the canvas against a tree
In a garden
In a wood
Or in a forest
Hide yourself behind the tree
Without speaking
Without moving...
Sometimes the bird will arrive soon
But it could also easily take many years
For it to decide
Wait
Wait if necessary for years
The rapidity or slowness of the arrival of the bird
Has no connection with the success of the painting
When the bird arrives
If it arrives
Observe the most profound silence
Wait until the bird enters the cage
And when it has entered
Gently close the door with the brush
Then
Erase one by one all of the bars
While being careful not to touch any of the feathers of the bird
Then make a portrait of the tree
Choosing the most beautiful of its branches
For the bird
Paint also the green foliage and the freshness of the wind
The dust of the sun
And the noise of the creatures of the grass in the heat of summer
And then wait for the bird to decide to sing
If the bird does not sing
It's a bad sign
A sign that the painting is no good
But if it does sing it's a good sign
A sign that you can sign.
Then you gently pull out
One of the feathers of the bird
And you sign your name in a corner of the painting.
---Jacques Prévert
Then paint
Something pretty
Something simple
Something beautiful
Something useful
For the bird
Then place the canvas against a tree
In a garden
In a wood
Or in a forest
Hide yourself behind the tree
Without speaking
Without moving...
Sometimes the bird will arrive soon
But it could also easily take many years
For it to decide
Wait
Wait if necessary for years
The rapidity or slowness of the arrival of the bird
Has no connection with the success of the painting
When the bird arrives
If it arrives
Observe the most profound silence
Wait until the bird enters the cage
And when it has entered
Gently close the door with the brush
Then
Erase one by one all of the bars
While being careful not to touch any of the feathers of the bird
Then make a portrait of the tree
Choosing the most beautiful of its branches
For the bird
Paint also the green foliage and the freshness of the wind
The dust of the sun
And the noise of the creatures of the grass in the heat of summer
And then wait for the bird to decide to sing
If the bird does not sing
It's a bad sign
A sign that the painting is no good
But if it does sing it's a good sign
A sign that you can sign.
Then you gently pull out
One of the feathers of the bird
And you sign your name in a corner of the painting.
2 अप्रैल 2022
The Brook
I come from haunts of coot and hern,
I make a sudden sally
And sparkle out among the fern,
To bicker down a valley.
By thirty hills I hurry down,
Or slip between the ridges,
By twenty thorpes, a little town,
And half a hundred bridges.
Till last by Philip's farm I flow
To join the brimming river,
For men may come and men may go,
But I go on for ever.
I chatter over stony ways,
In little sharps and trebles,
I bubble into eddying bays,
I babble on the pebbles.
With many a curve my banks I fret
By many a field and fallow,
And many a fairy foreland set
With willow-weed and mallow.
I chatter, chatter, as I flow
To join the brimming river,
For men may come and men may go,
But I go on for ever.
I wind about, and in and out,
With here a blossom sailing,
And here and there a lusty trout,
And here and there a grayling,
And here and there a foamy flake
Upon me, as I travel
With many a silvery waterbreak
Above the golden gravel,
And draw them all along, and flow
To join the brimming river
For men may come and men may go,
But I go on for ever.
I steal by lawns and grassy plots,
I slide by hazel covers;
I move the sweet forget-me-nots
That grow for happy lovers.
I slip, I slide, I gloom, I glance,
Among my skimming swallows;
I make the netted sunbeam dance
Against my sandy shallows.
I murmur under moon and stars
In brambly wildernesses;
I linger by my shingly bars;
I loiter round my cresses;
And out again I curve and flow
To join the brimming river,
For men may come and men may go,
But I go on for ever.
---Alfred Lord Tennyson
I make a sudden sally
And sparkle out among the fern,
To bicker down a valley.
By thirty hills I hurry down,
Or slip between the ridges,
By twenty thorpes, a little town,
And half a hundred bridges.
Till last by Philip's farm I flow
To join the brimming river,
For men may come and men may go,
But I go on for ever.
I chatter over stony ways,
In little sharps and trebles,
I bubble into eddying bays,
I babble on the pebbles.
With many a curve my banks I fret
By many a field and fallow,
And many a fairy foreland set
With willow-weed and mallow.
I chatter, chatter, as I flow
To join the brimming river,
For men may come and men may go,
But I go on for ever.
I wind about, and in and out,
With here a blossom sailing,
And here and there a lusty trout,
And here and there a grayling,
And here and there a foamy flake
Upon me, as I travel
With many a silvery waterbreak
Above the golden gravel,
And draw them all along, and flow
To join the brimming river
For men may come and men may go,
But I go on for ever.
I steal by lawns and grassy plots,
I slide by hazel covers;
I move the sweet forget-me-nots
That grow for happy lovers.
I slip, I slide, I gloom, I glance,
Among my skimming swallows;
I make the netted sunbeam dance
Against my sandy shallows.
I murmur under moon and stars
In brambly wildernesses;
I linger by my shingly bars;
I loiter round my cresses;
And out again I curve and flow
To join the brimming river,
For men may come and men may go,
But I go on for ever.
---Alfred Lord Tennyson
26 मार्च 2022
A Battlefield Song
where is the lion?
when will he come?
I do not have a turquoise-mane
my turquoise-mane is the forest of Ganden burial ground,
the deer and doe living in that forest
and the lonely sun of the Himalayan sky.
this head is lonesome like a barren land
these hands are lonely like a banner
and the window on the wall of time is forsaken.
on the fingertips of a writer
the dazzling flame of a stone’s life stories,
carries all miseries of the river
a moment at the crest of a ship’s flag.
I do not have a turquoise-mane
my turquoise-mane is a bright torch
burning in the pitch darkness of night
with its handles like a warrior’s hands—
a desolate snow mountain,
blessed by the sun and moon.
like a pillar, the ancestors are desolate,
the naro in the records of ancestors renounced
even the palace gate in my dream is deserted.
a symphony carries the melodies of aspirations
from the sunlight of southern horizon
and disturbs the silence of Drakmar,
the sacred mountain of royal lineages.
where is the lion?
when will he come?
when will he come?
