23 अगस्त 2020

राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या

राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या

क़ाफ़िले में सुब्ह के इक शोर है
या'नी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या

सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्म-ए-ख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या

ये निशान-ए-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या

ग़ैरत-ए-यूसुफ़ है ये वक़्त-ए-अज़ीज़
'मीर' उस को राएगाँ खोता है क्या

--- मीर तक़ी मीर

21 अगस्त 2020

अरे यायावर! रहेगा याद?

पार्श्व गिरि का नम्र, 
चीड़ों में डगर चढ़ती उमंगों-सी। 
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा। 
विहग-शिशु मौन नीड़ों में। 

 मैं ने आँख भर देखा। 
दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा। 
(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!) 
क्षितिज ने पलक-सी खोली, 
 तमक कर दामिनी बोली-
 'अरे यायावर! रहेगा याद?' 

 माफ्लङ् (शिलङ्), 22 सितम्बर, 1947

As I Grew Older

It was a long time ago.
I have almost forgotten my dream.
But it was there then,
In front of me,
Bright like a sun—
My dream.
And then the wall rose,
Rose slowly,
Slowly,
Between me and my dream.
Rose until it touched the sky—
The wall.
Shadow.
I am black.
I lie down in the shadow.
No longer the light of my dream before me,
Above me.
Only the thick wall.
Only the shadow.
My hands!
My dark hands!
Break through the wall!
Find my dream!
Help me to shatter this darkness,
To smash this night,
To break this shadow
Into a thousand lights of sun,
Into a thousand whirling dreams
Of sun!

---Langston Hughes

18 अगस्त 2020

ज़िन्दगी है कश लगा

ज़िन्दगी है कश लगा
ज़िन्दगी है कश लगा
हसरतो की राख उड़ा
यह जहाँ पानी है
बुलबुला है पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या
पानियों में बहता जा बहता जा

कश लगा
कश लगा
कश लगा
कश लगा

जलती है तन्हाईयाँ
तापी है रात रात जाग जाग के
उड़ती है चिंगारियाँ
गुच्छे है लाल लाल गिली आग के
ओह खिलती है जैसे जलते
जुगनु हो बेरियों में
आँखें लगी हो जैसे
उपलों की ढेरियों में
दो दिन का आग है यह
सारा जहाँ धुआँ

दो दिन की ज़िन्दगी में
दोनों जहाँ का धुआँ

यह जहाँ पानी है
बुलबुला है पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या
पानियों में बहता जा बहता जा

कश लगा
कश लगा
कश लगा
कश लगा

छोड़ी हुई बस्तियां
जाता हूँ बार बार
घूम घूम के
मिलते नहीं वह निशाँ
छोड़े थे दहलीज़
चूम चूम के
चौपाए चर जायेंगे
जंगल की क्यारियाँ हैं
पगडंडियों पर मिलना
दो दिन की यारियां है
क्या जाने कौन जाये
आरी से बारी आये
हम भी कतार में है
जब भी सवारी आये
यह जहाँ पानी है
बुलबुला है पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या
पानियों में बहता जा बहता जा

कश लगा
कश लगा
कश लगा
कश लगा

---गुलज़ार

17 अगस्त 2020

Hawk Roosting

I sit in the top of the wood, my eyes closed.
Inaction, no falsifying dream
Between my hooked head and hooked feet:
Or in sleep rehearse perfect kills and eat.

The convenience of the high trees!
The air's buoyancy and the sun's ray
Are of advantage to me;
And the earth's face upward for my inspection.

My feet are locked upon the rough bark.
It took the whole of Creation
To produce my foot, my each feather:
Now I hold Creation in my foot

Or fly up, and revolve it all slowly -
I kill where I please because it is all mine.
There is no sophistry in my body:
My manners are tearing off heads -

The allotment of death.
For the one path of my flight is direct
Through the bones of the living.
No arguments assert my right:

The sun is behind me.
Nothing has changed since I began.
My eye has permitted no change.
I am going to keep things like this.

---Ted Hughes

15 अगस्त 2020

मुक्ति-संग्राम अभी जारी है

मैं उस अतीत को
अपने बहुत क़रीब पाता हूँ
जिसे जिया था तुमने
अपने दृढ-संकल्प और संघर्ष से।
परिवर्तित किया था समय-चक्र को
इस वर्तमान में।

मैं उस अन्धी निशा की
भयानक पीड़ा को / जब भी महसूस करता हूँ
तुम्हारे विचारों के आन्दोलन में
मुखर होता है एक रचनात्मक विप्लव
मेरे रोम-रोम में।

तुम बिलकुल नहीं मरे हो बाबा !
जीवित हो हमारी चेतना में,
हमारे संकल्प में, हमारे संघर्षों में।

समता, सम्मान और स्वाधीनता के लिए
मुक्ति-संग्राम जारी रहेगा / जब तक कि
हमारे मुरझाए पौधे के हिस्से का सूरज
उग नहीं जाता है।

---कंवल भारती

9 अगस्त 2020

साहेब! कैसे करोगे खारिज

साहेब !
ओढ़े गये छद्म विषयों की
तुम कर सकते हो अलंकारिक व्याख्या
पर क्या होगा एक दिन जब
शहर आयी जंगल की लड़की
लिख देगी अपनी कविता में सारा सच,
वह सच
जिसे अपनी किताबों के आवरण के नीचे
तुमने छिपाकर रखा है
तुम्हारी घिनौनी भाषा
मंच से तुम्हारे उतरने के बाद
इशारों में जो बोली जाती है
तुम्हारी वे सच्चाइयां
तुम्हें लगता है जो समय के साथ
बदल जाएगी किसी भ्रम में,
साहेब !
एक दिन
जंगल की कोई लड़की
कर देगी तुम्हारी व्याख्याओं को
अपने सच से नंगा,
लिख देगी अपनी कविता में
कैसे तुम्हारे जंगल के रखवालों ने
'तलाशी' के नाम पर
खींचे उसके कपड़े,
कैसे दरवाजे तोड़कर
घुस आती है
तुम्हारी फौज उनके घरों में,
कैसे बच्चे थामने लगते हैं
गुल्ली–डंडे की जगह बंदूकें
और कैसे भर आता है
उसके कलेजे में बारूद,
साहेब !
एक दिन
जंगल की हर लड़की
लिखेगी कविता
क्या कहकर खारिज करोगे उन्हें?
क्या कहोगे साहेब?
यही न....
कि यह कविता नहीं
"समाचार" है.....!!

---जसिंता केरकेट्टा