11 फ़रवरी 2022

जीने के बारे में

*एक*

जीना कोई हंसी खेल नहीं
आपको जीना चाहिये बड़ी संजीदगी के साथ
मसलन किसी गिलहरी की तरह -
मेरा मतलब है जीवन से सुदूर और ऊपर की किसी
चीज़ की तलाश किये बग़ैर,
मेरा मतलब है ज़िन्दा रहना आपका मुकम्मिल काम होना चाहिये.

जीना कोई हंसी खेल नहीं
आपको इसे गंभीरता से लेना चाहिये,
ऐसी और इस हद तक
कि, मिसाल के तौर पर, आपके हाथ बंधे आपकी पीठ पर,
आपकी पीठ दीवाल पर,
या फिर किसी प्रयोगशाला में
अपने सफ़ेद कोट और हिफ़ाज़ती चश्मों में
आप मर सकें लोगों के लिये -
उन लोगों तक के लिये जिनके चेहरे भी आपने कभी नहीं देखे,
गो कि जानते हैं आप
कि जीवन सबसे ज़्यादा वास्तविक, सबसे सुन्दर चीज़ है.

मेरा मतलब है, आपको इतनी संजीदगी से लेना चाहिये जीवन को
कि, उदाहरण के लिये, सत्तर की उम्र में भी आप रोपें जैतून का पौधा -
और यह नहीं कि अपने बच्चों के लिये, बल्कि इसलिये कि
हालांकि आप मृत्यु से डरते हैं
पर उस पर विश्वास नहीं करते
क्योंकि जीवन, मेरा मतलब है, ज़्यादा वज़नदार चीज़ है.

*दो*

मान लीजिये हम बहुत बीमार हैं - ऑपरेशन की ज़रूरत है -
जिसका मतलब है कि हो सकता है हम उठ भी न सकें
उस सफ़ेद मेज़ से
गो कि यह असंभव है अफ़सोस महसूस न करना
थोड़ा जल्दी चले जाने के बारे में
हम फिर भी हंसेंगे चुटकुले सुनते हुए,
हम देखेंगे खिड़की के बाहर कि बारिश तो नहीं हो रही,
या चिन्ताकुल प्रतीक्षा करेंगे
ताज़ा समाचार प्रसारण की ...
मान लीजिये हम मोर्चे पर हैं -
लड़ने लायक किसी चीज़ के लिये.
वहां पहले ही हमले में, उसी दिन
हम औंधे गिर सकते हैं मुंह के बल, मुर्दा.

हम जानते होंगे इसे एक अजीब गुस्से के साथ,
फिर भी हम सोचते - सोचते हलकान कर लेंगे ख़ुद को
उस युद्ध के नतीज़े की बाबत जो बरसों चल सकता है.
मान लीजिये हम जेल में हैं
और पचास की उम्र की लपेट में,
और लगाइये कि अभी अठ्ठारह बरस बाक़ी हैं
लौह फ़ाटकों के खुलने में.

हम फिर भी जियेंगे बाहर की दुनिया के साथ,
इसके लोगों, पशुओं, संघर्षों और हवा के -
मेरा मतलब कि दीवारों के पार की दुनिया के साथ
मेरा मतलब, कैसे भी कहीं भी हों हम
हमें यों जीना चाहिये जैसे हम कभी मरेंगे ही नहीं.

*तीन*

यह धरती ठण्डी हो जायेगी एक दिन
सितारों में एक सितारा
ऊपर से सबसे नन्हा
नीले मख़मल पर एक सुनहली ज़र्रा -
मेरा मतलब है - यही -हमारी महान पृथ्वी
यह पृथ्वी ठण्डी हो जायेगी एक दिन,
बर्फ़ की सिल्ली की तरह नहीं
मुर्दा बादल की तरह भी नहीं
बल्कि एक खोखले अखरोट की तरह यह लुढ़कती होगी,
घनघोर काले शून्य में ...
अभी इसी वक़्त आपको इसका दुःख मनाना चाहिये
अभी, इसी वक़्त ज़रूरी है आपके लिये
यह अफ़सोस महसूस करना -
क्योंकि दुनिया को इतना ही प्यार करना ज़रूरी है
अगर आपको कहना है "मैं जिया".