I do not have a turquoise-mane
my turquoise-mane is the forest of Ganden burial ground,
the deer and doe living in that forest
and the lonely sun of the Himalayan sky.
this head is lonesome like a barren land
these hands are lonely like a banner
and the window on the wall of time is forsaken.
on the fingertips of a writer
the dazzling flame of a stone’s life stories,
carries all miseries of the river
a moment at the crest of a ship’s flag.
I do not have a turquoise-mane
my turquoise-mane is a bright torch
burning in the pitch darkness of night
with its handles like a warrior’s hands—
a desolate snow mountain,
blessed by the sun and moon.
like a pillar, the ancestors are desolate,
the naro in the records of ancestors renounced
even the palace gate in my dream is deserted.
a symphony carries the melodies of aspirations
from the sunlight of southern horizon
and disturbs the silence of Drakmar,
the sacred mountain of royal lineages.
where is the lion?
when will he come?
---Tashi Rabten
20 मार्च 2022
Murderer
you agitated my rivers
blighted flower buds
fouled the sweet-scented air
harassed the birds of the land arrayed in turquoise petals
you ripped the ropes of my old tent
spoilt the firewood of my earthen hearth
set toxic leaves on fire and
inscribed evil spells on the flags erected outside my gate
you crushed the horns of my wild yaks
scraped vulture bones for flutes
and agonised horses with chained hooves
in this land of incessant hell
should I still, intently, receive atonement
from you, the incarnation of evil?
---Tashi Rabten
blighted flower buds
fouled the sweet-scented air
harassed the birds of the land arrayed in turquoise petals
you ripped the ropes of my old tent
spoilt the firewood of my earthen hearth
set toxic leaves on fire and
inscribed evil spells on the flags erected outside my gate
you crushed the horns of my wild yaks
scraped vulture bones for flutes
and agonised horses with chained hooves
in this land of incessant hell
should I still, intently, receive atonement
from you, the incarnation of evil?
---Tashi Rabten
15 मार्च 2022
City of Faith
As well as Buddhism and Christianity
Some gods dig water channels like Allah
Some are the Holy Marys pushing wheelchairs in the park
Where ghosts thrive, gods thrive too
As shadow follows the light
Where light shines strongest you feel secure warmth
But don’t fear the places where ghosts roam
Sometimes the city’s depths are lighter than its surface
This is the advance of civilization.
Some gods dig water channels like Allah
Some are the Holy Marys pushing wheelchairs in the park
Where ghosts thrive, gods thrive too
As shadow follows the light
Where light shines strongest you feel secure warmth
But don’t fear the places where ghosts roam
Sometimes the city’s depths are lighter than its surface
This is the advance of civilization.
---Tien Huan-chun
14 मार्च 2022
हमारा कालेज का बचुआ
जब से एफ. ए. फेल हुआ,
हमारा कालेज का बचुआ |
नाक दाबकर सम्पुट साधै,
महादेवजी को आराधै,
भंग छानकर रोज़ रात को
खाता मालपुआ |
वाल्मीकि को बाबा मानै,
नाना व्यासदेव को जानै,
चाचा महिषासुर को, दुर्गा
जी को सगी बुआ |
हिन्दी का लिक्खाड़ बड़ा वह,
जब देखो तब अड़ा पड़ा वह,
छायावाद रहस्यवाद के
भावों का बटुआ |
धीरे-धीरे रगड़-रगड़ कर
श्रीगणेश से झगड़-झगड़ कर,
नत्थाराम बन गया है अब
पहले का नथुआ |
हमारे कालेज का बचुआ |
हमारा कालेज का बचुआ |
नाक दाबकर सम्पुट साधै,
महादेवजी को आराधै,
भंग छानकर रोज़ रात को
खाता मालपुआ |
वाल्मीकि को बाबा मानै,
नाना व्यासदेव को जानै,
चाचा महिषासुर को, दुर्गा
जी को सगी बुआ |
हिन्दी का लिक्खाड़ बड़ा वह,
जब देखो तब अड़ा पड़ा वह,
छायावाद रहस्यवाद के
भावों का बटुआ |
धीरे-धीरे रगड़-रगड़ कर
श्रीगणेश से झगड़-झगड़ कर,
नत्थाराम बन गया है अब
पहले का नथुआ |
हमारे कालेज का बचुआ |
3 मार्च 2022
The Testament
Dig my grave and raise my barrow
By the Dnieper-side
In Ukraina, my own land,
A fair land and wide.
I will lie and watch the cornfields,
Listen through the years
To the river voices roaring,
Roaring in my ears.
When I hear the call
Of the racing flood,
Loud with hated blood,
I will leave them all,
Fields and hills; and force my way
Right up to the Throne
Where God sits alone;
Clasp His feet and pray…
But till that day
What is God to me?
Bury me, be done with me,
Rise and break your chain,
Water your new liberty
With blood for rain.
Then, in the mighty family
Of all men that are free,
May be sometimes, very softly
You will speak of me?
— Taras Shevchenko
Translated by E. L. Voynich, London, 1911
By the Dnieper-side
In Ukraina, my own land,
A fair land and wide.
I will lie and watch the cornfields,
Listen through the years
To the river voices roaring,
Roaring in my ears.
When I hear the call
Of the racing flood,
Loud with hated blood,
I will leave them all,
Fields and hills; and force my way
Right up to the Throne
Where God sits alone;
Clasp His feet and pray…
But till that day
What is God to me?
Bury me, be done with me,
Rise and break your chain,
Water your new liberty
With blood for rain.
Then, in the mighty family
Of all men that are free,
May be sometimes, very softly
You will speak of me?
— Taras Shevchenko
Translated by E. L. Voynich, London, 1911
1 मार्च 2022
HOHENLINDEN
On Linden when the sun was low,
All bloodless lay the untrodden snow,
And dark as winter was the flow
Of Iser, rolling rapidly.
