चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का ।
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का ।
बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फ़सल ठाकुर की ।
कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या ?
गाँव ?
शहर ?
देश ?
--- ओमप्रकाश वाल्मीकि (नवम्बर, 1981)
21 अप्रैल 2021
14 अप्रैल 2021
गीत फरोश
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ।
जी, माल देखिए, दाम बताऊँगा,
बेकाम नहीं हैं, काम बताऊँगा,
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने,
यह गीत सख्त सर-दर्द भुलाएगा,
यह गीत पिया को पास बुलाएगा।
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको,
पर बाद-बाद में अक्ल जगी मुझको,
जी, लोगों ने तो बेच दिए ईमान,
जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान–
मैं सोच समझ कर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ,
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ।
यह गीत सुबह का है, गा कर देखें,
यह गीत गज़ब का है, ढा कर देखें,
यह गीत ज़रा सूने में लिक्खा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिक्खा था,
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है,
यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है।
यह गीत भूख और प्यास भगाता है,
जी, यह मसान में भूख जगाता है,
यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर,
यह गीत तपेदिक की है दवा है हुजूर,
जी, और गीत भी हैं दिखलाता हूँ,
जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ।
जी, छंद और बेछंद पसंद करें,
जी अमर गीत और वे जो तुरत मरें!
ना, बुरा मानने की इसमें बात,
मैं ले आता हूँ, कलम और दवात,
इनमें से भाये नहीं, नये लिख दूँ,
जी, नए चाहिए नहीं, गए लिख दूँ,
मैं नए, पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ,
जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ।
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ।
जी, गीत जनम का लिखूँ मरण का लिखूँ,
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ,
यह गीत रेशमी है, यह खादी का,
यह गीत पित्त का है, यह बादी का,
कुछ और डिजाइन भी हैं, यह इलमी,
यह लीजे चलती चीज़, नई फ़िल्मी,
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत,
यह दुकान से घर जाने का गीत।
जी नहीं, दिल्लगी की इसमें क्या बात,
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात,
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,
जी, रूठ-रूठ कर मन जाते हैं गीत!
जी, बहुत ढेर लग गया, हटाता हूँ,
गाहक की मर्ज़ी, अच्छा जाता हूँ,
या भीतर जाकर पूछ आइए आप,
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप,
क्या करूँ मगर लाचार
हार कर गीत बेचता हूँ।
जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ।
∼ भवानी प्रसाद मिश्र
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ।
जी, माल देखिए, दाम बताऊँगा,
बेकाम नहीं हैं, काम बताऊँगा,
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने,
यह गीत सख्त सर-दर्द भुलाएगा,
यह गीत पिया को पास बुलाएगा।
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको,
पर बाद-बाद में अक्ल जगी मुझको,
जी, लोगों ने तो बेच दिए ईमान,
जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान–
मैं सोच समझ कर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ,
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ।
यह गीत सुबह का है, गा कर देखें,
यह गीत गज़ब का है, ढा कर देखें,
यह गीत ज़रा सूने में लिक्खा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिक्खा था,
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है,
यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है।
यह गीत भूख और प्यास भगाता है,
जी, यह मसान में भूख जगाता है,
यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर,
यह गीत तपेदिक की है दवा है हुजूर,
जी, और गीत भी हैं दिखलाता हूँ,
जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ।
जी, छंद और बेछंद पसंद करें,
जी अमर गीत और वे जो तुरत मरें!
ना, बुरा मानने की इसमें बात,
मैं ले आता हूँ, कलम और दवात,
इनमें से भाये नहीं, नये लिख दूँ,
जी, नए चाहिए नहीं, गए लिख दूँ,
मैं नए, पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ,
जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ।
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ।
जी, गीत जनम का लिखूँ मरण का लिखूँ,
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ,
यह गीत रेशमी है, यह खादी का,
यह गीत पित्त का है, यह बादी का,
कुछ और डिजाइन भी हैं, यह इलमी,
यह लीजे चलती चीज़, नई फ़िल्मी,
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत,
यह दुकान से घर जाने का गीत।
जी नहीं, दिल्लगी की इसमें क्या बात,
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात,
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,
जी, रूठ-रूठ कर मन जाते हैं गीत!