--- Nazim Hikmet,  सारे अनुवाद: वीरेन डंगवाल (१९९४), 'पहल' पुस्तिका से साभार.

2 फ़रवरी 2022

नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया

नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया
क्या है तेरा क्या है मेरा अपना पराया भूल गया
क्या भूला कैसे भूला क्यूँ पूछते हो बस यूँ समझो
कारन दोश नहीं है कोई भूला भाला भूल गया

कैसे दिन थे कैसी रातें कैसी बातें घातें थीं
मन बालक है पहले प्यार का सुंदर सपना भूल गया
अँधियारे से एक किरन ने झाँक के देखा शरमाई
धुँदली छब तो याद रही कैसा था चेहरा भूल गया

याद के फेर में आ कर दिल पर ऐसी कारी चोट लगी
दुख में सुख है सुख में दुख है भेद ये न्यारा भूल गया
एक नज़र की एक ही पल की बात है डोरी साँसों की
एक नज़र का नूर मिटा जब इक पल बीता भूल गया

सूझ-बूझ की बात नहीं है मन-मौजी है मस्ताना
लहर लहर से जा सर पटका सागर गहरा भूल गया

31 जनवरी 2022

Nothing Gold Can Stay

Nature’s first green is gold,
Her hardest hue to hold.
Her early leaf’s a flower;
But only so an hour.
Then leaf subsides to leaf.
So Eden sank to grief,
So dawn goes down to day.
Nothing gold can stay.

--- Robert Frost

23 जनवरी 2022

The Butterfly

The last, the very last,
So richly, brightly, dazzlingly yellow.
Perhaps if the sun's tears would sing
against a white stone…

Such, such a yellow
Is carried lightly ‘way up high.
It went away I'm sure because it wished to
kiss the world goodbye.

For seven weeks I've lived in here,
Penned up inside this ghetto
But I have found my people here.
The dandelions call to me
And the white chestnut candles in the court.
Only I never saw another butterfly.

That butterfly was the last one.
Butterflies don't live in here,
In the ghetto.

--- Pavel Friedmann 4.6.1942

17 जनवरी 2022

संतोषम् परम् सुखम्

पहली-पहली बारदुनिया बड़ी होगी एक क़दम आगे
जिसके क़दमों पर
अंसतोषी रहा होगा वह पहला ।

किसी असंतुष्ट ने ही देखा होगा
पहली बार सुंदर दुनिया का सपना

पहिए का विचार आया होगा
पहली-पहली बार
किसी असंतोषी के ही मन में
आग को भी देखा होगा पहली बार गौर से
किसी असंतोषी ने ही ।

असंतुष्टों ने ही लाँघे पर्वत, पार किए समुद्र
खोज डाली नई दुनिया

असंतोष से ही फूटी पहली कविता
असंतोष से एक नया धर्म

इतिहास के पेट में
मरोड़ उठी होगी असंतोष के चलते ही
इतिहास की धारा को मोड़ा
बार-बार असंतुष्टों ने ही

उन्हीं से गति है
उन्हीं से उष्मा
उन्हीं से यात्रा पृथ्वी से चाँद
और
पहिए से जहाज तक की

असंतुष्टों के चलते ही
सुंदर हो पाई है यह दुनिया इतनी
असंतोष के गर्भ से ही
पैदा हुई संतोष करने की कुछ स्थितियाँ ।

फिर क्यों
सत्ता घबराती है असंतुष्टों से
सबसे अधिक

क्या इसीलिए कहा गया है
संतोषम् परम् सुखम् ।

---महेश चंद्र पुनेठा

10 जनवरी 2022

जेरूसलम

तुम एक नहीं
दो नहीं
तीन-तीन धर्मों की
पवित्र भूमि हो
फिर भी
इतनी नफ़रत!
इतनी अशांति!
इतना ख़ून!