But Linden saw another sight
When the drum beat, at dead of night,
Commanding fires of death to light
The darkness of her scenery.
By torch and trumpet fast arrayed
Each horseman drew his battle blade,
And furious every charger neighed,
To join the dreadful revelry.
Then shook the hills with thunder riven,
Then rushed the steed to battle driven,
And louder than the bolts of heaven
Far flashed the red artillery.
And redder yet those fires shall glow
On Linden's hills of blood-stained snow,
And darker yet shall be the flow
Of Iser, rolling rapidly.
'Tis morn, but scarce yon lurid sun
Can pierce the war-clouds, rolling dun,
Where furious Frank and fiery Hun
Shout in their sulphurous canopy.
The combat deepens. On, ye brave,
Who rush to glory, or the grave!
Wave, Munich, all thy banners wave!
And charge with all thy chivalry!
Ah! few shall part where many meet!
The snow shall be their winding-sheet,
And every turf beneath their feet
Shall be a soldier's sepulchre.
--- Thomas Campbell (1777-1844)
All bloodless lay the untrodden snow,
And dark as winter was the flow
Of Iser, rolling rapidly.
But Linden saw another sight
When the drum beat, at dead of night,
Commanding fires of death to light
The darkness of her scenery.
By torch and trumpet fast arrayed
Each horseman drew his battle blade,
And furious every charger neighed,
To join the dreadful revelry.
Then shook the hills with thunder riven,
Then rushed the steed to battle driven,
And louder than the bolts of heaven
Far flashed the red artillery.
And redder yet those fires shall glow
On Linden's hills of blood-stained snow,
And darker yet shall be the flow
Of Iser, rolling rapidly.
'Tis morn, but scarce yon lurid sun
Can pierce the war-clouds, rolling dun,
Where furious Frank and fiery Hun
Shout in their sulphurous canopy.
The combat deepens. On, ye brave,
Who rush to glory, or the grave!
Wave, Munich, all thy banners wave!
And charge with all thy chivalry!
Ah! few shall part where many meet!
The snow shall be their winding-sheet,
And every turf beneath their feet
Shall be a soldier's sepulchre.
--- Thomas Campbell (1777-1844)
24 फ़रवरी 2022
पानी
बहते हुए पानी ने
पत्थरों पर निशान छोड़े हैं
अजीब बात है
पत्थरों ने पानी पर
कोई निशान नहीं छोड़ा।
--- नरेश सक्सेना
पत्थरों पर निशान छोड़े हैं
अजीब बात है
पत्थरों ने पानी पर
कोई निशान नहीं छोड़ा।
--- नरेश सक्सेना
स्रोत : पुस्तक : समुद्र पर हो रही है बारिश, राजकमल प्रकाशन संस्करण : 2001
18 फ़रवरी 2022
विपक्ष को कमज़ोर कहना
राजा ने कहा :
अच्छे लोकतंत्र के लिए
मज़बूत विपक्ष चाहिए
राजा के अनुयायी भी
यही कहते घूमते हैं :
विपक्ष कमज़ोर है
और वे भी जो
तटस्थ दिखना चाहते हैं
पूछते हैं :
विपक्ष कहाँ है ?
कभी-कभी तो
अफ़सोस भी जताते हैं :
विपक्ष कुछ कर नहीं पा रहा है
ये जो तटस्थ हैं
राजा के सबसे गहरे अनुयायी हैं
वे बात को
इस तरह कहने की कला जानते हैं
कि वह सत्य मालूम हो
समर्थन नहीं
रही बात विपक्ष की
तो उसे कमज़ोर कहना
उससे सहानुभूति नहीं
बल्कि राजा की
प्रशंसा है
यानी शासन इतना अच्छा है
कि विपक्ष
कमज़ोर ही हो सकता है
--- पंकज चतुर्वेदी
अच्छे लोकतंत्र के लिए
मज़बूत विपक्ष चाहिए
राजा के अनुयायी भी
यही कहते घूमते हैं :
विपक्ष कमज़ोर है
और वे भी जो
तटस्थ दिखना चाहते हैं
पूछते हैं :
विपक्ष कहाँ है ?
कभी-कभी तो
अफ़सोस भी जताते हैं :
विपक्ष कुछ कर नहीं पा रहा है
ये जो तटस्थ हैं
राजा के सबसे गहरे अनुयायी हैं
वे बात को
इस तरह कहने की कला जानते हैं
कि वह सत्य मालूम हो
समर्थन नहीं
रही बात विपक्ष की
तो उसे कमज़ोर कहना
उससे सहानुभूति नहीं
बल्कि राजा की
प्रशंसा है
यानी शासन इतना अच्छा है
कि विपक्ष
कमज़ोर ही हो सकता है
--- पंकज चतुर्वेदी
11 फ़रवरी 2022
जीने के बारे में
*एक*
जीना कोई हंसी खेल नहीं
आपको जीना चाहिये बड़ी संजीदगी के साथ
मसलन किसी गिलहरी की तरह -
मेरा मतलब है जीवन से सुदूर और ऊपर की किसी
चीज़ की तलाश किये बग़ैर,
मेरा मतलब है ज़िन्दा रहना आपका मुकम्मिल काम होना चाहिये.
जीना कोई हंसी खेल नहीं
आपको इसे गंभीरता से लेना चाहिये,
ऐसी और इस हद तक
कि, मिसाल के तौर पर, आपके हाथ बंधे आपकी पीठ पर,
आपकी पीठ दीवाल पर,
या फिर किसी प्रयोगशाला में
अपने सफ़ेद कोट और हिफ़ाज़ती चश्मों में
आप मर सकें लोगों के लिये -
उन लोगों तक के लिये जिनके चेहरे भी आपने कभी नहीं देखे,
गो कि जानते हैं आप
कि जीवन सबसे ज़्यादा वास्तविक, सबसे सुन्दर चीज़ है.