जी, बहुत ढेर लग गया, हटाता हूँ,
गाहक की मर्ज़ी, अच्छा जाता हूँ,
या भीतर जाकर पूछ आइए आप,
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप,
क्या करूँ मगर लाचार
हार कर गीत बेचता हूँ।
जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ।
∼ भवानी प्रसाद मिश्र
10 अप्रैल 2021
उत्तर आधुनिक आलोचक
जब मैंने भूख को भूख कहा
प्यार को प्यार कहा
तो उन्हें बुरा लगा
जब मैंने
पक्षी को पक्षी कहा
आकाश को आकाश कहा
वृक्ष को वृक्ष
और शब्द को शब्द कहा
तो उन्हें बुरा लगा
परन्तु जब मैंने
कविता के स्थान पर
अकविता लिखी
औरत को
सिर्फ़ योनि बताया
रोटी के टुकड़े को
चांद लिखा
स्याह रंग को
लिखा गुलाबी
काले कव्वे को
लिखा मुर्गाबी
तो वे बोले-
वाह ! भई वाह !!
क्या कविता है
भई वाह !!
---अमरजीत कौंके
प्यार को प्यार कहा
तो उन्हें बुरा लगा
जब मैंने
पक्षी को पक्षी कहा
आकाश को आकाश कहा
वृक्ष को वृक्ष
और शब्द को शब्द कहा
तो उन्हें बुरा लगा
परन्तु जब मैंने
कविता के स्थान पर
अकविता लिखी
औरत को
सिर्फ़ योनि बताया
रोटी के टुकड़े को
चांद लिखा
स्याह रंग को
लिखा गुलाबी
काले कव्वे को
लिखा मुर्गाबी
तो वे बोले-
वाह ! भई वाह !!
क्या कविता है
भई वाह !!
7 अप्रैल 2021
पुल पार करने से
पुल पार करने से पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना
नदी में धँसे बिना
पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता
नदी में धँसे बिना
पुल पार करने से
पुल पार नहीं होता
सिर्फ लोहा-लंगड़ पार होता है
कुछ भी नहीं होता पार
नदी में धँसे बिना
न पुल पार होता है
न नदी पार होती है।
--- नरेश सक्सेना
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना
नदी में धँसे बिना
पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता
नदी में धँसे बिना
पुल पार करने से
पुल पार नहीं होता
सिर्फ लोहा-लंगड़ पार होता है
कुछ भी नहीं होता पार
नदी में धँसे बिना
न पुल पार होता है
न नदी पार होती है।
1 अप्रैल 2021
उल्लू हौ
तुम चाहत हौ भाईचारा?
उल्लू हौ।
देखै लाग्यौ दिनै मा तारा?
उल्लू हौ।
समय कै समझौ यार इशारा
उल्लू हौ,
तुमहू मारौ हाथ करारा
उल्लू हौ।
जवान बीवी छोड़ के दुबई भागत हौ?
जैसे तैसे करौ गुजारा
उल्लू हौ।
कहत रहेन ना फँसौ प्यार के चक्कर मा
झुराय के होइ गयेव छोहारा
उल्लू हौ।
डिगिरी लैके बेटा दर दर भटकौ ना,
हवा भरौ बेँचौ गुब्बारा
उल्लू हौ।
इनका उनका रफीक का गोहरावत हौ?
जब उ चहिहैं मिले किनारा
उल्लू हौ
--- रफ़ीक शादानी
उल्लू हौ।
देखै लाग्यौ दिनै मा तारा?
उल्लू हौ।
समय कै समझौ यार इशारा
उल्लू हौ,
तुमहू मारौ हाथ करारा
उल्लू हौ।
जवान बीवी छोड़ के दुबई भागत हौ?
जैसे तैसे करौ गुजारा
उल्लू हौ।
कहत रहेन ना फँसौ प्यार के चक्कर मा
झुराय के होइ गयेव छोहारा
उल्लू हौ।
डिगिरी लैके बेटा दर दर भटकौ ना,
हवा भरौ बेँचौ गुब्बारा
उल्लू हौ।
इनका उनका रफीक का गोहरावत हौ?
