15 अक्टूबर 2024

लीक पर वे चलें

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।

साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट,
कि उनमें गा रहा है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं।

शेष जो भी हैं—
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ;
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़,
हिलती क्षितिज की झालरें;
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मंडली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यंत्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के सहारे हैं।

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।

--- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

9 अक्टूबर 2024

वसीयत वही लिखता है

"वसीयत वही लिखता है
जिसके पास जमा-पूँजी होती है
ग़रीब आदमी वसीयत नहीं लिखता--
वह अपने दुख की किताब लिख सकता था
कि उस पर क्या बीती
उसकी लड़ाई क्या थी
उसका समझौता क्या था
उसका विरोध क्या था
और वह कैसे अकेला छोड़ दिया गया
हम सबके द्वारा
कि उसने अन्त में हारकर
आत्महत्या कर ली।"

~ विनोद कुमार शुक्ल

2 अक्टूबर 2024

उम्र में उस से बड़ी थी

उम्र में उस से बड़ी थी लेकिन पहले टूट के बिखरी मैं 
साहिल साहिल जज़्बे थे और दरिया दरिया पहुँची मैं 

शहर में उस के नाम के जितने शख़्स थे सब ही अच्छे थे 
सुब्ह-ए-सफ़र तो धुँद बहुत थी धूपें बन कर निकली में 

उस की हथेली के दामन में सारे मौसम सिमटे थे 
उस के हाथ में जागी मैं और उस के हाथ से उजली मैं 

इक मुट्ठी तारीकी में था इक मुट्ठी से बढ़ कर प्यार 
लम्स के जुगनू पल्लू बाँधे ज़ीना ज़ीना उतरी मैं 

उस के आँगन में खुलता था शहर-ए-मुराद का दरवाज़ा 
कुएँ के पास से ख़ाली गागर हाथ में ले कर पलटी मैं 

मैं ने जो सोचा था यूँ तो उस ने भी वही सोचा था 
दिन निकला तो वो भी नहीं था और मौजूद नहीं थी मैं 

लम्हा लम्हा जाँ पिघलेगी क़तरा क़तरा शब होगी 
अपने हाथ लरज़ते देखे अपने-आप ही संभली मैं

-किश्वर नाहिद

26 सितंबर 2024

पेट की आग बुझाने का सबब कर रहे हैं

पेट की आग बुझाने का सबब कर रहे हैं
इस ज़माने के कई मीर मतब कर रहे हैं

कोई हमदर्द भरे शहर में बाक़ी हो तो हो
इस कड़े वक़्त में गुमराह तो सब कर रहे हैं

कहीं ख़तरे में न पड़ जाए बुज़ुर्गी अपनी
लोग इस ख़ौफ़ से छोटों का अदब कर रहे हैं

सब लिफ़ाफ़े की हुसूली के लिए हो रहा है
हम जो ये शग़्ल जो ये कार-ए-अदब कर रहे हैं

हर कोई जान हथेली पे लिए फिर रहा है
इन दिनों वो लब-ओ-रुख़्सार ग़ज़ब कर रहे हैं

--- शकील जमाली

19 सितंबर 2024

मुझे उतनी दूर मत ब्याहना

मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हे

मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज़्यादा
ईश्वर बसते हों.

जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहाँ मत कर आना मेरा लगन

वहाँ तो कतई नही
जहाँ की सड़कों पर
मान से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटर-गाडियाँ
ऊँचे-ऊँचे मकान
और दुकानें हों बड़ी-बड़ी

उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिस घर में बड़ा-सा खुला आँगन न हो
मुर्गे की बाँग पर जहाँ होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाडे से जहाँ
पहाडी पर डूबता सूरज ना दिखे ।

मत चुनना ऐसा वर
जो पोचाईऔर हंडिया में
डूबा रहता हो अक्सर
काहिल निकम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर
जो बात-बात में बात करे लाठी-डंडे की
कोई थारी लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी
अच्छा-ख़राब होने पर

जो बात-बात में
बात करे लाठी-डंडे की
निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी
जब चाहे चला जाए बंगाल, आसाम, कश्मीर
ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया
फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नही उठाया

और तो और
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो "ह" से हाथ
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ
महुआ का लट और खजूर का गुड़
ब्याहना तो वहाँ ब्याहना
जहाँ सुबह जाकर
शाम को लौट सको पैदल

मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप.....

महुआ का लट और
खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ सन्देश
तुम्हारी ख़ातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूँ कद्दू-कोहडा, खेखसा, बरबट्टी,
समय-समय पर गोगो के लिए भी
मेला हाट जाते-जाते
मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गाँव का हाल-चाल
चितकबरी गैया के ब्याने की ख़बर
दे सके जो कोई उधर से गुजरते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे

उस देश ब्याहना
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ
वहीं ब्याहना मुझे!

- निर्मला पुतुल

12 सितंबर 2024

|| कविताएँ देशहित में नहीं होतीं ||

कविताएँ देशहित में नहीं होतीं
जैसे
हवाएँ नेत्रहित में नहीं होतीं
वही उकसाती हैं रेतकणों को
उछलकर किरकिरी बन जाने के लिए
वैसे ही
कविताएँ देशहित में नहीं होतीं
वही बताती हैं कि सीमाएँ क़ैद करती हैं
इंसान को
इस तरफ़ भी और उस तरफ़ भी
देती हैं इल्म
कि क्या रहम है और क्या ज़ुल्म
बताइए साँप को
ज़हर मारने की दवा भाएगी क्या!

--- विवेक आसरी

5 सितंबर 2024

बुख़ार में कविता

'मंच पर खड़े होकर
कुछ बेवक़ूफ़ चीख़ रहे हैं
कवि से
आशा करता है
सारा देश।
मूर्खों! देश को खोकर ही
मैंने प्राप्त की थी
यह कविता...'

~ श्रीकान्त वर्मा
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{'बुख़ार में कविता' से}