मेरा मतलब है, आपको इतनी संजीदगी से लेना चाहिये जीवन को
कि, उदाहरण के लिये, सत्तर की उम्र में भी आप रोपें जैतून का पौधा -
और यह नहीं कि अपने बच्चों के लिये, बल्कि इसलिये कि
हालांकि आप मृत्यु से डरते हैं
पर उस पर विश्वास नहीं करते
क्योंकि जीवन, मेरा मतलब है, ज़्यादा वज़नदार चीज़ है.
*दो*
मान लीजिये हम बहुत बीमार हैं - ऑपरेशन की ज़रूरत है -
जिसका मतलब है कि हो सकता है हम उठ भी न सकें
उस सफ़ेद मेज़ से
गो कि यह असंभव है अफ़सोस महसूस न करना
थोड़ा जल्दी चले जाने के बारे में
हम फिर भी हंसेंगे चुटकुले सुनते हुए,
हम देखेंगे खिड़की के बाहर कि बारिश तो नहीं हो रही,
या चिन्ताकुल प्रतीक्षा करेंगे
ताज़ा समाचार प्रसारण की ...
मान लीजिये हम मोर्चे पर हैं -
लड़ने लायक किसी चीज़ के लिये.
वहां पहले ही हमले में, उसी दिन
हम औंधे गिर सकते हैं मुंह के बल, मुर्दा.
हम जानते होंगे इसे एक अजीब गुस्से के साथ,
फिर भी हम सोचते - सोचते हलकान कर लेंगे ख़ुद को
उस युद्ध के नतीज़े की बाबत जो बरसों चल सकता है.
मान लीजिये हम जेल में हैं
और पचास की उम्र की लपेट में,
और लगाइये कि अभी अठ्ठारह बरस बाक़ी हैं
लौह फ़ाटकों के खुलने में.
हम फिर भी जियेंगे बाहर की दुनिया के साथ,
इसके लोगों, पशुओं, संघर्षों और हवा के -
मेरा मतलब कि दीवारों के पार की दुनिया के साथ
मेरा मतलब, कैसे भी कहीं भी हों हम
हमें यों जीना चाहिये जैसे हम कभी मरेंगे ही नहीं.
*तीन*
जीना कोई हंसी खेल नहीं
आपको जीना चाहिये बड़ी संजीदगी के साथ
मसलन किसी गिलहरी की तरह -
मेरा मतलब है जीवन से सुदूर और ऊपर की किसी
चीज़ की तलाश किये बग़ैर,
मेरा मतलब है ज़िन्दा रहना आपका मुकम्मिल काम होना चाहिये.
जीना कोई हंसी खेल नहीं
आपको इसे गंभीरता से लेना चाहिये,
ऐसी और इस हद तक
कि, मिसाल के तौर पर, आपके हाथ बंधे आपकी पीठ पर,
आपकी पीठ दीवाल पर,
या फिर किसी प्रयोगशाला में
अपने सफ़ेद कोट और हिफ़ाज़ती चश्मों में
आप मर सकें लोगों के लिये -
उन लोगों तक के लिये जिनके चेहरे भी आपने कभी नहीं देखे,
गो कि जानते हैं आप
कि जीवन सबसे ज़्यादा वास्तविक, सबसे सुन्दर चीज़ है.
मेरा मतलब है, आपको इतनी संजीदगी से लेना चाहिये जीवन को
कि, उदाहरण के लिये, सत्तर की उम्र में भी आप रोपें जैतून का पौधा -
और यह नहीं कि अपने बच्चों के लिये, बल्कि इसलिये कि
हालांकि आप मृत्यु से डरते हैं
पर उस पर विश्वास नहीं करते
क्योंकि जीवन, मेरा मतलब है, ज़्यादा वज़नदार चीज़ है.
*दो*
मान लीजिये हम बहुत बीमार हैं - ऑपरेशन की ज़रूरत है -
जिसका मतलब है कि हो सकता है हम उठ भी न सकें
उस सफ़ेद मेज़ से
गो कि यह असंभव है अफ़सोस महसूस न करना
थोड़ा जल्दी चले जाने के बारे में
हम फिर भी हंसेंगे चुटकुले सुनते हुए,
हम देखेंगे खिड़की के बाहर कि बारिश तो नहीं हो रही,
या चिन्ताकुल प्रतीक्षा करेंगे
ताज़ा समाचार प्रसारण की ...
मान लीजिये हम मोर्चे पर हैं -
लड़ने लायक किसी चीज़ के लिये.
वहां पहले ही हमले में, उसी दिन
हम औंधे गिर सकते हैं मुंह के बल, मुर्दा.
हम जानते होंगे इसे एक अजीब गुस्से के साथ,
फिर भी हम सोचते - सोचते हलकान कर लेंगे ख़ुद को
उस युद्ध के नतीज़े की बाबत जो बरसों चल सकता है.
मान लीजिये हम जेल में हैं
और पचास की उम्र की लपेट में,
और लगाइये कि अभी अठ्ठारह बरस बाक़ी हैं
लौह फ़ाटकों के खुलने में.
हम फिर भी जियेंगे बाहर की दुनिया के साथ,
इसके लोगों, पशुओं, संघर्षों और हवा के -
मेरा मतलब कि दीवारों के पार की दुनिया के साथ
मेरा मतलब, कैसे भी कहीं भी हों हम
हमें यों जीना चाहिये जैसे हम कभी मरेंगे ही नहीं.
*तीन*
यह धरती ठण्डी हो जायेगी एक दिन
सितारों में एक सितारा
ऊपर से सबसे नन्हा
नीले मख़मल पर एक सुनहली ज़र्रा -
मेरा मतलब है - यही -हमारी महान पृथ्वी
यह पृथ्वी ठण्डी हो जायेगी एक दिन,
बर्फ़ की सिल्ली की तरह नहीं
मुर्दा बादल की तरह भी नहीं
बल्कि एक खोखले अखरोट की तरह यह लुढ़कती होगी,
घनघोर काले शून्य में ...