हे दुनिया के प्राचीन शहर
क्या कभी तुम्हें लगता है
कि पवित्र भूमि की जगह तुम
काश! एक निर्जन भूमि होते।

~ महेश चंद्र पुनेठा

6 जनवरी 2022

दिल्ली

यह कैसे चांदनी अमा के मलिन तमिस्त्र गगन में !
कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधुली-लगन में ?
मरघट में तू साज रही दिल्ली ! कैसे श्रृंगार ?
यह बहार का स्वांग अरि, इस उजड़े हुए चमन में !

इस उजाड़, निर्जन खंडहर में,
छिन-भिन्न उजड़े इस घर में,
तुझे रूप सजने की सूझी
मेरे सत्यानाश प्रहर में !

डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया तराना
और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;
हम धोते हैं गाव इधर सतलज के शीतल जल से,
उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिडकाना ?

महल कहाँ ? बस, हमें सहारा
केवल फूस-फांस, तृणदल का;
अन्न नहीं, अवलंब प्राण को
गम, आंसू या गंगाजल का;

यह विहगों का झुण्ड लक्ष्य है
आजीवन बधिकों के फल का,
मरने पर भी हमें कफ़न है
माता शैव्या के अंचल का !

गुलचीं निष्ठुर फेंक रहा कलियों को तोड़ अनल में,
कुछ सागर के पार और कुछ रावी-सतलज-जल में;
हम मिटते जा रहे, न ज्यों, अपना कोई भगवान् !
यह अलका छवि कौन भला देखेगा इस हलचल में ?

बिखरी लट, आंसू छलके हैं,
देख, वन्दिनी है बिलखाती,
अश्रु पोंछने हम जाते हैं,
दिल्ली ! आह ! कलम रुक जाती।

अरि विवश हैं, कहो, करें क्या ?
पैरों में जंजीर हाय, हाथों-
में हैं कड़ियाँ कस जातीं !

और कहें क्या ? धरा न धंसती,
हुन्करता न गगन संघाती !
हाय ! वन्दिनी मां के सम्मुख
सुत की निष्ठुर बलि चढ़ जाती !

तड़प-तड़प हम कहो करें क्या ?
'बहै न हाथ, दहै रिसि छाती',
अंतर ही अंतर घुलते हैं,
'भा कुठार कुंठित रिपु-घाती !'

अपनी गर्दन रेत-रेत असी की तीखी धारों पर
राजहंस बलिदान चढाते माँ के हुंकारों पर।
पगली ! देख, जरा कैसे मर-मिटने की तैयारी ?
जादू चलेगा न धुन के पक्के इन बंजारों पर।

तू वैभव-मद में इठलाती
परकीया-सी सैन चलाती,
री ब्रिटेन की दासी ! किसको
इन आँखों पर है ललचाती ?

हमने देखा यहीं पांडू-वीरों का कीर्ति-प्रसार,
वैभव का सुख-स्वप्न, कला का महा-स्वप्न-अभिसार,
यही कभी अपनी रानी थी, तू ऐसे मत भूल,
अकबर, शाहजहाँ ने जिसका किया स्वयं श्रृंगार।

तू न ऐंठ मदमाती दिल्ली !
मत फिर यों इतराती दिल्ली !
अविदित नहीं हमें तेरी
कितनी कठोर है छाती दिल्ली !