जब उ चहिहैं मिले किनारा
उल्लू हौ
--- रफ़ीक शादानी
23 मार्च 2021
अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गांव में
ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के
कह रही है झोपडी औ’ पूछते हैं खेत भी,
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के
बिन लड़े कुछ भी यहाँ मिलता नहीं ये जानकर,
अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
कफ़न बाँधे हैं सिरों पर हाथ में तलवार है,
ढूँढने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गाँव के
हर रुकावट चीख़ती है ठोकरों की मार से,
बेडि़याँ खनका रहे हैं लोग मेरे गाँव के
दे रहे हैं देख लो अब वो सदा-ए-इंक़लाब,
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के
एकता से बल मिला है झोपड़ी की साँस को,
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
तेलंगाना जी उठेगा देश के हर गाँव में,
अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गाँव में
देख ‘बल्ली’ जो सुबह फीकी दिखे है आजकल,
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के
---बल्ली सिंह चीमा
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के
कह रही है झोपडी औ’ पूछते हैं खेत भी,
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के
बिन लड़े कुछ भी यहाँ मिलता नहीं ये जानकर,
अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
कफ़न बाँधे हैं सिरों पर हाथ में तलवार है,
ढूँढने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गाँव के
हर रुकावट चीख़ती है ठोकरों की मार से,
बेडि़याँ खनका रहे हैं लोग मेरे गाँव के
दे रहे हैं देख लो अब वो सदा-ए-इंक़लाब,
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के
एकता से बल मिला है झोपड़ी की साँस को,
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के
तेलंगाना जी उठेगा देश के हर गाँव में,
अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गाँव में
देख ‘बल्ली’ जो सुबह फीकी दिखे है आजकल,
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के
---बल्ली सिंह चीमा
15 मार्च 2021
"Estadio Chile", or "Somos Cinco Mil"
There are five thousand of us herein this small part of the city.
We are five thousand.
I wonder how many we are in all
in the cities and in the whole country?
Here alone
are ten thousand hands which plant seeds
and make the factories run.
How much humanity
exposed to hunger, cold, panic, pain,
moral pressure, terror and insanity?
Six of us were lost
as if into starry space.
One dead, another beaten as I could never have believed
a human being could be beaten.
The other four wanted to end their terror
one jumping into nothingness,
another beating his head against a wall,
but all with the fixed stare of death.
What horror the face of fascism creates!
They carry out their plans with knife-like precision.
Nothing matters to them.
To them, blood equals medals,
slaughter is an act of heroism.
Oh God, is this the world that you created,
for this your seven days of wonder and work?
Within these four walls only a number exists
which does not progress,
which slowly will wish more and more for death.
But suddenly my conscience awakes
and I see that this tide has no heartbeat,
only the pulse of machines
and the military showing their midwives' faces
full of sweetness.
Let Mexico, Cuba and the world
cry out against this atrocity!
We are ten thousand hands
which can produce nothing.
How many of us in the whole country?
The blood of our President, our compañero,
will strike with more strength than bombs and machine guns!
So will our fist strike again!
How hard it is to sing
when I must sing of horror.
Horror which I am living,
horror which I am dying.
To see myself among so much
and so many moments of infinity
in which silence and screams
are the end of my song.
What I see, I have never seen
What I have felt and what I feel
Will give birth to the momentÂ…
We are five thousand.
I wonder how many we are in all
in the cities and in the whole country?
Here alone
are ten thousand hands which plant seeds
and make the factories run.
How much humanity
exposed to hunger, cold, panic, pain,
moral pressure, terror and insanity?
Six of us were lost
as if into starry space.
One dead, another beaten as I could never have believed
a human being could be beaten.
The other four wanted to end their terror
one jumping into nothingness,
another beating his head against a wall,
but all with the fixed stare of death.
What horror the face of fascism creates!
They carry out their plans with knife-like precision.
Nothing matters to them.
To them, blood equals medals,
slaughter is an act of heroism.
Oh God, is this the world that you created,
for this your seven days of wonder and work?
Within these four walls only a number exists
which does not progress,
which slowly will wish more and more for death.
But suddenly my conscience awakes
and I see that this tide has no heartbeat,
only the pulse of machines
and the military showing their midwives' faces
full of sweetness.
Let Mexico, Cuba and the world
cry out against this atrocity!
We are ten thousand hands
which can produce nothing.
How many of us in the whole country?
The blood of our President, our compañero,
will strike with more strength than bombs and machine guns!
So will our fist strike again!
How hard it is to sing
when I must sing of horror.
Horror which I am living,
horror which I am dying.
To see myself among so much
and so many moments of infinity
in which silence and screams
are the end of my song.
What I see, I have never seen
What I have felt and what I feel
Will give birth to the momentÂ…
---Victor Jara
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