अभी इसी वक़्त आपको इसका दुःख मनाना चाहिये
अभी, इसी वक़्त ज़रूरी है आपके लिये
यह अफ़सोस महसूस करना -
क्योंकि दुनिया को इतना ही प्यार करना ज़रूरी है
अगर आपको कहना है "मैं जिया".
--- Nazim Hikmet, सारे अनुवाद: वीरेन डंगवाल (१९९४), 'पहल' पुस्तिका से साभार.
सितारों में एक सितारा
ऊपर से सबसे नन्हा
नीले मख़मल पर एक सुनहली ज़र्रा -
मेरा मतलब है - यही -हमारी महान पृथ्वी
यह पृथ्वी ठण्डी हो जायेगी एक दिन,
बर्फ़ की सिल्ली की तरह नहीं
मुर्दा बादल की तरह भी नहीं
बल्कि एक खोखले अखरोट की तरह यह लुढ़कती होगी,
घनघोर काले शून्य में ...
अभी इसी वक़्त आपको इसका दुःख मनाना चाहिये
अभी, इसी वक़्त ज़रूरी है आपके लिये
यह अफ़सोस महसूस करना -
क्योंकि दुनिया को इतना ही प्यार करना ज़रूरी है
अगर आपको कहना है "मैं जिया".
--- Nazim Hikmet, सारे अनुवाद: वीरेन डंगवाल (१९९४), 'पहल' पुस्तिका से साभार.
2 फ़रवरी 2022
नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया
नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया
क्या है तेरा क्या है मेरा अपना पराया भूल गया
क्या भूला कैसे भूला क्यूँ पूछते हो बस यूँ समझो
कारन दोश नहीं है कोई भूला भाला भूल गया
कैसे दिन थे कैसी रातें कैसी बातें घातें थीं
मन बालक है पहले प्यार का सुंदर सपना भूल गया
अँधियारे से एक किरन ने झाँक के देखा शरमाई
धुँदली छब तो याद रही कैसा था चेहरा भूल गया
याद के फेर में आ कर दिल पर ऐसी कारी चोट लगी
दुख में सुख है सुख में दुख है भेद ये न्यारा भूल गया
एक नज़र की एक ही पल की बात है डोरी साँसों की
एक नज़र का नूर मिटा जब इक पल बीता भूल गया
सूझ-बूझ की बात नहीं है मन-मौजी है मस्ताना
लहर लहर से जा सर पटका सागर गहरा भूल गया
क्या है तेरा क्या है मेरा अपना पराया भूल गया
क्या भूला कैसे भूला क्यूँ पूछते हो बस यूँ समझो
कारन दोश नहीं है कोई भूला भाला भूल गया
कैसे दिन थे कैसी रातें कैसी बातें घातें थीं
मन बालक है पहले प्यार का सुंदर सपना भूल गया
अँधियारे से एक किरन ने झाँक के देखा शरमाई
धुँदली छब तो याद रही कैसा था चेहरा भूल गया
याद के फेर में आ कर दिल पर ऐसी कारी चोट लगी
दुख में सुख है सुख में दुख है भेद ये न्यारा भूल गया
एक नज़र की एक ही पल की बात है डोरी साँसों की
एक नज़र का नूर मिटा जब इक पल बीता भूल गया
सूझ-बूझ की बात नहीं है मन-मौजी है मस्ताना
लहर लहर से जा सर पटका सागर गहरा भूल गया
--- मीराजी
31 जनवरी 2022
Nothing Gold Can Stay
Nature’s first green is gold,
Her hardest hue to hold.
Her early leaf’s a flower;
But only so an hour.
Then leaf subsides to leaf.
So Eden sank to grief,
So dawn goes down to day.
Nothing gold can stay.
--- Robert Frost
Her hardest hue to hold.
Her early leaf’s a flower;
But only so an hour.
Then leaf subsides to leaf.
So Eden sank to grief,
So dawn goes down to day.
Nothing gold can stay.
--- Robert Frost
23 जनवरी 2022
The Butterfly
The last, the very last,
So richly, brightly, dazzlingly yellow.
Perhaps if the sun's tears would sing
against a white stone…
Such, such a yellow
Is carried lightly ‘way up high.
It went away I'm sure because it wished to
kiss the world goodbye.
For seven weeks I've lived in here,
Penned up inside this ghetto
But I have found my people here.
The dandelions call to me
And the white chestnut candles in the court.
Only I never saw another butterfly.
So richly, brightly, dazzlingly yellow.
Perhaps if the sun's tears would sing
against a white stone…
Such, such a yellow
Is carried lightly ‘way up high.
It went away I'm sure because it wished to
kiss the world goodbye.
For seven weeks I've lived in here,
Penned up inside this ghetto
But I have found my people here.
The dandelions call to me
And the white chestnut candles in the court.
Only I never saw another butterfly.
That butterfly was the last one.
Butterflies don't live in here,
In the ghetto.
--- Pavel Friedmann 4.6.1942
Butterflies don't live in here,
In the ghetto.