हाय ! छिनी भूखों की रोटी
छिना नग्न का अर्द्ध वसन है,
मजदूरों के कौर छिने हैं
जिन पर उनका लगा दसन है ।

छिनी सजी-साजी वह दिल्ली
अरी ! बहादुरशाह 'जफर' की ;
और छिनी गद्दी लखनउ की
वाजिद अली शाह 'अख्तर' की ।

छिना मुकुट प्यारे 'सिराज' का,
छिना अरी, आलोक नयन का,
नीड़ छिना, बुलबुल फिरती है
वन-वन लिये चंचु में तिनका।

आहें उठीं दीन कृषकों की,
मजदूरों की तड़प, पुकारें,
अरी! गरीबों के लोहू पर
खड़ी हुई तेरी दीवारें ।

अंकित है कृषकों के दृग में तेरी निठुर निशानी,
दुखियों की कुटिया रो-रो कहती तेरी मनमानी ।
औ' तेरा दृग-मद यह क्या है ? क्या न खून बेकस का ?
बोल, बोल क्यों लजा रही ओ कृषक-मेध की रानी ?

वैभव की दीवानी दिल्ली !
कृषक-मेध की रानी दिल्ली !
अनाचार, अपमान, व्यंग्य की
चुभती हुई कहानी दिल्ली !

अपने ही पति की समाधि पर
कुलटे ! तू छवि में इतराती !
परदेसी-संग गलबाँही दे
मन में है फूली न समाती !

दो दिन ही के 'बाल-डांस' में
नाच हुई बेपानी दिल्ली !
कैसी यह निर्लज्ज नग्नता,
यह कैसी नादानी दिल्ली !

अरी हया कर, है जईफ यह खड़ा कुतुब मीनार,
इबरत की माँ जामा भी है यहीं अरी ! हुशियार ।
इन्हें देखकर भी तो दिल्ली ! आँखें, हाय, फिरा ले,
गौरव के गुरु रो न पड़े, हा, घूंघट जरा गिरा ले !

अरी हया कर, हया अभागी !
मत फिर लज्जा को ठुकराती;
चीख न पड़ें कब्र में अपनी,
फट न जाय अकबर की छाती ।

हुक न उठे कहीं 'दारा' की
कूक न उठे कब्र मदमाती !
गौरव के गुरु रो न पड़ें, हा,
दिल्ली घूंघट क्यों न गिराती ?

बाबर है, औरंग यहीं है
मदिरा औ' कुलटा का द्रोही,
बक्सर पर मत भूल, यहीं है
विजयी शेरशाह निर्मोही ।

अरी ! सँभल, यह कब्र न फट कर कहीं बना दे द्वार !
निकल न पड़े क्रोध में ले कर शेरशाह तलवार !
समझायेगा कौन उसे फिर ? अरी, सँभल नादान !
इस घूंघट पर आज कहीं मच जाय न फिर संहार !

जरा गिरा ले घूंघट अपना,
और याद कर वह सुख सपना,
नूरजहाँ की प्रेम-व्यथा में
दीवाने सलीम का तपना;

गुम्बद पर प्रेमिका कुपोती
के पीछे कपोत का उड़ना,
जीवन की आनन्द-घडी में
जन्नत की परियों का जुड़ना ।

जरा याद कर, यहीं नहाती---
थी रानी मुमताज अतर में,
तुझ-सी तो सुन्दरी खड़ी---
रहती थी पैमाना ले कर में ।

सुख, सौरभ, आनन्द बिछे थे
गली, कूच, वन, वीथि, नगर में,
कहती जिसे इन्द्रपुर तू वह-
तो था प्राप्य यहाँ घर-घर में ।

आज आँख तेरी बिजली से कौध-कौध जाती है !
हमें याद उस स्नेह-दीप की बार-बार आती है !

खिलें फूल, पर, मोह न सकती
हमें अपरिचित छटा निराली,
इन आँखों में घूम रही
अब भी मुरझे गुलाब की लाली ।

उठा कसक दिल में लहराता है यमुना का पानी,
पलकें जोग रहीं बीते वैभव की एक निशानी,
दिल्ली ! तेरे रूप-रंग पर कैसे ह्रदय फंसेगा ?
बाट जोहती खंडहर में हम कंगालों की रानी।