Oct 2, 2019

ऐ शरीफ़ इंसानो

खून अपना हो या पराया हो
नस्ले आदम का खून है आखिर
जंग मशरिक में हो कि मगरिब में
अमने आलम का खून है आखिर

बम घरों पर गिरें के सरहद पर
रूहे तामीर जख्म खाती है
खेत अपने जलें कि औरों के
जीस्त फाकोंसे तिलमिलाती है

टैंक आगे बढ़ें के पीछे हटें
कोख धरती की बांझ होती है
फतह का जश्नहो कि हार का सोग
जिंदगी मीयतों पे रोती है

जंग तो खुद एक मसअला है
जंग क्या मसअलों का हल देगी
आग और खून आज बख्शेगी
भूख और ऐतजाज़ कल देगी

इस लिऐ ऐ शरीफ इन्सानो
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आंगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है

---साहिर लुधियानवी

Sep 30, 2019

एक पूरी उम्र

यक़ीन मानिए
इस आदमख़ोर गाँव में
मुझे डर लगता है
बहुत डर लगता है
लगता है कि अभी बस अभी
ठकुराइसी मेड़ चीख़ेगी
मैं अधशौच ही
खेत से उठ आऊँगा
कि अभी बस अभी
हवेली घुड़केगी,
मैं बेगार में पकड़ा जाऊँगा
कि अभी बस अभी
महाजन आएगा
मेरी गाड़ी से भैंस
उधारी में खोल ले जाएगा
कि अभी बस अभी
बुलावा आएगा
खुलकर खाँसने के
अपराध में प्रधान
मुश्क बाँध मारेगा
लदवाएगा डकैती में
सीखचों के भीतर
उम्र भर सड़ाएगा

---मलखान सिंह

Sep 18, 2019

कोसल में विचारों की कमी है!

महाराज बधाई हो!
महाराज की जय हो।
युद्ध नहीं हुआ
लौट गए शत्रु।

वैसे हमारी तैयारी पूरी थी!
चार अक्षौहिणी थीं सेनाएँ,
दस सहस्र अश्व,
लगभग इतने ही हाथी।

कोई कसर न थी!
युद्ध होता भी तो
नतीजा यही होता।

न उनके पास अस्त्र थे,
न अश्व,
न हाथी,
युद्ध हो भी कैसे सकता था?
निहत्थे थे वे।

उनमें से हरेक अकेला था
और हरेक यह कहता था
प्रत्येक अकेला होता है!

जो भी हो,
जय यह आपकी है!
बधाई हो!
राजसूय पूरा हुआ,
आप चक्रवर्ती हुए

वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गए हैं
जैसे कि यह :

कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,
कोसल में विचारों की कमी है!

--- श्रीकांत वर्मा

Sep 15, 2019

कितना चौड़ा पाट नदी का

कितना चौड़ा पाट नदी का,
कितनी भारी शाम,
कितने खोए–खोए से हम,
कितना तट निष्काम,
कितनी बहकी–बहकी सी
दूरागत–वंशी–टेर,
कितनी टूटी–टूटी सी
नभ पर विहगों की फेर,
कितनी सहमी–सहमी–सी
जल पर तट–तरु–अभिलाषा,
कितनी चुप–चुप गयी रोशनी,
छिप छिप आई रात,
कितनी सिहर–सिहर कर
अधरों से फूटी दो बात,
चार नयन मुस्काए, खोए,
भीगे, फिर पथराए,
कितनी बड़ी विवशता,
जीवन की, कितनी कह पाए!

~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

Sep 14, 2019

सरकारी हिन्दी

डिल्लू बापू पंडित थे
बिना वैसी पढ़ाई के
जीवन में एक ही श्लोक
उन्होंने जाना
वह भी आधा
उसका भी वे
अशुद्ध उच्चारण करते थे
यानी ‘त्वमेव माता चपिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश चसखा त्वमेव’
इसके बाद वे कहते
कि आगे तो आप जानते ही हैं
गोया जो सब जानते हों
उसे जानने और जनाने में
कौन-सी अक़्लमंदी है ?
इसलिए इसी अल्प-पाठ के सहारे
उन्होंने सारे अनुष्ठान कराये
एक दिन किसी ने उनसे कहा:
बापू, संस्कृत में भूख को
क्षुधा कहते हैं
डिल्लू बापू पंडित थे
तो वैद्य भी उन्हें होना ही था
नाड़ी देखने के लिए वे
रोगी की पूरी कलाई को
अपने हाथ में कसकर थामते
आँखें बन्द कर
मुँह ऊपर को उठाये रहते
फिर थोड़ा रुककर
रोग के लक्षण जानने के सिलसिले में
जो पहला प्रश्न वे करते
वह भाषा में
संस्कृत के प्रयोग का
एक विरल उदाहरण है
यानी ‘पुत्तू ! क्षुधा की भूख
लगती है क्या ?’
बाद में यही
सरकारी हिन्दी हो गयी

---पंकज चतुर्वेदी