--- Pavel Friedmann 4.6.1942
17 जनवरी 2022
संतोषम् परम् सुखम्
पहली-पहली बारदुनिया बड़ी होगी एक क़दम आगे
जिसके क़दमों पर
अंसतोषी रहा होगा वह पहला ।
किसी असंतुष्ट ने ही देखा होगा
पहली बार सुंदर दुनिया का सपना
पहिए का विचार आया होगा
पहली-पहली बार
किसी असंतोषी के ही मन में
आग को भी देखा होगा पहली बार गौर से
किसी असंतोषी ने ही ।
असंतुष्टों ने ही लाँघे पर्वत, पार किए समुद्र
खोज डाली नई दुनिया
असंतोष से ही फूटी पहली कविता
असंतोष से एक नया धर्म
इतिहास के पेट में
मरोड़ उठी होगी असंतोष के चलते ही
इतिहास की धारा को मोड़ा
बार-बार असंतुष्टों ने ही
उन्हीं से गति है
उन्हीं से उष्मा
उन्हीं से यात्रा पृथ्वी से चाँद
और
पहिए से जहाज तक की
असंतुष्टों के चलते ही
सुंदर हो पाई है यह दुनिया इतनी
असंतोष के गर्भ से ही
पैदा हुई संतोष करने की कुछ स्थितियाँ ।
फिर क्यों
सत्ता घबराती है असंतुष्टों से
सबसे अधिक
क्या इसीलिए कहा गया है
संतोषम् परम् सुखम् ।
---महेश चंद्र पुनेठा
जिसके क़दमों पर
अंसतोषी रहा होगा वह पहला ।
किसी असंतुष्ट ने ही देखा होगा
पहली बार सुंदर दुनिया का सपना
पहिए का विचार आया होगा
पहली-पहली बार
किसी असंतोषी के ही मन में
आग को भी देखा होगा पहली बार गौर से
किसी असंतोषी ने ही ।
असंतुष्टों ने ही लाँघे पर्वत, पार किए समुद्र
खोज डाली नई दुनिया
असंतोष से ही फूटी पहली कविता
असंतोष से एक नया धर्म
इतिहास के पेट में
मरोड़ उठी होगी असंतोष के चलते ही
इतिहास की धारा को मोड़ा
बार-बार असंतुष्टों ने ही
उन्हीं से गति है
उन्हीं से उष्मा
उन्हीं से यात्रा पृथ्वी से चाँद
और
पहिए से जहाज तक की
असंतुष्टों के चलते ही
सुंदर हो पाई है यह दुनिया इतनी
असंतोष के गर्भ से ही
पैदा हुई संतोष करने की कुछ स्थितियाँ ।
फिर क्यों
सत्ता घबराती है असंतुष्टों से
सबसे अधिक
क्या इसीलिए कहा गया है
संतोषम् परम् सुखम् ।
---महेश चंद्र पुनेठा
10 जनवरी 2022
जेरूसलम
तुम एक नहीं
दो नहीं
तीन-तीन धर्मों की
पवित्र भूमि हो
फिर भी
इतनी नफ़रत!
इतनी अशांति!
इतना ख़ून!
हे दुनिया के प्राचीन शहर
क्या कभी तुम्हें लगता है
कि पवित्र भूमि की जगह तुम
काश! एक निर्जन भूमि होते।
~ महेश चंद्र पुनेठा
दो नहीं
तीन-तीन धर्मों की
पवित्र भूमि हो
फिर भी
इतनी नफ़रत!
इतनी अशांति!
इतना ख़ून!
हे दुनिया के प्राचीन शहर
क्या कभी तुम्हें लगता है
कि पवित्र भूमि की जगह तुम
काश! एक निर्जन भूमि होते।
~ महेश चंद्र पुनेठा
6 जनवरी 2022
दिल्ली
यह कैसे चांदनी अमा के मलिन तमिस्त्र गगन में !
कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधुली-लगन में ?
मरघट में तू साज रही दिल्ली ! कैसे श्रृंगार ?
यह बहार का स्वांग अरि, इस उजड़े हुए चमन में !
इस उजाड़, निर्जन खंडहर में,
छिन-भिन्न उजड़े इस घर में,
तुझे रूप सजने की सूझी
मेरे सत्यानाश प्रहर में !
डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया तराना
और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;
हम धोते हैं गाव इधर सतलज के शीतल जल से,
उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिडकाना ?
महल कहाँ ? बस, हमें सहारा
केवल फूस-फांस, तृणदल का;
अन्न नहीं, अवलंब प्राण को
गम, आंसू या गंगाजल का;
यह विहगों का झुण्ड लक्ष्य है
आजीवन बधिकों के फल का,
मरने पर भी हमें कफ़न है
माता शैव्या के अंचल का !
गुलचीं निष्ठुर फेंक रहा कलियों को तोड़ अनल में,
कुछ सागर के पार और कुछ रावी-सतलज-जल में;
हम मिटते जा रहे, न ज्यों, अपना कोई भगवान् !
यह अलका छवि कौन भला देखेगा इस हलचल में ?
बिखरी लट, आंसू छलके हैं,
देख, वन्दिनी है बिलखाती,
अश्रु पोंछने हम जाते हैं,
दिल्ली ! आह ! कलम रुक जाती।
अरि विवश हैं, कहो, करें क्या ?
पैरों में जंजीर हाय, हाथों-
में हैं कड़ियाँ कस जातीं !
और कहें क्या ? धरा न धंसती,
हुन्करता न गगन संघाती !
हाय ! वन्दिनी मां के सम्मुख
सुत की निष्ठुर बलि चढ़ जाती !
तड़प-तड़प हम कहो करें क्या ?
'बहै न हाथ, दहै रिसि छाती',
अंतर ही अंतर घुलते हैं,
'भा कुठार कुंठित रिपु-घाती !'
अपनी गर्दन रेत-रेत असी की तीखी धारों पर
राजहंस बलिदान चढाते माँ के हुंकारों पर।
पगली ! देख, जरा कैसे मर-मिटने की तैयारी ?
जादू चलेगा न धुन के पक्के इन बंजारों पर।
तू वैभव-मद में इठलाती
परकीया-सी सैन चलाती,
री ब्रिटेन की दासी ! किसको
इन आँखों पर है ललचाती ?
हमने देखा यहीं पांडू-वीरों का कीर्ति-प्रसार,
वैभव का सुख-स्वप्न, कला का महा-स्वप्न-अभिसार,
यही कभी अपनी रानी थी, तू ऐसे मत भूल,
अकबर, शाहजहाँ ने जिसका किया स्वयं श्रृंगार।
तू न ऐंठ मदमाती दिल्ली !
मत फिर यों इतराती दिल्ली !
अविदित नहीं हमें तेरी
कितनी कठोर है छाती दिल्ली !
