20 जून 2010

To the Choirmaster

The rock lives in the desert, solid, taking its time.
The wave lives for an instant, stable in momentum
at the edge of the sea, before it folds away.
Everything that is, lives and has size.
The mole sleeps in a hole of its making,
and the hole also lives; absence is not nothing.
It didn’t desire to be, but now it breathes
and makes a place, for the comfort of the mole.
I am a space taken, and my absence will be shapely
and of a certain age, in the everlasting.
In the fierce evening, on the mild day,
How long shall I be shaken?

-(Habakkuk)

by Paul Hoover
from Poetry Magazine,
June 2010

12 जून 2010

नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं

नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
क़रीब उनके आने के दिन आ रहे हैं
जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है
सब उनको सुनाने के दिन आ रहे हैं

अभी से दिल-ओ-जाँ सरे-राह रख दो
के लुटने लुटाने के दिन आ रहे हैं
टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं

सबा फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं
चलो "फ़ैज़" फिर से कहीं दिल लगायेँ
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं

--- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
It is also used in the film In Custody (1993)
गायक: शंकर महादेवन
संगीतकार: उस्ताद जाकिर हुसैन और उस्ताद सुलतान खान

11 जून 2010

Humne is ishq mein kya khoya hai

आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रखा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था

आशना हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे इसी र’अनाई के
जिसकी इन आँखों ने बेसूद इबादत की है

तुझ से खेली हैं वह महबूब हवाएँ जिनमें
उसके मलबूस की अफ़सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से मेहताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है

तू ने देखी है वह पेशानी वह रुख़सार वह होंठ
ज़िन्दगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उठी हैं वह खोई-खोई साहिर आँखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने

हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के
इतने एहसान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकूँ
हमने इस इश्क़ में क्या खोया क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ

आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिर्मां के दुख-दर्द के म’आनी सीखे
ज़ेर द्स्तों के मसाएब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रुख़े ज़र्द के म’आनी सीखे

जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके
अश्क आंखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तौले हुए मंडराते हुए आते हैं

जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है|

--- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

चुनरी में दाग

मनवा में मेरे आँधी है उठी, और स्तब्ध खड़ी हूँ मैं
सांसो में बाँध अपनी ही सांस, निशब्द खड़ी हूँ मैं

दुनिया से जीती जीती, खुद से हारी बर ध्वस्त खड़ी हूँ मैं
आइना में और अक्स में, मद मस्त खड़ी हूँ मैं

लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग
चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग

झम झम झम झम झमजवात
अंतर में गूँजे दिवस रात
एक शून्य शून्य कपटी विशाल
माया की दशे से लड़ती मैं भिड़ी
विश्वस्त खड़ी हूँ मैं
मेरी लाज में हूँ, चूनर भी मैं हूँ
चुनर पे दाग भी मैं

[ हो गयी मैली मोरी चुनरिया
कोरे बदन सी कोरी चुनरिया] - 2

हाँ जाके बाबुल से नजरें मिलाऊँ कैसे
घर जाऊँ कैसे

[लगा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे] - 2

मैं ध्वस्त ध्वस्त, मैं नष्ट पष्ट
मैं सरल विरल, मैं अति विशिष्ट
मैं श्याम श्वेत, बादल में रेत
निर्झर सी झरी हूँ मैं
अंधियारी रात, दीपक में बाती
स्वपनिल सी खड़ी हूँ मै
कंचन की काया, अपना ही साया
बस खुद से डरी हूँ में
लकड़ी मैं गीली, थोड़ी सीली सीली
थम थम के जली हूँ मैं
मैं माया माया, मैं छाया छाया
आत्मा और काया मैं

[निशब्द खड़ी हूँ मैं] - 2
विश्वस्त खड़ी हूँ मैं
लागा चुनरी में दाग
सर्वत्र खड़ी हूँ मैं

लागा चुनरी में दाग
सर्वत्र खड़ी हूँ मैं

--- स्वानंद किरकिरे

8 जून 2010

Aaj bazaar main pa ba jolan chalo

आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो

चश्म-ए-नम जान-ए-शोरीदा काफी नहीं
तोहमत-ए-इश्क़ पोशीदा काफी नहीं
आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो

दस्त-अफ्शां चलो, मस्त-ओ-रक़्सां चलो
खाक-बर-सर चलो, खूं-ब-दामां चलो
राह तकता है सब शहर-ए-जानां चलो

हाकिम-ए-शहर भी, मजम-ए-आम भी
तीर-ए-इल्ज़ाम भी, संग-ए-दुश्नाम भी
सुबह-ए-नाशाद भी, रोज़-ए-नाकाम भी

इनका दमसाज़ अपने सिवा कौन है
शहर-ए-जानां मे अब बा-सफा कौन है
दस्त-ए-क़ातिल के शायां रहा कौन है

रख्त-ए-दिल बांध लो दिलफिगारों चलो
फिर हमीं क़त्ल हो आयें यारों चलो

आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो

--- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
Check Jahane Rumi's webpage for translation and explanation;
Video Weblink of the Poetry Reading by Faiz himself.