हाय ! छिनी भूखों की रोटी
छिना नग्न का अर्द्ध वसन है,
मजदूरों के कौर छिने हैं
जिन पर उनका लगा दसन है ।
छिनी सजी-साजी वह दिल्ली
अरी ! बहादुरशाह 'जफर' की ;
और छिनी गद्दी लखनउ की
वाजिद अली शाह 'अख्तर' की ।
छिना मुकुट प्यारे 'सिराज' का,
छिना अरी, आलोक नयन का,
नीड़ छिना, बुलबुल फिरती है
वन-वन लिये चंचु में तिनका।
आहें उठीं दीन कृषकों की,
मजदूरों की तड़प, पुकारें,
अरी! गरीबों के लोहू पर
खड़ी हुई तेरी दीवारें ।
अंकित है कृषकों के दृग में तेरी निठुर निशानी,
दुखियों की कुटिया रो-रो कहती तेरी मनमानी ।
औ' तेरा दृग-मद यह क्या है ? क्या न खून बेकस का ?
बोल, बोल क्यों लजा रही ओ कृषक-मेध की रानी ?
वैभव की दीवानी दिल्ली !
कृषक-मेध की रानी दिल्ली !
अनाचार, अपमान, व्यंग्य की
चुभती हुई कहानी दिल्ली !
अपने ही पति की समाधि पर
कुलटे ! तू छवि में इतराती !
परदेसी-संग गलबाँही दे
मन में है फूली न समाती !
दो दिन ही के 'बाल-डांस' में
नाच हुई बेपानी दिल्ली !
कैसी यह निर्लज्ज नग्नता,
यह कैसी नादानी दिल्ली !
अरी हया कर, है जईफ यह खड़ा कुतुब मीनार,
इबरत की माँ जामा भी है यहीं अरी ! हुशियार ।
इन्हें देखकर भी तो दिल्ली ! आँखें, हाय, फिरा ले,
गौरव के गुरु रो न पड़े, हा, घूंघट जरा गिरा ले !
अरी हया कर, हया अभागी !
मत फिर लज्जा को ठुकराती;
चीख न पड़ें कब्र में अपनी,
फट न जाय अकबर की छाती ।
हुक न उठे कहीं 'दारा' की
कूक न उठे कब्र मदमाती !
गौरव के गुरु रो न पड़ें, हा,
दिल्ली घूंघट क्यों न गिराती ?
बाबर है, औरंग यहीं है
मदिरा औ' कुलटा का द्रोही,
बक्सर पर मत भूल, यहीं है
विजयी शेरशाह निर्मोही ।
अरी ! सँभल, यह कब्र न फट कर कहीं बना दे द्वार !
निकल न पड़े क्रोध में ले कर शेरशाह तलवार !
समझायेगा कौन उसे फिर ? अरी, सँभल नादान !
इस घूंघट पर आज कहीं मच जाय न फिर संहार !
जरा गिरा ले घूंघट अपना,
और याद कर वह सुख सपना,
नूरजहाँ की प्रेम-व्यथा में
दीवाने सलीम का तपना;
गुम्बद पर प्रेमिका कुपोती
के पीछे कपोत का उड़ना,
जीवन की आनन्द-घडी में
जन्नत की परियों का जुड़ना ।
जरा याद कर, यहीं नहाती---
थी रानी मुमताज अतर में,
तुझ-सी तो सुन्दरी खड़ी---
रहती थी पैमाना ले कर में ।
सुख, सौरभ, आनन्द बिछे थे
गली, कूच, वन, वीथि, नगर में,
कहती जिसे इन्द्रपुर तू वह-
तो था प्राप्य यहाँ घर-घर में ।
आज आँख तेरी बिजली से कौध-कौध जाती है !
हमें याद उस स्नेह-दीप की बार-बार आती है !
खिलें फूल, पर, मोह न सकती
हमें अपरिचित छटा निराली,
इन आँखों में घूम रही
अब भी मुरझे गुलाब की लाली ।
उठा कसक दिल में लहराता है यमुना का पानी,
पलकें जोग रहीं बीते वैभव की एक निशानी,
दिल्ली ! तेरे रूप-रंग पर कैसे ह्रदय फंसेगा ?
बाट जोहती खंडहर में हम कंगालों की रानी।
कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधुली-लगन में ?
मरघट में तू साज रही दिल्ली ! कैसे श्रृंगार ?
यह बहार का स्वांग अरि, इस उजड़े हुए चमन में !
इस उजाड़, निर्जन खंडहर में,
छिन-भिन्न उजड़े इस घर में,
तुझे रूप सजने की सूझी
मेरे सत्यानाश प्रहर में !
डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया तराना
और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;
हम धोते हैं गाव इधर सतलज के शीतल जल से,
उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिडकाना ?
महल कहाँ ? बस, हमें सहारा
केवल फूस-फांस, तृणदल का;
अन्न नहीं, अवलंब प्राण को
गम, आंसू या गंगाजल का;
यह विहगों का झुण्ड लक्ष्य है
आजीवन बधिकों के फल का,
मरने पर भी हमें कफ़न है
माता शैव्या के अंचल का !
गुलचीं निष्ठुर फेंक रहा कलियों को तोड़ अनल में,
कुछ सागर के पार और कुछ रावी-सतलज-जल में;
हम मिटते जा रहे, न ज्यों, अपना कोई भगवान् !
यह अलका छवि कौन भला देखेगा इस हलचल में ?
बिखरी लट, आंसू छलके हैं,
देख, वन्दिनी है बिलखाती,
अश्रु पोंछने हम जाते हैं,
दिल्ली ! आह ! कलम रुक जाती।
अरि विवश हैं, कहो, करें क्या ?
पैरों में जंजीर हाय, हाथों-
में हैं कड़ियाँ कस जातीं !
और कहें क्या ? धरा न धंसती,
हुन्करता न गगन संघाती !
हाय ! वन्दिनी मां के सम्मुख
सुत की निष्ठुर बलि चढ़ जाती !
तड़प-तड़प हम कहो करें क्या ?
'बहै न हाथ, दहै रिसि छाती',
अंतर ही अंतर घुलते हैं,
'भा कुठार कुंठित रिपु-घाती !'
अपनी गर्दन रेत-रेत असी की तीखी धारों पर
राजहंस बलिदान चढाते माँ के हुंकारों पर।
पगली ! देख, जरा कैसे मर-मिटने की तैयारी ?
जादू चलेगा न धुन के पक्के इन बंजारों पर।
तू वैभव-मद में इठलाती
परकीया-सी सैन चलाती,
री ब्रिटेन की दासी ! किसको
इन आँखों पर है ललचाती ?
हमने देखा यहीं पांडू-वीरों का कीर्ति-प्रसार,
वैभव का सुख-स्वप्न, कला का महा-स्वप्न-अभिसार,
यही कभी अपनी रानी थी, तू ऐसे मत भूल,
अकबर, शाहजहाँ ने जिसका किया स्वयं श्रृंगार।
तू न ऐंठ मदमाती दिल्ली !
मत फिर यों इतराती दिल्ली !
अविदित नहीं हमें तेरी
कितनी कठोर है छाती दिल्ली !
हाय ! छिनी भूखों की रोटी
छिना नग्न का अर्द्ध वसन है,
मजदूरों के कौर छिने हैं
जिन पर उनका लगा दसन है ।
छिनी सजी-साजी वह दिल्ली
अरी ! बहादुरशाह 'जफर' की ;
और छिनी गद्दी लखनउ की
वाजिद अली शाह 'अख्तर' की ।
छिना मुकुट प्यारे 'सिराज' का,
छिना अरी, आलोक नयन का,
नीड़ छिना, बुलबुल फिरती है
वन-वन लिये चंचु में तिनका।
आहें उठीं दीन कृषकों की,
मजदूरों की तड़प, पुकारें,
अरी! गरीबों के लोहू पर
खड़ी हुई तेरी दीवारें ।
अंकित है कृषकों के दृग में तेरी निठुर निशानी,
दुखियों की कुटिया रो-रो कहती तेरी मनमानी ।
औ' तेरा दृग-मद यह क्या है ? क्या न खून बेकस का ?
बोल, बोल क्यों लजा रही ओ कृषक-मेध की रानी ?
वैभव की दीवानी दिल्ली !
कृषक-मेध की रानी दिल्ली !
अनाचार, अपमान, व्यंग्य की
चुभती हुई कहानी दिल्ली !
अपने ही पति की समाधि पर
कुलटे ! तू छवि में इतराती !
परदेसी-संग गलबाँही दे
मन में है फूली न समाती !
दो दिन ही के 'बाल-डांस' में
नाच हुई बेपानी दिल्ली !
कैसी यह निर्लज्ज नग्नता,
यह कैसी नादानी दिल्ली !
अरी हया कर, है जईफ यह खड़ा कुतुब मीनार,
इबरत की माँ जामा भी है यहीं अरी ! हुशियार ।
इन्हें देखकर भी तो दिल्ली ! आँखें, हाय, फिरा ले,
गौरव के गुरु रो न पड़े, हा, घूंघट जरा गिरा ले !
अरी हया कर, हया अभागी !
मत फिर लज्जा को ठुकराती;
चीख न पड़ें कब्र में अपनी,
फट न जाय अकबर की छाती ।
हुक न उठे कहीं 'दारा' की
कूक न उठे कब्र मदमाती !
गौरव के गुरु रो न पड़ें, हा,
दिल्ली घूंघट क्यों न गिराती ?
बाबर है, औरंग यहीं है
मदिरा औ' कुलटा का द्रोही,
बक्सर पर मत भूल, यहीं है
विजयी शेरशाह निर्मोही ।
अरी ! सँभल, यह कब्र न फट कर कहीं बना दे द्वार !
निकल न पड़े क्रोध में ले कर शेरशाह तलवार !
समझायेगा कौन उसे फिर ? अरी, सँभल नादान !
इस घूंघट पर आज कहीं मच जाय न फिर संहार !
जरा गिरा ले घूंघट अपना,
और याद कर वह सुख सपना,
नूरजहाँ की प्रेम-व्यथा में
दीवाने सलीम का तपना;
गुम्बद पर प्रेमिका कुपोती
के पीछे कपोत का उड़ना,
जीवन की आनन्द-घडी में
जन्नत की परियों का जुड़ना ।
जरा याद कर, यहीं नहाती---
थी रानी मुमताज अतर में,
तुझ-सी तो सुन्दरी खड़ी---
रहती थी पैमाना ले कर में ।
सुख, सौरभ, आनन्द बिछे थे
गली, कूच, वन, वीथि, नगर में,
कहती जिसे इन्द्रपुर तू वह-
तो था प्राप्य यहाँ घर-घर में ।
आज आँख तेरी बिजली से कौध-कौध जाती है !
हमें याद उस स्नेह-दीप की बार-बार आती है !
खिलें फूल, पर, मोह न सकती
हमें अपरिचित छटा निराली,
इन आँखों में घूम रही
अब भी मुरझे गुलाब की लाली ।
उठा कसक दिल में लहराता है यमुना का पानी,
पलकें जोग रहीं बीते वैभव की एक निशानी,
दिल्ली ! तेरे रूप-रंग पर कैसे ह्रदय फंसेगा ?
बाट जोहती खंडहर में हम कंगालों की रानी।
1 जनवरी 2022
1 January 1965
The Wise Men will unlearn your name.
Above your head no star will flame.
One weary sound will be the same—
the hoarse roar of the gale.
The shadows fall from your tired eyes
as your lone bedside candle dies,
for here the calendar breeds nights
till stores of candles fail.
What prompts this melancholy key?
A long familiar melody.
It sounds again.
So let it be.
Let it sound from this night.
Let it sound in my hour of death—
as gratefulness of eyes and lips
for that
which sometimes makes us lift
our gaze to the far sky.
You glare in silence at the wall.
Your stocking gapes: no gifts at all.
It's clear that you are now too old
to trust in good Saint Nick;
that it's too late for miracles.
—
But suddenly,
lifting your eyes
to heaven's light,
you realize:
your life is a sheer gift.
--- JOSEPH BRODSKY (TRANSLATED BY GEORGE L. KLINE)
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