दमसाज़ an intimate friend, a cosinger; पा-ब-जौला with fetters in feet, prisoner, helpless; पोशीदा hidden, concealed रक़्सां dancing; रख्त baggage, property; शायां suitable, fit, worthy; शोरीदा mad, desperately in love, disturbed, dejected

Nisar Main Teri Galiyon Ke

निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन, कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले

है अहल-ए-दिल के लिये अब ये नज़्म-ए-बस्त-ओ-कुशाद
कि संग-ओ-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद

बहोत हैं ज़ुल्म के दस्त-ए-बहाना-जू के लिये
जो चंद अहल-ए-जुनूँ तेरे नाम लेवा हैं
बने हैं अहल-ए-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें, किस से मुंसिफ़ी चाहें

मगर गुज़रनेवालों के दिन गुज़रते हैं
तेरे फ़िराक़ में यूँ सुबह-ओ-शाम करते हैं

बुझा जो रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है
कि तेरी मांग सितारों से भर गई होगी
चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है
कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गई होगी

ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं
गिरफ़्त-ए-साया-ए-दिवार-ओ-दर में जीते हैं

यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई

इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते
तेरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते

ग़र आज तुझसे जुदा हैं तो कल बहम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
ग़र आज औज पे है ताल-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं

जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं
इलाज-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-निहार रखते हैं

---फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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Video of Potery Reading and English Translation (Source)

My salutations to thy sacred streets, O beloved nation!
Where a tradition has been invented- that none shall walk with his head held high
If at all one takes a walk, a pilgrimage
One must walk, eyes lowered, the body crouched in fear

The heart in a tumultuous wrench at the sight
Of stones and bricks locked away and mongrels breathing free

In this tyranny that has many an excuse to perpetuate itself
Those crazy few that have nothing but thy name on their lips
Facing those power crazed that both prosecute and judge, wonder
To whom does one turn for defence, from whom does one expect justice?

But those whose fate it is to live through these times
Spend their days in thy mournful memories

When hope begins to dim, my heart has often conjured
Your forehead sprinkled with stars
And when my chains have glittered
I have imagined that dawn must have burst upon thy face

Thus one lives in the memories of thy dawns and dusks
Imprisoned in the shadows of the high prison walls

Thus always has the world grappled with tyranny
Neither their rituals nor our rebellion is new
Thus have we always grown flowers in fire
Neither their defeat, nor our final victory, is new!

Thus we do not blame the heavens
Nor let bitterness seed in our hearts

We are separated today, but one day shall be re- united
This separation that will not last beyond tonight, bears lightly on us
Today the power of our exalted rivals may touch the zenith
But these four days of omniscience too shall pass

Those that love thee keep, beside them
The cure of the pains of a million heart- breaks

ईन्तेसाब - आज के नाम

ईन्तेसाब
आज के नाम

आज के नाम
और
आज के ग़म के नाम
आज का ग़म कि है ज़िन्दगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा
ज़र्द पत्तों का बन
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
दर्द का अंजुमन जो मेरा देस है
किलर्कों की अफ़सुर्दा जानों के नाम
किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम
पोस्ट-मैंनों के नाम
टांगेवालों के नाम
रेलबानों के नाम
कारख़ानों के भोले जियालों के नाम
बादशाह्-ए-जहाँ, वालि-ए-मासिवा, नएबुल्लाह-ए-फ़िल-अर्ज़, दहकाँ के नाम

जिस के ढोरों को ज़ालिम हँका ले गये
जिस की बेटी को डाकू उठा ले गये
हाथ भर ख़ेत से एक अंगुश्त पटवार ने काट ली है
दूसरी मालिये के बहाने से सरकार ने काट ली है
जिस के पग ज़ोर वालों के पाँवों तले
धज्जियाँ हो गयी हैं

उन दुख़ी माँओं के नाम
रात में जिन के बच्चे बिलख़ते हैं और
नींद की मार खाये हुए बाज़ूओं से सँभलते नहीं
दुख बताते नहीं
मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं

उन हसीनाओं के नाम
जिनकी आँखों के गुल
चिलमनों और दरिचों की बेलों पे बेकार खिल खिल के
मुर्झा गये हैं
उन ब्याहताओं के नाम
जिनके बदन
बेमोहब्बत रियाकार सेजों पे सज-सज के उकता गये हैं
बेवाओं के नाम
कतड़ियों और गलियों, मुहल्लों के नाम
जिनकी नापाक ख़ाशाक से चाँद रातों
को आ-आ के करता है अक्सर वज़ू
जिनकी सायों में करती है आहो-बुका
आँचलों की हिना
चूड़ियों की खनक
काकुलों की महक
आरज़ूमंद सीनों की अपने पसीने में जलने की बू

पड़नेवालों के नाम
वो जो असहाब-ए-तब्लो-अलम
के दरों पर किताब और क़लम
का तकाज़ा लिये, हाथ फैलाये
पहुँचे, मगर लौट कर घर न आये
वो मासूम जो भोलेपन में
वहाँ अपने नंहे चिराग़ों में लौ की लगन
ले के पहुँचे जहाँ
बँट रहे थे घटाटोप, बे-अंत रातों के साये
उन असीरों के नाम
जिन के सीनों में फ़र्दा के शबताब गौहर
जेलख़ानों की शोरीदा रातों की सर-सर में
जल-जल के अंजुम-नुमाँ हो गये हैं

आनेवाले दिनों के सफ़ीरों के नाम
वो जो ख़ुश्बू-ए-गुल की तरह
अपने पैग़ाम पर ख़ुद फ़िदा हो गये हैं

--- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
This is the video weblink of the poetry reading .